वह चार साल की थी, और वह वहाँ क्यों थी? अपने घर से बहुत दूर, कई गलियाँ और दो मोहल्ले, सात विशाल द्वार और चढ़ाइयाँ पार कर ? किसी घर की अजनबी छत पर अपनी फ्रॉक के नीचे बिना कुछ पहने? महज एक तोते की चाह में?
“ ए, बिल्ली जानती है? वह तोता बोलता है. “
“ मेरा नाम भी बोलेगा? “
” हाँ मेरी छोटी बहन पिंकी का तो नाम बोलता है. तेरा भी बोलेगा।”
“ डीके अंकल मगर बिल्ली नहीं मिन्नू.”
” न मिन्नू न बिल्ली, मिस मनाली बोलेगा ठीक है? अब चलें?

एक पीली तितली लापता हुई थी। ये उसके जीवन के उन दिनों की बात है, जब मौसम, वक्त और उमर की गिनती तक नहीं पता होती थी। हर दिन एक उत्सुक रोशनी लिए उगता था। सूरज बतियाता, चाँद कहानियाँ सुनाता. जब वह पाठशाला तक नहीं जाती थी तो हर दिन उसके लिए एक पाठशाला होता था। हथेली पर रखी रेशम की बुढ़िया और बाँह पर साथियों की चिकोटी, जांघ पर चलते मकोड़े की गुदगुदी तक नई लगती थी। पेट की गुलगुली एक मजेदार खेल होती, किसी की छींक तक पर खिलखिला देने के दिन थे। बड़ों के शरीर बहुत बड़े लगते, चाहे वह कोई थोड़ा ही बड़ा क्यों न हो, सच के बड़े तो बहुत बड़े थे। छोटा सा पार्क विशाल लगता और टॉयट्रेन में कूद कर बैठना भी कठिन कवायद। हमेशा खेलना, खाना और रोज कुछ नया जानना और उसे कौतुक की तरह लेना। नौ बजते ही जहाँ खेलते – खेलते वहीं गहरी नींद में सो जाना, सुबह बिस्तर पर मिलने कुछ न याद रहना कि यहाँ कब कौन लाया? खाना किसने खिलाया। उसके प्यारे – भोले दिनों को मां तह लगा लगा कर तसल्ली और विस्मृति की नींद के बक्से में रखती जाती। वह कौतुकप्रिया कुछ दिनों को उन तहाए दिनों को फिर बाहर निकाल लेती और उन पर अपनी कल्पना की चित्रकारी करती।

“कल जब मम्मी आप पिंटू को लेने हॉस्पिटल गई थी न, तब आपने हमें हलवा बना कर खिलाया था। नेहरू पार्क भी ले गए थे। “

माँ हंसती, “मिन्नू के लिए बहुत दिन पहले भी कल होता है। जबकि मिंटू डेढ़ साल का हो चुका।”

पापा जोड़ते – “दो दिनों को मिक्स भी करती है। कुछ चीजें अपनी तरफ से गप्प करके लगा देती है। यह उम्र है ही कल्पना करने की.”

मैं तब भी बहस करती – ” नहीं पापा, मैं सच कहती हूं। कल जब मैं डीके अंकल के घर गई थी ना, तब मेरी पीली तितली गुम हो गई…..उन्होंने मेरी चड्डी से पकड़ कर फ्रेम में लगा दी।”

यहां आकर बस मीठी लताड़ मिलती – “मिंटू, बस अब। जाकर अपने रंगों की किताब में रंग भरो।

” मिन्नू अजीबोगरीब ढंग से नहीं पेश आ रही ? मुझे समझ नहीं आरहा। कभी – कभी मैं उसे पाती हूँ …..नहीं पता….जैसे कि वह…वह मुझे डरा सा देती है। मेरे कहने का मतलब वह सोने का बहाना बना कर जग रही होती है। “

“वह अभी इस तरह …..बहाने बनाए, इसके लिए भी बहुत छोटी है। वह हमेशा थोड़ी अजीब रही है। मूडी।”

” हो सकता है।”

माँ को पता नहीं चला कि मिन्नू आहिस्ता से दूसरी ही किस्म की बच्ची हो चली। वह हमेशा गुड़ियों रहस्यपूर्ण खेलों में उलझी रहने लगी। गुड़ियों को खरीदने से पहले वह उनकी फ्रॉक उलटती, जिन गुड़ियों ने चड्डी न पहनी होती वह खरीदती ही नहीं। अपनी पुरानी गुड़ियों के लिए वह मम्मी से जिद करती की उनकी चड्डियां सिल दें। उसकी इस सनक पर मां खीजतीं। वह कोनों में खेलती, पर्दों में छिप कर, छातों के घर बना कर अकेले खेलती। उसने पिंटू को अपने खेलों से निष्काषित कर दिया था।

****

उसे मिन्नू से मनाली हुए अर्सा हो गया. मम्मी आज भी व्यस्त हैं। वही दफ्तर है, मगर आज वे उसकी हेड हैं. डीके भी अब उनके दफ्तर का हेड – क्लर्क है। उस छोटे शहर में वह लोकप्रिय व्यक्ति है क्योंकि मिलनसारी उसकी आदत है, अपने आप में वह आज भी रोचक व्यक्ति है। शहर के हर व्यक्ति को वह जानता है, शहर का हर व्यक्ति भी उससे वाक़िफ़। वह शहर की नाम – पतों की डायरेक्ट्री है, वहीं शहर के इतिहास का एनसायक्लोपीडिया है। उसे विशिष्ट बनाने वाली बहुत सी चीजें हैं – पुराने सिक्कों, डाक टिकटों का अनूठा संग्रह, यहाँ – वहां से पकड़ी तमाम किस्मों की रंगबिरंगी तितलियों के फ्रेम । मानसरोवर यात्रा समेत अनेकों रोमांचक यात्राओं के रोचक अनुभव, फोटो – एलबम जिनमें सिने स्टारों और नेताओं के साथ उसकी फोटो हैं और बातों का धनी तो डीके है ही। वह आज भी शहर में इसी नाम से जाना जाता है. हर प्रतिष्ठित घर में उसकी आवाजाही. हर दुख – ज़रूरत में आगे. अब उसकी पत्नी भी है, स्कूल जाते बच्चे भी. पत्नी भी खूब घुलने – मिलने वाली खुशमिज़ाज़ महिला है।

तीन साल की थी मनाली जब बस से पापा की उंगली पकड़ कर उतरी थी इस शहर में. तब वह मिन्नू थी, मम्मी की गोद में नन्हा भाई पिंटू था. उस रोज मिन्नू किले को देख कर भौंचक्क हो गई थी, पूरे शहर को घेरता सा। ठीक उस दिन से वह डीके को जानती है। डीके को दफ्तर वालों ने मम्मी – पापा के स्वागत और सरकारी क्वार्टर में जम जाने में सहायता करने के लिए भेजा था. हर कौतुकप्रिय बच्चे की तरह मिन्नू को बहुत रोचक लगा था बातूनी डीके, बस वह कॉलेज से बी. ए. करके निकला ही था। लंबा,बहुत लंबा, सांवला और कपिल देव की जैसी मूछों वाला। उसका सामने और उपर वाला एक दांत कोने से दरका हुआ था और एक नकली था, जिसे वह जीभ से बाहर निकाल कर मिन्नू के सामने कौतुक करता। वह मम्मी के दफ्तर में अस्थाई क्लर्क था. मिन्नू उसे भाई साहब या चाचाजी नहीं कहती थी. डीके अंकल।

डीके अंकल के दफ्तर और दूर किले के ऊपर बसे मोहल्ले में उनके घर के बीच का पड़ाव ही था मिन्नू का घर था. जहाँ डीके हर दूसरे दिन चाय पीने, फाइलों पर दस्तखत करवाने और मिन्नू से खेलने रुकता था। दूसरे दफ्तर वालों की देखा – देखी डीके ने भी मम्मी – पापा और मिन्नू – पिंटू को घर पर खाने के लिए बुलाया था. वे सब सरकारी गाड़ी में पहली बार किले पर गए. मिन्नू ने तुरंत रिश्ता बना लिया किले से. ख़ंडहर बड़े – बड़े पोल, पोल यानि प्रवेश द्वार न कि खंभे. विशालता, कहानियाँ और नील गाएं. डीके अंकल का भुलभुलैया घर और तोता जो बोलता था। इतनी रोचक थी वह किले की यात्रा कि मिन्नू फिर उस यात्रा के लिए लालयित थी. एक दिन मम्मी के साथ – साथ ही डीके अंकल सायकिल पर फाईल लेकर आ गए. मिन्नू दौड़ कर आई गोद में चढ़ गई.

“अंकल तोता राम कैसा है?”
“ तुझे याद करता है, पूछता है कि वह बिल्ली कहाँ है? अब तो घर के पिछवाड़े में खूब अमरूद भी उगे हैं. गोमुख का तालाब लबालब पानी से भरा है. चने खाने वाली मछलियाँ याद हैं? ” डीके ने मम्मी को देख कर आहिस्ता से दुबली – पतली टांगों वाली मिन्नू को सोफे पर उतार दिया.
“ मम्मी हम कब जाएंगे किले? देखो न डीके अंकल क्या कह रहे हैं.”
“ मिन्नू काम करने दो. जाएंगे किसी संडे को.” मम्मी चश्मा संभाले पेन चलाती रहीं फाईलों पर. वह डीके की गोद में मचलती रही.
“कल संडे है. कल चलें? “ मम्मी ने जवाब नहीं दिया, लेकिन डीके अंकल ने उसे चुप रहने का ईशारा किया. कि मैं कुछ करता हूँ. फाईलें पूरी, चाय आगई.
“ मैडम, मिन्नू का इतना मन है, पिंकी और तोते से मिलने का. मम्मी भी पूछ रही थी तो मैं ले जाऊं? कल शाम तक वापस छोड़ दूंगा. “
”सायकल पर?”
“ हाँ. “
” इतनी दूर? “
“ मम्मी कल आ जाऊंगी. जाने दो न. हमको पिंकी से मिलना है. हमको अमरूद खाने हैं. गोमुख की मछलियां देखनी है.”
“ पापा से पूछना होगा.”
“ पापा देर से आएंगे मम्मी, तब तक डीके अंकल चले जाएंगे.”

मिन्नू जमीन पर बैठ कर मचलने लगी डीके ने फिर उसे गोद में ले लिया. मिन्नू ने डीके के गले मॆं बाँह डाल दी. मम्मी असमंजस में.

“अब तुमको स्कूल में डालना पड़ेगा, तुम बहुत ज़िद्दी हो मिन्नू.”
“तुम हमको कहीं नहीं ले जाती, मेरे साथ कोई नहीं खेलता. पिंटू को प्यार करती हो आप मुझे नहीं. घर का सारा दूध पिंटू पीता है, मुझे तुम दूध नहीं देतीं. “
” पक्की बिल्ली है तू मिन्नू. अब मैं तुझे बिल्ली ही कहूंगा. “
“ और पिंटू को? “
” चूहा.”
“ मैडम, फिर ले जाऊं इसे ? “

मम्मी क जवाब याद नहीं मिन्नू को पर वह रोमांचक यात्रा याद है. वह पीछे बैठी है सायकल के स्टेंड पर, पैरों में नन्हें लाल जूते लटके हैं. शहर की टिमटिम रोशनियाँ खत्म होती हैं, पाडन पोल के बाद. घुप्प अंधेरा. डीके सधाव से सायकिल चलाता जा रहा है, बातें कर रहा है.

”बिल्ली, तुझे खाने में क्या पसंद है?”
“ मुझे रोटी बिलकुल नहीं पसंद.”
” तुझे पता है यहाँ शेर भी मिलते हैं? “
”डर लग रहा है अंकल.”
“डरने की बात नहीं, मैं तो रोज़ आता – जाता हूँ.
“आपको मिला? ”
“एक बार सामने से गुजरा. लोमड़ियाँ तो तुझे भी दिख जाएंगी आगे.”

सच में लक्ष्मण पोल – हनुमान पोल के मोड़ पर बच्चों के साथ जाती ती लोमड़ी दिखी. एक विशाल पेड़ से उतर कर दूसरे पेडॉअ पर भाग कर चढ़ता बिज्जू देख कर मिन्नू चीख पड़ी तो डीके ने सायकिल पर आगे बिठा लिया मिन्नू को. पैडल मारते में डीके की छाती का उसके सर पर दबाव उसे आश्वस्त करता रहा. किले पर बसा मोहल्ला छोटा ही था. डीके का घर यानि आज भी रौनकें ही रौनकें, सात भाई – बहन हर उम्र के, तोता, एक अल्सेशियन कुत्ता शेरु डीके की मम्मी यानि नानी जी, डीके के पापा नाना जी. डीके के इकट्ठे किए सिक्के. एलबम. बड़ा अहाता, घर के पीछे किले के टूटे खंडहर, चिमगादड़ें. रात को बाघ की दहाड़.

पहुंचते – पहुंचते रात के आठ बज गए थे. वहाँ सबने उसे घेर लिया, मीठी बातें कीं. सबके साथ उसने खाना खाया . शहर से किले पर आने में की सात किमी की चढ़ाई वाली यात्रा, तोते – पिंकी से खेल कर थक गई मिन्नू पिंकी से लड़ाई और उंगली में तोते के काट लेने से रुआंसी हो गई. उसे मम्मी की याद आने लगी. डीके के सारे छोटे भाई – बहनों ने उसे मनाने की कोशिश की. रंगीन पेंसिलें दीं, मगर वह मुंह उतारे बैठी रही. अपने पिता के कमरे में समय बिता कर डीके नहाया, रसोई में खाना खाकर ही उसके पास आया. पूछा मिन्नू ने खाना खाया? मिन्नू घर से लाया अपना छोटा – सा बैग चिपकाए बैठी थी।

मिन्नू को रुआंसा बहनों के कमरे में देख कर पूछा – क्या हुआ तो वह रो पड़ी. मम्मी पास जाना है.

“ कल जाएंगे ना. अभी रात में शेर मिल जाएंगे रास्ते में. तूने आवाज़ नहीं सुनी यहाँ दहाड़ की? हाँ पर तू डरी नहीं ना? तू तो बिल्ली मौसी है शेर की. चल तुझे कहानी सुनाऊं. “ बहनों को पढ़ता देख वह वहाँ से मिन्नू को ले गया. उसका कमरा छत पर था. जैसा कि उस ज़माने में घर के बड़े लड़कों के कमरे छत पर होते थे.
“दिखाओ तुम्हारे बैग में क्या है?”
उसके बैग में एक फ्रॉक थी, एक नन्हा टूथब्रश, एक मुचड़ा हुआ चमकीला रिबन, एक ढीले सर, सुनहरे बालों वाली गुड़िया।
“तुम गुड़िया छोड़ो मैं तुम्हें जादुई चीजें दिखाऊं।”

वह उसे गोद में उठा कर कमरे से लगी बैठक में ले गया जहां चार बड़े बड़े फ्रेमों में कई रंगों, आकारों – प्रकारों की मरी तितलियां क़ैद थीं। साथ ही वह मरी तितलियों के एलबम दिखाने लगा। वह नाख़ुश थी उन्हें देखकर, उसने रुआंसू वाली अपनी अदा में निचला होंठ बाहर निकाल दिया।

” अंकल, इनको उड़ा दो। इनको उड़ा दो बाहर। “
“ये बंद हो गईं अब नहीं उड़ेंगी कभी।” वह बोला तो उसकी आँखों में आंसू भर गए।

यह देख कर वह टिकट एलबम और अलग – अलग बटुओं में रखे ताँबे के सिक्कों को निकाल लाया। थकी हुई रुआंसी मिन्नू कुछ देर उनसे खेलती हुई सो गई. वह कुछ पढ़ता रहा, फिर लाईट बंद. लाईट बंद हुई। पलकें भी मुंदी। पर रात जगती रही चेतन – अवचेतन और स्वप्न के बीच वह पीली तितली कुनमुनाई और उड़ गई चेतना से।

अगले दिन दोपहर होने तक वह घर आगई. रविवार की दोपहर मम्मी खुद खाना बना रही थीं। पिंटू सो रहा था. पापा दूरदर्शन देखने में व्यस्त थे।

“तू कब आई मिन्नू। डीके ऊपर नहीं आया? क्या- क्या किया मिन्नू ने डीके के घर? अमरूद खाए? तोते राम से खेली?”
”गंदा तोता उसने काटा मेरी उंगली को. अमरूद खाए पर कच्चे थे मम्मी, बहुत कच्चे। तोते ने भी नहीं छुए।”
”मछलियाँ?”
“ नहीं देखीं, हमको घर आना था. आपकी बहुत याद आई . “मम्मी डीके अंकल गंदा है, तितलियां बंद करता है फोटो में। इसीलिए उसने मेरी पीली तितली वाली चड्…।” मिन्नू ने भोली शहदीली आँखे गीली करके, होंठ बाहर निकाल कर रुआंसू होकर कहा। मम्मी ने खीर का कटोरा पकड़ा कर कहा, ” जा बैठ कर खाले।”

अगला दिन कुहासे से घिरा सा था मिन्नू के लिए। अपने आस – पास के लोगों में से उसकी दिलचस्पी जाती रही। उस दिन पापा लौटे तो वह दौड़ कर पापा के पैरों से नहीं लिपटी। इसी साल स्कूल जाना शुरू हुआ तो बस्ते – कॉपियों और स्कूल के दोस्तों ने दिनचर्या को भर डाला।

*********

अब मनाली की शादी होने को है. साथी है खूबसूरत, रस्ता नया – नया की तर्ज़ पर रोज़ फोन पर प्रेम. कोर्टशिप के दिन सुंदर बीत रहे हैं. न मिन्नू मिनी है, न डीके काबुलीवाला. वह अब भी उसे बिल्ली कहता है, पिंटू को चूहा. जो न पिंटू को पसंद है, न मनाली को. दोनों उसके इस परिहास पर मुंह बनाते हैं. पिंटू और मनाली का रिश्ता ऎसा है कि वे बिनकहे एक दूसरे की भावना समझते हैं. तराऊपर के भाई – बहनों की तरह।

डीके बरसों से हासिल विश्वास के तहत एकतरह से परिवार का निकट मित्र हो चुका है. लंबा कद, सांवला चेहरा, तीखी नाक हमेशा औपचारिक लिबास, तरतीब से संभले बाल. सौम्य आवाज़ और हमेशा मित्रवत. सहायता को हरदम तत्पर. शहर ने उसे अपना अघोषित सांस्कृतिक प्रतिनिधि सा बना दिया था. हर संभ्रात घरों में उसकी सहज उपस्थिति. शहर के हर कार्यक्रम में वह मौजूद.

आज मनाली का शादी वाली पोशाक सिल कर आयी है. वह चाव से भर कर उसे पहन कर देख रही है, आयने के सामने घूम – घूम कर. है.पुराना आईना हतप्रभ है. यही आईना गवाह है, मनाली की हर उम्र का. स्कूल के फंक्शनों में पहने लहंगे और आज के इस लंहगे में फर्क है एक वक्त का. उसे आने वाली इक्कीस तारीख को सबसे सुंदर दिखना है. वह अपना मराल शरीर मोड़ मोड़ कर कुर्ती और काँचली की फिटिंग देख रही है. चल कर, घूम कर. सर पर ओढ़ना रख कर लजा कर देख रही है तरह तरह से. बांकी चितवन की भी तीन चार विविध अदाओं में से एक चुन रही हैं. चुंबन के लिए वह होंठ आईने की तरफ बढ़ा रही है कि …… उसकी निजता के तरल में कोई प्रविष्ट हुआ है। किसी ने उसे पीछे से कंधों से थाम लिया है. डीके अंकल!!! वह तमतमा गई. वह उसके सीने पर कोहनी गड़ा कर सीधी हो गई.

“प्रिंसेस लग रही है मेरी बिल्ली. सही समय पर आया मैं.” डीके के चेहरे पर वही गंदा भाव पुता था, जो बसों में उन आदमियों के पुता रहता है जो लड़कियों को जानकर छूते चलते हैं और मुड़कर देखो तो अजब सौजन्यता और उदासीनता का भाव ओढ़ लेते हैं. लेकिन वासना उस सौजन्यता के पीछे से बुरी तरह उघड़ती चली जाती है
“ नहीं! यह ग़लत समय है, आपके बिना नॉक किए मेरे कमरे आने का. समय वह भी ग़लत था डीके अंकल आपके अपने कमरे में, मुझे ले जाने का। यह बताइये बीस साल पहले मैं उस छत पर सुबह पांच बजे वॉश बेसिन के नीचे अपनी फ्रॉक उठाए क्या कर रही थी?” मिन्नू पहले फुसफुसाई फिर चीखते हुए हकलाने लगी.
”पागल हुई है कैसे सवाल कर रही है? तुझे सदमा तो नहीं लग गया मैडम – माट्साब से अलग होने का? क्या बेकार की बातें याद … ” वह पुचकारने लगा.
“ अंकल, बहुत गलत समय पर मुझे यह सब याद आ…. पता नहीं आज मुझे क्यों याद आया पर अंकल आप अभी निकलो यहाँ से..”
” क्या बात है मिन्नू, हाँ डीके अंकल? आप इस वक्त यहां कैसे? आपको आते हुए मैंने देखा क्यों नहीं? शाम को आईए पापा शाम को आते हैं।” पिंटू पाईप समेटता हुआ भीतर आ गया।

डीके केंचुए की तरह रेंग कर उसी तरह निकल गया जैसे उस रोज नीचे से ही उसे सीढियों में ही छोड़ कर निक्ल भागा था. मनाली अपने बिस्तर पर लहँगा पहने हुए ही औंधी ढह गई. उसकी स्मृति का सुप्त लावा धुंआ दे रहा था, अथाह, निर्बाध यंत्रणा की नदी सी उमड़ पड़ी है, जो पैरों के बीचों बीच यथार्थ बिंदु की ओर प्रवाहित है। वह गहरी उतर गई है अपनी सोच में – ” बरस बीत गए पर अब भी कभी उलझन महसूस करती हूं सत्य, कल्पना और गड्डमड्ड भ्रम को अलगाने में। उस रात मैंने गर्म हाथ अपने शरीर पर महसूस किए थे, याकि वो ठंडे थे? या मेरा शरीर ही ठंडा पड़ा था? उसके बाद मुझे क्यूं धुंधला जाता है सब? क्या मेरी यादों के साथ किसी ने छेड़छाड़ की? किसने इन्हें बदल डाला, मिटाया इरेज़र से? मैं अधसोई थी, मुझे पता है हाथ तो मगर वह……. स्पर्श क्या था? वह हाथ नहीं था, वह अजीब सा स्पर्श कपड़े का भी नहीं था। गुनगुना, गिलगिला मगर सख़्त! और मेरी चड्डी? जिस पर पीली एक तितली कढ़ी थी। वह कहाँ है?”

आखिरकार उस स्पर्श की खोई कड़ी उसे बहुत बाद में मिली, विडम्बना यह कि जिंदगी के सबसे सुंदर दिनों में मिली। विवाह से पहले के सपनीले दिन। विवाह भी उससे जिससे मिलते ही मनाली ने अपने अल्हड़ कैशोर्य के बालों में टंकी सारी पत्तियाँ सौंप दी थीं। ‘सजल’ । उन दोनों की पढ़ाई अब पूरी हो चुकी थीं। वह दूसरे शहर के एक अस्पताल में अपनी इंटर्नशिप कर रहा था कि उनकी सगाई कर दी गई। सजल के जाने से पहले वे मिले उसके घर, उसके अपने कमरे में।

” सुनो मनाली, कोर्टशिप के दिन दुबारा लौट कर नहीं आते।”
“तो बेहतर दिन आते होंगे। हर पल एक – साथ रहने के।”
” नहीं, इन दिनों की बात ही अलग है, बाग से चोरी किए अमरूदों जैसी।”

कह कर वह अपनी कौतुकप्रिया को चूमता हुआ, अपने कमरे के गुनगुने कोने में ले गया, एक – दूसरे के आलिंगन में उलझे वे लकड़ी के फर्श पर बिछे नीले मखमली कालीन पर ढह गए। कपड़ों के नीचे छिपी आदिम दुनिया को टटोलते हुए। होंठों और स्पंदित सीनों की जानी – पहचानी दुनिया से और थोड़ा आगे एक दूसरे की निजता को जानने को आतुर दो युवा मगर एक होते हुए अस्तित्व। तलाश सुख ही की थी मगर गड्डमड्ड पोटलियों में जो मनाली के हाथ लगा वह कैमिस्ट्री लेब में कैरोसीन में रखे सोडियम के टुकड़े जैसा था, हथेली जलाता हुआ कुछ।

वह बाथरूम में जाकर काँपती रही थी। उसकी गड्डमड्ड कल्पनाओं, सत्य और भरम से निकली वही पुरानी कड़ी !! वह अवचेतन में घुसती चली जा रही थी, सजल की उपस्तिथी में ही उसकी चेतना पूछ रही थी अवचेतन से — “यह स्पर्श…. बचपन की किसी बाँबी से निकल कर चला आया. बिना जहर वाले, ढेले मार कर अधमरा कर दिए सांप सा, हल्का स्पंदित और गिलगिला…पहले भी छुआ है इसे मेरी त्वचा ने. इसी अधमरे सांप को… हिलते हिलते, मैंने अपनी जाँघों में सरकते महसूसा है. लगातार लसलसी लार उगलता साँप. उस रोज़ जो किले वाले घर में डीके ने मेरी जाँघों पर छुलाया था ….. वह डीके का…..मैं नहीं जानती थी न तब कुछ भी । पर मुझे अब तक भी भनक न थी ….. उन गर्म, आवारा स्पर्शों का ख़ुलासा मुझ पर अब तक क्यों न हुआ था।”

मनाली को लगा कि एक रूमानी किस्म की लड़की से वह किस किस्म की छुईमुई में तब्दील हो गई ? देह की सारी स्पंदित सलवटें, लहरों में डूबे सारे कोण, सरसराती भंगिमाएं यानि समूची वह खुद बेमायने हुई जा रही है। जिसे सजल ने सोचा होगा कि उसका संकोच है। यह चोरी के अमरूदों का स्पर्श उसे बुरी तरह हताश क्यों कर गया?

” तुम इतनी नर्वस क्यूँ? शुरू में तो इतनी रूमानी और एडवेंचरस हो रहीं थीं। “
“सजल, मैं डर गई।”
” मुझसे डर गईं? मैं तो कुछ भी ज़बरन नही….”
“नहीं वह बात नहीं है, मुझे अजीब लगा वह स्पर्श। प्लीज़ मत पूछो न।”
“ठीक है, जब मन हो तब बता देना।” वह तसल्लीबख़्श ढंग से मुस्कुराया फिर वे दोनों खरीदारी के लिए निकल गए।

सजल के लौट जाने के बाद वह उस रात सोई ही नहीं, उसे महसूस होने लगा कि जैसे उन पलों को उसने अवचेतन में बार – बार जिया था। बीते बीस सालों की मार से बेअसर रेंगता हुआ वह स्पर्श कहाँ – कहां खोह बना चुका था उसके अस्तित्व में? जागते हुए चींथती रही उस रात को, उसकी पसलियों में कैद भयभीत पाखी सा उसका मन चीखता रहा – “नहीं मिन्नू मत कुरेदो अंतस ।” आखिरकार वह रात बेपर्दा हो ही गई।

“उस रात उसने लाड़ से लिपटा कर सुलाया था। सब कुछ ठीक तो था। बीच रात तक उसके हाथ मेरे छोटे से धड़ को लपेटे थे। पता नहीं मुझे बुरा लग रहा था या ठीक या अच्छा! पता नहीं। बिलकुल नहीं पता कि यह अच्छी चीज़ है कि बुरी। उसकी तेज़ सांसे मुझे जरूर बुरी लग रही थीं। फिर स्मृति साथ छोड़ देती है, कल्पना हाथ थाम लेती है। अपने मन से दृश्य लगाने लगती है, छूटी हुई कड़ियों के। फिर खीज कर मैं हार मान लेती हूं। नहीं ऐसा नहीं था डीके…..महज कल्पना है। मेरा अवचेतन कुछ का कुछ बुनता है। क्योंकि फिर और कभी तो उसने कभी नहीं….वह दिखता भी नहीं ऐसा। बाद के सालों में भी कभी कुछ ऐसा नही…. मगर उस रोज आईने के आगे? ग़..ल..त..फ़..ह..मी?”

उसे याद आ रहा है, उस रात कच्ची नींद में वह अचेतन से चेतना के बीच फैले मौन को भांपती रही थी, तब तक कि जब तक उसने अपनी बांह उसके निचले पेट पर लपेट दी थी। छाती पर रखा कोई तकिया सा धकेला उसने, बुरे सपने आ रहे थे सीने पर रखे भार से कि एक भूत खींच रहा है हाथ और उसका हाथ किसी गड्ढे में डाल रहा है. तकिए में बाल क्यूं थे? यह कैसे स्पर्शों का ज़लज़ला था! अपनी दुबली – पतली चिड़िया जैसी देह को किसी गिरफ्त में पा कर वह फड़फडाई, फिर गहरी नींद किसी कीड़े ने काटा होंठ? उसकी नींद में पल भर को होश दाखिल हुआ तो वह उठ बैठी थी. डीके ने थपथपाया – सोजा सोजा, डर गई सोजा. वह चादर ओढॆ था सफेद. वह पलट कर डी के से दूर खिसक कर चादर पैर से हटा कर फिर सो गई. गहरी नींद के मुहाने पर पहुंची तब घात लगा कर सांप गिलगिला रेंगा. जांघ से सटकर… गीली लकीर छोड़ता जाने क्या हुआ वही मर गया. उसकी लाश उठाकर भीतर कहीं सरका दी किसी ने. चड्डी गीली जब महसूस हुई तो अमरूद पर चिडियाँ बोल रहीं थीं. सुबह तक बतियाते रह गए सितारे आकाश में टिमटिम कर रहे थे. डीके उसे साफ़ कर रहा था. “ तुमने बिस्तर गीला किया.” मिन्नू बेहद शमिंदा. वह दिन उसके अंतस में उलझनों, हानियों और खीज के रबरबैंड लगे बंडल की तरह किसी दराज में पड़ा रहा है। याद है कि नहीं पर शायद मुझे लौटते में उड़ती एक आवारा मधुमक्खी ने भी काट लिया था सो दो दिन होंठ पर सूजन रही थी, बुखार भी था।

दोपहर, घर के बाहर सायकल पर बैठे बैठे अपना पैर चबूतरे पर जमाए हुए, उसे काँख से पकड़ कर लाल बिल्डिंग की दूसरी सीढी पर उतारते हुए, मिन्नू के होंठों की सूजन को देख डीके ने यही कहा था, ” तुम्हारे होंठ सूज गए नन्हें बच्चे। मम्मी को बताना मधुमक्खी ने काटा है। पर बिस्तर गीला करने की बात मत बताना। जल्दी से जाकर दूसरी चड्ढी पहन लेना। “

” पर मेरी तितली वाली चड्डी गई कहाँ डीके अंकल! ” न जाने क्यूं उसे यकीन हो गया कि कि उस पर बनी उड़ती तितली उसने मार कर फ्रेम में लगा दी होगी।
” तुमने गीली की हमने फेंक दी।”
” पर मैंने गीली नहीं की थी? ” सीढ़ी पर खड़े – खड़े रुआँसू मिन्नू ने सोचा था कि वह तो सोने से पहले ‘पी’ करने गई थी। वह साथ चला था, छत की खुली नाली पर … वह ठीक सामने खड़ा था। पापा की तरह पलट कर नहीं।
” चल ऊपर जा।” हमेशा लाड़ से बोलने वाले डीके की आवाज्ञ में पीछा छुड़ाऊ तिरस्कार मिन्नू ने महसूस कर लिया।
“आप ऊपर तक चलो न अंकल।” वह कहती तब तक वह सायकिल सरका कर गली में मुड़ गया। दीवारों से सट कर, सांस – सांस के साथ सरकते हुए उसने सीढ़ियां पार कीं। दरवाजे से ही पता चल गया – घर में टीवी दहाड़ रहा था। उसमें हिम्मत आई और वह घर में दाखिल हो गई। भाग कर अपने और पिंटू की अलमारी से दूसरी चड्डी निकाली, जमीन पर बैठ कर पहन ली। तब मां के पास गई रसोई में, इलायची डली खीर की महक फैली थी वहाँ। उसका मन बहल गया।

**********



माँ ऑफिस से आगई हैं। चाय बहुत कम पीने वाली मनाली ने पहली बार दो कप चाय बनाकर टेबल पर रख ली है। एक वयस्क भूमिका में आकर मनाली ने उनको संबोधित किया – ” मम्मी, आपसे बहुत ज़रूरी बात करनी है। “

वे चौंकी हैं क्योंकि बीस दिन बाद शादी है। लड़की कोई विस्फोट तो नहीं करने जा रही? मूडी तो है ही बचपन की।

“बोलो!”
“मुझे लगता है डीके ने मेरे साथ बचपन में कुछ किया था?”
“कब की बात कर रही हो? मनाली?”
” मेरी यादें धुंधली जरूरी हैं पर वह सच है। जब हम लाल बिल्डिंग में रहते थे। नए आये थे यहां। वह साईकिल पर बिठा कर अपने किले वाले घर ले गया था।”
“बच्ची थीं तब तुम तो।”
“वही तो कह रही हूं बच्ची थी। बड़ी होती तो ऐसा कर सकता था वो?”
वे हल्का सा घबरा कर पूछ बैठीं, “रेप…जैसा कुछ?”
” उसको रेप नहीं कहेंगे, पर कुछ गंदे इरादे वाली गंदी हरकतें थीं मम्मी । जो बलात्कार नहीं होतीं हैं पर उससे भी घातक।”

वे हतप्रभ हुईं। उसे उम्मीद थी कि उनका चेहरा पीला पड़ेगा, वे हताश होकर सर पकड़ लेंगी और आइंदा उसे घर न आने की हिदायत देंगी। उसकी बीवी को फोन लगाएंगी, दस बातें सुनाएंगी। मगर बिना चाय पिए वे घम्म से सोफे पर बैठ गईं।

“ये मर्द, सुधर सकते नहीं हैं। ” कह कर वे साथ लाए थैले से तरकारियां निकालने लगीं। “लो पालक को फ्रिज में रख दो, खराब….”
” तुमको पालक की पड़ी है?”
” मिन्नू, तुम यह बात अब क्यों निकाल रही हो? सालों पुरानी बेहूदा बात! तब तुमने कभी नहीं कहा?”
“कहा था मम्मी।” बचपन के मिन्नूपन की तरह वह होंठ बाहर कर के रुआंसू हो जाना चाहती थी , वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर मां का फीका पड़ता चेहरा देख कर बस इतना कहा।
” तब कहा था पर उसके बाद मुझे याद ही आज आया। आज डीके जब आप नहीं थी आया था।”
मम्मी सफेद पड़ गईं।
” क्या? फिर?”
” नहीं मम्मी आज ऐसा कुछ नहीं किया मम्मी, मैं सिल कर आया लहंगा पहन कर देख रही थी। पिंटू बाहर पौधों को पानी दे रहा था। ये बिना उससे कुछ बोले भीतर मेरे कमरे में आगया। शीशे के सामने आकर इसने उसने कंधे पकड़े तो जाने क्यों मुझे बीस साल पहले का यह वाक़या याद आ गया। मैंने उसे डाँटा, धक्का दिया, धमकाया है।”

“मनाली!” वे मेरे निकट आगईं और मुझे अपनी बाँहों में भर लिया। हम कुछ देर ऐसे ही चुपचाप बैठे रहे। मैंने अपना रोना रोकने की भरसक कोशिश की।

“तुमने जो किया ठीक किया। कहो तो पापा से बात करूं क्या? इसकी पत्नी से?”
” नहीं मम्मी, अब बहुत देर हो गई है। मैंने कह दिया जो कहना था। हो सकता है वह शादी में न आए।”
” ना आए हमारी बला से।”

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ डीके जैसे लोग बहुत भलेमानस का लबादा कस कर ओढ़ते हैं। सारी सामाजिकताएं निभाते बड़प्पन जताते हैं। आपकी शादी के एलबमों में अपनी सौजन्य मुस्कुराहटों के साथ मौजूद रहते हैं। शादी में मौजूद लंहगा पहन कर उसे घुटनों तक चढ़ाए खेलती छोटी लड़कियों को गोदी में उठाकर गाल आगे कर देते हैं – अंकल को किस्सी!! ऐसे लोग हर घरों में बहुत संजीदगी से आते जाते रहेंगे?

क्या कोई ये समझ सकेगा कि सोते समय लापता हुई पीली तितली ने मिन्नू का अस्तित्व स्थगित कर दिया था। उस रोज सुबह उठने तक कुछ तो था जो वह उस प्रिय चड्डी के साथ खो चुकी थी। अब भी मनाली खुद से पूछती रह जाती है।

” मैं अपनी यादों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों का क्या करूं? क्या मेरी पीली तितली वाली पैंटी अब भी उसके पास है?”
“हाँ मेरे पास अब भी है, मेरी कामनाओं के फ्रेम में बंद तितली की तरह।”
उसकी कल्पना में डीके वही लुकी – छुपी अर्धकामुक- अर्ध सौजन्य मुखौटे वाली मुस्कान मुस्काता है।

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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