दरवाजे पर मेहता आंटी को देखते ही वह समझ गयी, कि क्यूं आई हैं? अब वह उंगलियों पर गिनकर बता सकती है कि पचास साठ बडे परिवारों और फिर उसी के अन्दर पैदा हुई रिश्तेदोरयों में कौन, कब किसके यहाँ आ रहा है और किसे उसकी जरूरत पडने वाली है? जरूरत जरूरत ही तो है वह एक  आवश्यकता अनुसार लोगों की आंखों में जलती बुझती। अब तो वह सिर्फ मुद्राओं से बता सकती है कि सामने वाले को किस चीज क़ी जरूरत है और वह क्यों आया है? इस शब्द का पर्याय है वह अपने घर के लिये मोहल्ले के लिये। क्या मेरी मुद्राएं किसी से कुछ नहीं कहतीं या कि घिस घिसा कर मैं एक गोल मोढा बन गई हूँ, जिसे किसी भी तरफ लुढक़ा दो। वह मेहता आंटी को निकट आते देख रही है और देख रही है अपने होंठों पर एक सूखी मुस्कान फैलते।
” नमस्ते आंटी।” उसने कहा

यूं कोई फर्क नहीं पडता, आप नमस्ते करो न करो, अब वे आईं हैं तो ले जाये बिना मानेंगी नहीं। किस्मत से मिलते हैं अच्छे पडोसीवे आपके जख्मों पर ठण्डा लेप लगाते हैं आपके माथे पर हाथ फेरते हैं बीच बीच में परत उघाडक़र देख लेते हैं  जख्म सूखा कि नहीं। फिर तो यहां पूरे मोहल्ले ने कसम खाई हुई है अच्छा पडोसीहोने की।मोहल्ले की मदद से ही यहां सब काम साधे जाते हैं  लडक़ी की सगाई हो या शादीबच्चे का मुण्डन हो या उपनयन संस्कार, घर में मेहमान आये हों या कोई त्यौहार होआप किसी भी वक्त किसी को बुला सकते हैं, उसमें भी कुछ खास बन्दे हर जगह, हर अवसर पर मौजूद रहते हैं,उन्हें हर घर की हर चीज क़ा इतिहास पता होता है, इसी से फिर वे उनके भविष्य का निर्धारण करने सहज और आसान काम करते हैं। चीज मतलब लोग।

” नमस्ते बेटा, क्या कर रही हो?” उन्होंने अत्यन्त मीठे स्वर में कहा। मीठे सोते के पीछे होता है क्या कहीं गर्म पानी का सोता, जब यही अपने पति से झगडती है तो घर की सारी चीजें बाहर निकल कर इनकी हाथापाई के लिये खुली जगह छोड देती हैं।
”अभी तो सुबह हुई है आंटी, देखिये न, घर कैसा लग रहा है? ग्यारह बजे तक तो सांस भी नहीं ली जाती ठीक से। ” उसने पानी की बाल्टी में सर्फ घोलते हुए कहा। पास ही मैले कपडों का ढेर पडाहै।
” मां कैसी हैं?” अब वे सबके लिये पूछेंगी। हालांकि हम सबकी बाबत ये हम सबसे अच्छी तरह से जानती हैं। न्यूजपेपर हैं मुहल्ले का बिना नागा, सुबह – शाम – दुपहर निकलता हैइन्हें बांच लिया, सब बांच लिया। एक बार को सूरज महाराज दस्तक देना भूल जायें किसी घर की, ये नहीं भूलतीं।

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” पडी हैं बिस्तर पर।” उसने फुर्ती से सफेद कपडे ग़र्म पानी में डालने शुरु कर दिये। छ: साल हो गये, बिस्तर से उतर कर नीचे नहीं आईं। अच्छा रास्ता खोज लिया जिम्मेदारियों से भागने का अब रहो चिल्लाते बिस्तर पर हे भगवान मुझे उठा ले। भगवान का दिमाग खराब है? क्या करेगा तुम्हारा? रहो लौटते इसी कीचड में हम भी, तुम भी।
” भाभी उठीं नहीं सोकर?”
वह झल्ला गयी। अब असली बात कहती क्यूं नहीं? कुछ लोग नर्म जगहों को छू देते हैं अपने गन्दे हाथों से फिर तुम खुजलाते रहो सारा वक्त।
” उठ गयीं हैं। बबलू रो रहा है सुबह से।”

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बबलू का काम है रोना, बबलू न रोये तो मांओं को किचन से छुट्टी कैसे मिले? बबलू का हंसना – रोना मां की इच्छा पर। कुछ करने का मन नहीं, बबलू को बात – बेबात थप्पड मार दो या चिऊंटी काट दो, उसका पसन्दीदा खिलौन छीन लो। बबलू को भी मालूम है, कब रोना, कब नहीं रोना। हे भगवान, उसे नफरत से सोचा – क्या इस सब से मुक्ति मिलेगी? मेरी शादी क्यूं नहीं कर देता कोई? ये चाहते भी हैं या नहीं मेरी शादी करना? भईया हर लडक़ा यह कह कर रिजेक्ट कर आते हैं कि हमारी रेशू के लायक नहीं। तुम्हारी रेशू, उसके भीतर घृणा का सैलाब उठा। जब मैं तुमको बरदाश्त कर रही हूँ तो किसी को भी कर लूंगी। इतने लोगों की गुलामी बजाने से तो अच्छा है कि एक की बजाओ। वैसे भी मैं ने क्या चुना अपने लिये? खाना और कपडे तक नहीं। तो मैं ये कैसे चुनूंगी कि मुझे किसके साथ सोना है? जो कुछ भी खा सकता है वह किसी के भी साथ सो सकता है। अपनी सोच पर वह सहम सी गई, क्या होता जा रहा है उसे? न कोई खूबसूरत सपना, न कोई खूबसूरत सोच। हर वक्त यह नफरत का ठाठें मारता समन्दर! सुबह भाभी को बिस्तर छोडते देखती है तो एक गन्दा सा ख्याल आकर चिपक जाता है मन से। कितने मजे हैं शादी शुदा औरतों के? पांच मिनट साथ सोने की भरपूर कीमत वसूलती हैं। एक अच्छे खासे छ: फुटे इन्सान को लल्लू लाल बना देती हैं। शादी मतलब निठल्ली, मोटी, बेकार, बददिमाग, कुचकी औरतों के जीवनयापन का मजबूत जरिया। उन्हें सिखाया जाता है कि कैसे इस रिश्ते से जुडे सारे लोगों का समूचा दोहन किया जाये। नहीं, सिखाया नहीं जाता। हर घर में यह सर्वसुलभ है – वे रक्त में इसे लेकर पैदा होती हैं।

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अपने गुस्से में उसने ध्यान नहीं दिया कि मिसेज मेहता क्या क्या कह गईं इस बीच। वैसे उन पर ध्यान देने की जरूरत भी नहीं रहती। वे बोलती भी आप हैं, सुनती भी आप हैं। उसने कहीं पढा था, औरतें सिर्फ कान होती हैं, पुरुष सिर्फ आंखें। गलत, औरतें सिर्फ जुबान होती हैं, पुरुष सिर्फ लार।
” किसी को ऐसे दिन न दिखाये, ” पहले शायद भगवान कहा होगा। वे कहती जा रही हैं।

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” छ: साल हो गये इस लकवे को, अब तो सिर्फ याद रह गई है, कैसे झमाझम चला करती थीं वो। हम दोनों तो जानबूझ कर पैदल जाते थे फिल्म देखने।”

भगवान! क्या ऐसी सचमुच की कोई चीज होती है?” कोई रूमाल जिससे आप अपना मैला चेहरा साफ कर सकें या कोई उंगली जैसी चीज, ज़िसे तुम लडख़डाते ही पकड लो। उसने तो उसी दिन इस नाम को छोड दिया था, जब भाभी को जवाब देने की सजा में भईया ने कसकर एक झापड रसीद किया था।
उसने सारे भगवान एक झोले में डाले और नदी में सिरा आई। गिरते ही वे भीतर डूब गये। अब वह नहीं जाती कहीं रोते हुए। भीतर ही गिर जाते हैं आंसू भीतर ही जम जाते हैं बर्फ के खारे पहाड ख़डे रहते हैं भीतर, दूसरी अनछुई चीजों की तरह जो वक्त की गर्द में अपना असली रंग खो चुकी हैं।

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सारे कपडों को ब््राश लग गया। अब कामवाली बाई आकर फींच देगी। अब वह नाश्ते की तैयारी करे। बबलू अभी तक रो रहा है और दोनों उसे बहलाने के लिये घर भर में नाच रहे हैं। छोटा शायद किसी काम से निकला हो। ये सब ठीक उस वक्त दिखेंगे, जब वह पूरा नाश्ता तैयार कर चुकेगी। कोई उसे देख ले बस, झट कोई न कोई काम टिका देगा। एक वही नौकर है घर भर की। कॉलेज जो नहीं जाती। हर मां को दो चार लडक़ियां पैदा करके रख देना चाहिये। कम खर्च में पल भी जाती हैं, बाकि वक्त काम भी आती हैं।

” तो मैं कह रही थी रेशू, कितने बजे तक निपट जाओगी इस सबसे? ”अब वे असली बात पर आ रही हैं।
”ग्यारह बजे तक तो हो नहीं पाती आंटी। फिर आज मुझे एरीना भी जाना है।वह संभलकर बोली।
” आज नहीं आओगी तो काम नहीं चलेगा बेटा! अब मैं भी बताओ किसको बोलूं? एक इसी फैमिली से तो मुझे इतना लगाव है। तुम्हारे अंकल की जिम्मेदारियां निभाते निभाते तो मैं तंग आ गई हूँ। रोज कोई न कोई टपक पडता है। हम गांव छोड आये पर गांव वाले हमें नहीं छोड रहे। ज्वाइंट फैमिली निभाना सचमुच अपने आपको बर्बाद करना है। लगे रहो सारा दिन। मैं तो तुम्हारी मां से भी कहती हूँ, दूसरा समझौता कर लेना पर अपनी लडक़ी को ज्वाइंट फैमिली में मत देना। मेरी मां भी बाबूजी से यही कहती थी, पर क्या हुआ, कुछ नहीं। आज देखो न, सुबह से मेरा सिर दुख रहा है और छ: लोग दुपहर के खाने पर आ रहे हैं। बेटा, मैं तेरी भाभी से बोल देती हूँ।”

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भाभी से क्या बोलेंगी? वो कहेंगी, यहां का काम करो, फिर मरो जाकर कहीं भी, मुझे क्या? ब्रेकफास्ट बनने तक बबलू भी चुप हो जायेगा। बबलू तीनों वक्त एकदम समय पर रोता है, जैसे अलार्म घडी बजती है। वैसे भी उसने पेट में आते ही मां का ख्याल रखना शुरु कर दिया। भीतर से भी, अब बाहर से भी। लगभग उसी की उम्र की है भाभी और किस्मत में फर्क देखो। पांच मिनट की करामात।

” आंटी, एरीना से मैं एक बजे सीधे आपके घर आ जाऊंगी।” जानती है, वे छोडेंग़ी नहीं। दो घंटे की यह फुरसत मिल जाती है, यही क्या कम है? फैशन डिजायनिंग कर रही है। हमेशा दूसरों के लिये तैयार की हैं ड्रेसेज। आजकल मॉडलिंग की तैयारी चल रही है। जो लडक़ियां रैम्प पर उतरेंगी, उनके लिये कपडे तैयार करना है। उसने अपने लिये कभी कुछ तैयार नहीं किया। दो ड्रेसेज ईसके पहले तैयार की थी। एक भाभी ने झटक ली, एक छोटी बहन ने।
” तू क्या करेगी? तेरे ऊपर यह डिजायन अच्छा नहीं लगेगा।” जाने कितनी बार सुन चुकी है वह यह सब। उस पर क्या अच्छा लगेगा, कभी सोच नहीं पाती है। न अपने बनाये डिजायन में खुद को देख या सोच पाती है। मेरी कोई अपनी तस्वीर मेरे पास नहीं है। हर आदमी के पास अपनी एक तसवीर होनी चाहिये। नंगी तसवीर। जिसे वह जैसे चाहे सजाये – संवारे। उसे कपडे पहनाये या उतारे।
हमें तो पहनाता भी कोई और है, उतारता भी कोई और ही।

मेहता आंटी चली गयीं दूसरे द्वार पर दस्तक देने। उसने आलू बना लिये हैं और अब पूरियां निकाल रही है। आज उसे जाना है और वह एक एक गर्म पराठा देने के लिये ठहर नहीं सकती। भाभी बबलू को दूध देने के बहाने झांक गयी हैं कि सब कुछ ठीक चल रहा है या नहीं। बबलू को दूध पिलाने के बाद वे उसे नहलाने का प्रोग्राम बनायेंगी। गर्म पानी के टब में उसे देर तक बैठाये रखेंगी। फिर भैया जायेंगे नहाने कमरे का दरवाजा बन्द हो जायेगा कम अज कम आधे घण्टे के लिये। हम हैंन बंद कमरों का अंजाम। उसने छन्न से पूडी ड़ाली और गर्म घी उछलाहाथ जल गया जरा सा। परवाह नहीं, रोज क़हीं न कहीं जलता है। कोई जगह खाली नहीं।

नाश्ता तैयार कर वह नहाने भागी। साढे दस बज गये। कभी इतना वक्त भी नहीं मिलता कि आराम से नहा ले। सोते – जागते, उठते बैठते हर वक्त में जल्दी। बाल्टी भर रही है, वह जल्दी जल्दी साबुन घिस रही है, जो हाथ लग जाये वही। उसके जाने के बाद भाभी बडे आराम से चन्दन का लेप पूरे शरीर पर लगायेंगी और तख्त पर लेट जायेंगी, उसके सूखने तक। उनके पास से गुजरो तो चंदन की महक आती है। विषधर तभी लिपटा रहता है हमेशा। एक अदद मुझे भी चाहिये, जिसे कांख में दबाये आप लेटे रहो हमेशा।

आईने में उसने अपने आपको देखा सांवली – धुंधली एक तस्वीर कोई रंग नहीं। वह देख नहीं पाती ठीक से, डर लगता है। सुन्दरता भाग्य और आत्मविश्वास भी लाती है क्या? मुझे तो कुछ भी नहीं मिला, कुछ भी नहीं। उसने अपने खाली हाथों को देखा और जल्दी जल्दी उन्हें चलाने लगी। वे चलते रहते हैं तो ध्यान बंटा रहता है। बाहर आकर चलते चलते दो पूडियां ठूंसी और अपनी स्कूटी पर भाग छूटी।

सुबह पांच बजे से शुरु होता है यह चक्र
” उठ रेशू उठ, पांच बज गये, देर हो जायेगी फिर।” मां कभी प्रेम से उठातीं, कभी झिडक़ कर। उसे याद नहीं आता, कभी जो वह चैन से सोयी हो। रोज बाहर बज जाते हैं फिर रात में मां कई बार पेशाब के लिये उठातीं, हर बार उन्हें पॉट देना, पेशाब करवाना, बाथरूम में जाकर उसे धोना, लाकर रखना। सुबह भी वहीटट्टी – पेशाब, नहलाना – कपडे पहनाना। इतने बरस तो मां ने भी नहीं धोया होगा उसका गू मूत। बेटे की शादी की कि बहू आकर सेवा करेगी। पहले ही साल पहला बच्चा, वह भी बेटाऔर इस यातना का नया अध्याय शुरु।

कभी – कभी वह शिद्दत से सोचती हैऐसा नहीं हो सकता कि एक सुबह वह उठे और मां को निर्जीव अपने बिस्तर पर पडा पाये। सारे झंझटों से एक साथ मुक्ति। देखती है, खिचडी बाल लिये, झुर्रियों से अंटा चेहरा। कुछ महीने पहले सिर में इतनी जूएं पड ग़यीं थीं कि सारे बिस्तर पर रेंगा करती थीं। बाबूजी ने सारे बाल कटवा दिये और फिर जूंए मारने वाला पावडर मलवा दिया उनके सर पर। दो दिन में सब साफ। वह टेढे मेढे बालों वाली आधी निर्जीव कुरूप सी स्त्री कितनों का जीवन तबाह किये दे रही है। कहती है रेशू की शादी के बाद चैन से मरूंगी। मरो तो चैन से शादी हो। किसको पडी है बेताल अपने कंधों पर ढोये। एक मेरे ही कंधे दिखते हैं सबको। कभी कभी रात को बाबूजी उनके कमरे में आते तो वे उसके रिश्ते की बात पूछतीं – कहां गये थे? वहां? क्या हुआ? खासकर जब वह सामने हो तब।
” अभी बात जम नहीं रही।” वे अनिश्चित स्वर में कहते और जरा सी देर बैठ अपने कमरे में चले जाते। वह उन सबको शक से देखती है, क्या वे सचमुच उसका ब्याह करना चाहते हैं? उसके बाद फिर किस की बारी है? छोटी बहन की? जब तक राक्षस का पेट है, तब तक बलि भी है।

उसने अपनी मॉडल के लिये तीन ड्रेसेज तैयार की हैं, जिन्हें पहन कर वह रैम्प पर उतरेगी। लडक़ियों में चर्चा है कि उसकी ड्रेसेज सबसे अच्छी हैं। हो सकता है बेस्ट ड्रेस उसकी चुनी जाये। रात रात भर अपनी कल्पनाओं की चिन्दी चिन्दी जोडक़र उसने वे ड्रेसेज तैयार की हैं, किसी और के लिये। खुद तो वह बिलकुल साधारण कपडे पहनती है। दो चार जो अच्छे से हैं, उसके अपने नहीं, भाभी के हैं। डिलेवरी के बाद वे मोटी हो गयी और उदारतापूर्वक अपने कपडे उसे दे दिये- जिन्हें पहनते वक्त उसे सूखे पुआल की सी महक आती। ऐसी महक उसे कपडे धोते वक्त मैले कपडों में से आती है और इस महक से उसे सख्त नफरत थी। अपने तैयार किये हुए कपडे उसने सूंघकर देखेकुछ नहीं था उसमें, गंधविहीन थे वे।

उसकी मॉडल रितिका सिन्हा आ गयी है। लटीम शटीम सांवला फिगर सुतवां नाक काली आंखें और खूब लम्बे बाल। सांवले – औसत चेहरे को भी ये लडक़ियां लीप पोत कर कुछ और बना लेती हैं। रैम्प पर चलती हैं,  कैट वॉक करती हुई तो सामने वाले को निमंत्रण देती सी लगती हैं। क्या इस सारे कारोबार का एक ही मुख्य बिन्दु है, जिसके इर्दगिर्द ये समूची सृष्टि नाचती है?

वह उससे बहस करती हैयह नहीं, वहयहां से छोटा करो, यहां से टाइटजरा सा और दिखना चाहिये जो बाहर है, वह भी, जो भीतर है, और ज्यादा। कोई भी लडक़ी अगर अपनी मूल प्रवृत्ति को नहीं जगाती, बेकार है। साथ होने का रस, बगैर साथ हुए बेहतर ढंग से लिया जा सकता है। ये क्या सोचे जा रही है वह? उसके भीतर कितनी नफरत है? कभी किसी चीज क़ो बेहतर ढंग से लिया जा सकता है। रितिका सिन्हा उसे समझा कर चली गई तो वह पुन: अपने काम में जुट गयी। नहीं करना चाहती थी वह यह काम। वह तो क्लीनीकल सायकोलॉजी करना चाहती थी उसने बडे मन से बीए में यह सबजेक्ट लिया था और इसके लिये उसे बाहर जाना पडता। घरवाले उस जैसा मुफ्त का नौकर कहां से लाते, सो उसे घर बैठा दिया गया।अब किसी को सौंपे जाने को उसे तैयार किया जा रहा है, जो भी कोने कुतरे दिख रहे हैं बाहर उन्हें छील कर। इसी सब का बदला लेते हैं हम दूसरों से, क्या वह भी लेगी? वह भी तो सोचती है, मां का मैला धोते वक्त कि काश, अभी इसी क्षण यह घृणित शरीर उसके हाथ से फिसलकर जमीन पर गिर जाये। भाभी के कमरे का दरवाजा बन्द होते हीर् ईष्या और द्वेष से भर जाती है। ओ शिटउसने जल्दी जल्दी अपना काम खत्म करना जारी रखा।

वापस लौटी तो अपने घर की बजाय मेहता आंटी के घर। अपने घर जाने की भी तो इच्छा नहीं होती। नहीं रहेगी तो भाभी जैसे तैसे निबटा लेगी, उसके पहुंचते ही बबलू रोना शुरु कर देगा या फिर वे फोन से चिपक जायेंगी।

मेहता आंटी ने काफी तैयारी करके रखी हुई थी। पहुंचते ही उसने कमान संभाल ली। तीन बजे तक सब तैयार हो जायेगा। उन्होंने निश्चिन्तता की सांस ली। अब वे ड्राईंगरूम की सज्जा पर ध्यान दे सकती हैं। उन्होंने क्या क्या बनाना है, बताकर छुट्टी पा ली और बाहर निकल गयीं। सिर्फ मेहता आंटी ही नहीं, हफ्ते के पांचों दिन कोई न कोई उसे बुलाने आ जाता है – किसी की डिलेवरी हो गयी या कोई हॉस्पीटल में है। किसी का बच्चा बीमार है, कोई खुद। वैसे बीमारी का बहाना ही सबसे आम है। वह जानती है, औरतें न खुश रहना चाहती हैं न स्वस्थ। सारी बीमारियों की जड वे स्वयं हैं। बहुत जल्दी उनके भीतर सब कुछ मर जाता है, किसी भी सपने या इच्छा के अभाव में।

अब कहीं भी खटो,क्या फर्क पडता है? वह भी यह सोच सकती है कि उसे किसी की जरूरत है, किसी का काम उसके बिना रुक सकता है!

” अरे जब इसकी शादी हो जायेगी तो क्या करोगी तुम?” मि मेहता प्रशंसात्मक ढंग से उसे देखते हुए कहते हैं मिसेज मेहता से।
” क्या करुंगी? सबको मना कर दूंगी, मेरे घर मत आओ, मैं अकेली हूँ। फिर इसकी छोटी बहन रागी भी तो है! अपनी ही बच्ची है।”

हां कोई न कोई है। उसके पापा सात भाई हैं, सात चाचियां, उनके बच्चे, उनके बच्चे बच्चों के बच्चेकहने को सब अलग, पर एक दूसरे की संभावनाओं को लपकने को हरदम तैयार। और फिर मोहल्ला भी तो है। सब अपने हैं। अपनेपन की यह बेस्वाद पुडिया वह रोज पानी के साथ निगलती है।

उसने ग्रीन पुलाव बना लिया है और अब पनीर तलने के लिये तेल की कडाही गैस पर रख दी है। जब तक तेल गर्म हो वह सलाद तैयार कर ले। पनीर के बाद बूंदी भी तो तलनी है, रायते के लिये। इच्छाओं का पिटारा है यह जिस्म हर वक्त कुछ न कुछ इस भट्टी में झौंकते रहोसारी सोच यहीं से शुरु यहीं पर खत्म।

बाहर से बातें करने की आवाजें आ रही हैं। मि मेहता मेहमानों के साथ आ गये हैं शायद। उसने सलाद की दो बडी प्लेट्स सजाकर दूर रख दी और पनीर तलने लगी।
” अरे क्या – क्या बना रही है हमारी बिटिया।” मि मेहता किचन में आ गये हैं। उसने नमस्ते की और काम में जुटी रही।
” तुम्हारे बिना तो इस घर में कभी कुछ नहीं होगा। मैं कहता हूं तुम्हारी आंटी से बेटियां बडे क़ाम की चीज होती हैं। देखो न तीनों लडक़े हमें छोड क़र बाहर पढने चले गये। बेटी होती तो जी बहलाती। मैं तो अब भी कहता हूँ तुम्हारी आंटी से, कुछ देर नहीं हुई है, अभी भी सोचा जा सकता है।” और वे हंसने लगे, निर्लज्ज हंसी। उसने अपनी आंखें ऊपर नहीं उठायीं, लगी रही अपने काम में। वे दनादन सलाद खाते जा रहे हैं, वहीं प्लेटफार्म के पास खडे – खडे।

उसने पनीर की प्लेट दूर सरका दी और बूंदी डालने की तैयारी करने लगी। ड्राइंगरूम से म्यूजिक़ और ठहाकों के मिले जुले स्वर आ रहे हैं। न चाहते हुए भी हम सब कुछ कितने बेहतरीन ढंग से निभा जाते हैं। सच मनुष्य से बडा कोई एक्टर नहीं।
उन्होंने तुरन्त पनीर उठा लिया और खाने लगे। अजीब सा लगा उसे
” अंकल आपको भूख लगी है शायद?” उसने यूं ही कहा।
” बहुत।” उन्होंने स्टूल खिसका लिया और वहीं बैठ गये, खाना जारी था।
” कल रात देर से आया, ठंडा खाना रखा था। बिना खाये सोया तो सुबह तुम्हारी आंटी से झगडा हो गया। बिना ब्रेकफास्ट किये ऑफिस चला गया। तुम समझाती क्यूं नहीं रेशू?” उन्होंने अचानक हाथ पकड लिया, उसका बायां हाथ, दायें से बूंदी निकालती हथेली कांपने लगी। उसने डरते हुए उन्हें देखा- हां, भूख ही तो थी वहां जो उसने गाहे – बगाहे जाने कितनी आंखों में देखी थी जो बडी निर्लज्जता से पहले आंखों फिर पूरे जिस्म पर फैल जाती है।
” हाथ छोडिये अंकल।” अचानक उसके भीतर दबा हुआ गुस्सा फुंफकारने लगा।
उन्होंने कहा कुछ नहीं, एक गन्दी मुस्कान मरे हुए कीडे क़ी तरह उनके मुख पर चिपक गयी थी। अपने हाथ में उसका हाथ भींचते हुए वे अपने होंठों तक ले जाने लगे थे कि उसने नफरत से सुलगते हुए गर्म कलछी उनके उसी हाथ पर रख दी। यूं चिहुंके कि करंट लगा हो और स्टूल से उठते उठते उसे दोनों हाथों से धक्का दे दिया। उसका कलछी वाला हाथ टकराया कडाही से और पूरी कडाही उछलते हुए उस पर। एक भयानक चीख और सब कुछ शांत।

होश आया हॉस्पीटल के बिस्तर पर देखा पिताजी और भाई खडे हैं, मातमी चेहरा लियेउनके पीछे मेहता आंटी के साथ छोटी बहन। किसी ने उसे मुस्कुरा कर नहीं देखा। वे बुत बने खडे थे। दाहिनी तरफ सफेद पट्टियों से ढंकी देह। गर्म तेल अपनी देह पर गिरते और स्किन को आलुओं की तरह झुलसते देख लिया था उसने बेहोश होने से पहले। नहीं, उसे पीडा नहीं हुई थी, हुआ था सारे जंजालों से मुक्ति का अहसास। अब वह सारे झंझटों से दूर है। उसने अपनी आंखें बन्द कर लीं।

” दीदी, भगवान का शुक्र है तुम बच गईं। तुम्हारा चेहरा भी बच गया दीदी।” मेहता आंटी कह रही थीं – ” वो तो कडाही में घी कम था, नहीं तो जाने क्या होता। वो तो तुम्हारे अंकल वहीं खडे पानी पी रहे थे और उन्होंने तुम्हें बचा लिया।”

छोटी बहन ने उसका बायां हाथ अपने हाथ में लिया हुआ है और उसे बता रही है। पांचवे दिन वह घर लौट आई है। उसे अब बहन के कमरे में शिफ्ट कर दिया गया है। बहन वहां स्थानांतरित हो गयी है। उसने अपना दायां हाथ देखा, कुहनी से नीचे काफी जल गया था। चेहरे पर उंगलियां फेरनी चाहीं कि बहन ने हाथ पकड लिया।
” हाथ मत लगाओ दीदी। कुछ छींटे चेहरे पर भी पडे हैं, दवा लगी हुई है।”

उसने महसूस करना चाहा कि उसके चेहरे पर कुछ चिपका हुआ है, पर उसे कुछ भी महसूस नहीं हुआ।
” दर्द हो रहा है दीदी? ” रागी ने पूछा।
” दर्द!” उसने छोटी बहन का चेहरा देखा, ” पता नहीं।” उसकी आंखें पूरे कमरे में घूम गयीं।जगह – जगह उसने फोम की बडी बडी ग़ुडियाओं से कमरा सजाया हुआ है। यह शौक। उसने हंसना चाहा कि उसे खांसी आ गयी। चेहरे की स्किन खिंचने लगी दर्द हो रहा है क्या? उसने खुद से पूछा। उधर से कोई जवाब नहीं आया।
” दीदी, तुम्हें देखना है, तुम कहां कहां जली हो?” छोटी बहन कमरे में आयना ढूंढने लगी। उसे पता है, वह कहां कहां जली है। और ये निशान हमेशा रहेंगे। ये जख्म कभी उसे सोने नहीं देंगे, उसे सब पता है। भीतर बर्फ के खारे पहाडऊंचे और ऊंचे होते जा रहे हैं।

बहन को आइना नहीं मिला कमरे में तो वह दूसरे कमरे में चली गई है। कमरे की खिडक़ी खुली हुई है,
बदली है, शायद बारिश हो, ठण्डी हवा का झौंका भीतर आया, सूखी आंखें सूखने लगीं।

आज बबलू नहीं रो रहा, किचन में से काम करने की आवाज आ रही है। भईया जल्दी जल्दी तैयार हो रहे होंगे। बाथरूम का दरवाजा बंद भी होगा तो कमरे का खुला होगा। आज सुबह से उसे किसी ने नहीं उठाया, वह नौ बजे तक सोती रही। रागी स्कूल नहीं गयी होगी, तभी यहां है। वधस्थल वही है, सिर्फ बलि बदल गयी है। उसका मुंह कडवा हो आया, उसने ब्रश तक नहीं किया हैउसे अपने में से एक अजब सी गंध आ रही है कभी जलने की, कभी सूखे पुआल की, अजब सी सीलन की, चिरी हुई लकडी क़ी, दवाओं की मलहम की उसे पता नहीं कौनसी गंध उसकी अपनी है। उसे एक बार फिर लगा, उसकी कोई महक नहीं। अनिच्छा से कहीं भी खिल आया बेशरम का फूल है वह । झर जायेगी उसी कीचड में, कोई जान तक नहीं पायेगा। यह उगता ही है गंदी नालियों, लावारिस जगहों के आस पास।

बाहर हल्की – हल्की बारिश होने लगी है। सोंधी मिट्टी की खुश्बू! उसने गहरी सांस भरकर महसूस करने की कोशिश की नहीं, कुछ नहीं। उसके चारों तरफ इतनी गंधें हैं कि कुछ और इन्हें भेद नहीं सकता। वह घुटती रहे इसी बासेपन में।

रागी आइना ले आयी है, उसने अपना हाथ पीछे कर रखा है
” डरोगी तो नहीं न दीदी?” उसने शंकित स्वर में पूछा।
” शायद डर ही जाऊं। मुझे अपना चेहरा याद नहीं आ रहा।” उसने मुस्कुरा कर कहा।
” तुम आइना नहीं देखतीं?”
” सिर्फ आइना देखती हूँ।” उसने अपनी पलकें मूंद लीं।
” रागी, एक काम करोगी पहले।”
” बोलो दीदी।” उसने आइना टेबल पर रख दिया।
” मुझे मेरी एक तसवीर ला दे। पहले उसे देख लूं, कैसी लगती थी। फिर तो आइना देख कर जान पाऊंगी कि अब कैसी लग रही हूँ?
” तुम भी दीदी।” वह उसे देख कर हंस दी।
” अच्छा, अभी लाती हूँ।” वह बाहर चली गयी और जरा से इंतजार के बाद एक भारी भरकम एलबम लाकर उसके पलंग पर रख दिया ।
” अब रुको, मुझे ढूंढने दो।”
” ढूंढो रागी, शायद में मिल ही जाऊं। वह यूं ही मुस्कुरा दी। कमरे में एलबम पलटे जाने की आवाज है, जैसे कोई दबे पांव चल रहा हो भीतरभीतर और भीतरस्किन के भीतर रैंगता एक कीडा सा। वह हाथ हटाकर झटक देना चाहती है और अपने जख्मों को छूना भी नहीं चाहती। अब कीडा ठीक जख्म के ऊपर हैमांस का रेशा रेशा कुतरता। अजब सी लाचारी में उसने अपना सिर तकिये में भींच लिया।
” रागी मैं खुद को कैसे पहचानूंगी कि यह मैं हूँ?” उसने पीडा से विकृत हो रहे चेहरे पर मुस्कान की भीनी चादर डाल दी। रागी अवाक् उसका मुंह देख रही है
” अपने चेहरे से – और कैसे? पर तुम यहां तो कहीं नहीं हो दीदी।” उसने अनमने ढंग से एल्बम बन्द कर दूर सरका दिया।
” रागी, मेरा चेहरा कहाँ है?”
रागी स्तब्ध बैठी है, उसका चेहरा आइने की तरह सपाट है दीदी बौरा गयी है, अत्याधिक दुख की वजह से
” मेरी कोई तस्वीर नहीं है रागी, किसी ने नहीं बनाई हमारी तसवीरहमीं से नहीं बनाई गयी। हम आइना बन कर रह गये।
अचानक बबलू के जोर से रोने की आवाज आयी। रागी उठकर बाहर भागी। भविष्य के उल्टे पडे आइने में उसका संभावित चेहरा झिलमिलाने लगा!

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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