” अक्दे निकाह कनीज फ़ातिमा उर्फ शाहीन रिजवी बिन्ते सैय्यद सुल्तान हुसैन साहब रिजवी, साकिन हैदरगंज, लखनऊ हमराह सैय्यद बशीर हुसैन रिजवी सल्लमहा उर्फ सैय्यद जीशान आलम रिजवी सल्लमहा इब्ने सैय्यद रियासत हुसैन साहब (मरहूम) साकिन बैरूनी खन्दक, लाल डिग्गी रोड, अलीगढ बएवज मेहर – ए – मोअज्ज़िल मुबलिग 14 हजार रुपये रायजुल वक्त के निस्फ जिसका निस्फ हिस्सा मुबलिग 7 हजार रुपये सिक्कये रायजुल वक्त होता है। आपके वकील की हैसियत से पढूं? आपकी इजाजत है?”
” हूँ!” मैं ने घबडा कर कह दिया, फिजा मुबारकबादियों के शोर में डूब गई और मैं एक नये शहर नयी दुनिया में पहुंच गई।
पर अफसोस मेरे मोहल्ले की सभी औरतें झूठ बोलती हैं। जीशान जब मुझसे ब्याह रचा कर इस मोहल्ले में आये तो सभी औरतों ने मेरी मुंहदिखाई देते वक्त मेरी झूठी तारीफें कीं। हालांकि मैं खूबसूरत नहीं थी, लेकिन चूंकी शादी के वक्त मेरी उम्र 18 साल से भी कम थी इसलिये कमउमरी का हुस्न था। बाल मेरे स्याह और दराज(लम्बे)थे। मेरे मियां को पसन्द भी थे, ( बाद में मैं ने कटवा दिये एकदम छोटे छोटे मर्दाना किस्म के) औरतों ने मुझको बहुत सारी नसीहतें दे डालीं, जैसे ही जीशान दफ्तर सिधारते कई बुढिया कई बुढिया और अधेड उम्र की औरतें घर में दाखिल हो जातीं। मैं चाय बनाते बनाते और दरवाजा खोलते – बन्द करते थक जाती।
मुझे खाना पकाना नहीं आता था। न ही शौक था। घर पर मेरे खादिमा थी वही सारे काम करती थी। मोहल्ले की औरतों ने मुझको मशविरा दिया कि मियां को खुश रखना है तो अच्छे – अच्छे, तरह तरह के मजेदार खाने पकाना सीख लूं। यह औरत का खास गुर है ( इससे मियां बंधा रहता है खूंटा छोडक़र भागता नहीं)।
मैं ने मरखप कर किसी तरह बेकिंग, चाईनीज, मुगलई, इण्डियन और कॉन्टिनेन्टल खाने पकाने की क्लासेज अटैण्ड कीं। मोटी रकम भी खर्च की और थोडा बहुत सीख भी गई। रोजमर्रा के घरेलू खाने मोहल्ले की औरतों के सिर पर हर वक्त खडे रहने से ही सीख गई थी। हाथ कई बार कटा और छाले भी पड ग़ये। दूर से उछाल कर पूरी तेल में डाल देती तो कभी बघार के लिये प्याज फ़ेंकती तेल तमाम हाथों पर। कई बार तो कमबख्त कुकर ही आकर चिपक गया। मियां ने मना भी किया, होटल में भी खिलाया, लेकिन औरतों ने सख्त मना किया, ” रूपये बर्बाद मत करो मियां को पटाना है तो” वगैरह वगैरह।
खैर भई हम बावर्चन बन गये, चार छ: मियां की कमीजें और कुछ अपनी कीमती साडियां जलाने के बाद धोबन भी बन गये। घर सजाने और साफ करने का भी शौक था, लेकिन ज्यूं ज्यूं मैं घर को नफासत नजाकत से सजाती गई, मियां ने कुछ दूरी अख्तियार कर ली। शादी को भी 6 महीने गुजर गये थे। मैं ने सोचा शायद इसलिये ही हुआ है। यह देर रात को घर आने लगे। औरतों ने कहा, ”बच्चा आ जाय घर में तो रौनक हो। मियां वक्त से घर आने लगेंगे।”
चन्द माह बाद मैं ने बच्चे की खुशखबर मियां को दी तो वो घबडा गये, ” अरे! भई अभी इतनी जल्दी?” मैं खुद नर्वस हो गयी अपनी गलती पर। रात को इन्होंने समझाया, ” यह मामला अभी खत्म कर दो, तुहारी उम्र अभी कम है, तुम इंटीरियर डेकोरेटर का कोर्स कर लो, तुमको शौक भी है।”
मैं मामला समझ गयी। मैं ने जी तोड मेहनत करके इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स कर लिया। अब अपने घर की जगह दूसरों का घर सजाने लगी। औरतों ने कहा, ” अब तुम हंसती नहीं पहले की तरह। शायद इसलिये ही शौहर तुम्हारा सुबह बहुत जल्दी दफ्तर चला जाता है।” अब मैं बिलावजह हंसती, यह पूछने भी लगे, ” तुम यह एकाएक बात बे बात हंसने क्यों लगी हो? मैं हंस दी( असली बात छुपा गयी)। अब यह आये दिन टूर पर जाने लगे।
” अब बच्चा आ जाना चाहिये।” कई बुढियां फिक्रमन्द हो गयीं।” बच्चा आ गया। इनको बच्चे में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मेरा काम बढ ग़या, इन्होंने एक आया रख दी।
”तुम मायके चली जाओ कुछ महीनों के लिये ताकि तुमको आराम मिल सके।” मैं मायके चली गई।
आठ महीने गुजर गये तो सबने कहा, ” अब तुम मियां के घर चली जाओ, वह बच्चे के बगैर बेचैन होगा।” हालांकि वह बच्चे से से इतना डरता था कि हाथ लगाते घबडाता था, ” यह बहुत छोटा है।” और उसके रोने से तो उसे सख्त चिढ थी।
रात में वह ड्राईंगरूम के सोफे पर सोने लगा। बहाना करता कि ” रात में बच्चा रोता है उठकर तो मेरी नींद खराब होती है।” खैरशुक्र है कि वह सोता सोफे पर ही था और मोहल्ले वालों को बेडरूम में ही डबलबेड नजर आता था।
एक रात वह रात भर नहीं लौटा। लौटा तो थका हुआ था आते ही सो गया जब दोपहर में उठा तो मैं पहली बार लडी। क़हा, ” बच्चा सख्त बीमार था, डॉक्टर के पास ले जाना था और आप रात भर नहीं आये? ”
” बच्चा तुम्हारी जिम्मेदारी है, तुमने पैदा किया है अपनी खुशी से, मैं ने तो मना किया था।” वह साफ पल्ला झाड ग़या।”
””
” अच्छा खिलाता पिलाता हूँ तुमको, और क्या चाहिये? ” मैं जलकर चुप रही।
अब धोबी को कपडे देते वक्त उसकी पैन्ट की जेब से तरह तरह की नंगी तस्वीरें और बेहूदा मजमून (विषय) की कतरनें मिलने लगीं। सोफे के नीचे फहश (अश्लील) मैगज़ीन, क्लिप और बाल, लिपस्टिक के निशान लगे रुमाल वगैरह मिलने लगे। मैं ने कुछ नहीं कहा। वह खुद ही एक दिन अपनी टाईपिस्ट की बेशुमार तारीफें खाना खाते खाते करने लगा, ” वह बडे लजीज़ भरवां करेले बनाती है।” यह तो करेले खाते ही नहीं थे। मैं ने अगले दिन भरवां करेलों की तरकीब मिसेज रंजीत से ली और रात के खाने में पकाये, इन्होंने छुए तक नहीं। बच्चा रात भर चीखता रहा। मेरा दिल हाऊसवाइफ बनने से एकदम उकता गया। अब मैं देर तक पडी रोती रहती। कहाँ मोहल्ले की औरतों के कहने के मुताबिक जल्दी उठने लगी थी।
” मियां को खुश करना है तो उसके सोने के बाद सोओ, उठने से पहले उठो।” यह बार बार औरतें कहतीं और मैं ने सच मान लिया था।”
मियां ने कहा तुम मोटी हो रही हो। मैं ने डायटिंग शुरु कर दी, बी पी लो कर लिया, चेहरा लटक गया, बाल झड ग़ये। मियां अब भी रोज ही देर से आते काफी जल्दी चले जाते।
मैं ने खाना पकाने के लिये बुआ रख ली। कईयों ने एतराज क़िया, ” मियां बीबी बच्चा दो जनों का खाना नौकरानी क्या पकायेगी, चुरायेगी ज्यादा।” वो चोर थी यह मैं जानती थी। लेकिन काम करते करते मैं थक चुकी थी, बोर हो चुकी थी।
यह अब घर में भी पीने लगे। यार दोस्त घर पर आने लगे, पहले मैं खूब खातिरें करती थी। अब मैं बच्चे के साथ बेडरूम में चली जाती। सलाम दुआ करके नाश्ता भेज देती।
” तुम बदअखलाक हो गयी हो।” ये गुर्राये। मैं चुप रही। मैं ने गुस्से में एक्सरसाइज करना बन्द कर दिया जो इनके मशविरे पर शुरु किया था और खूब खाने लगी मेरी कमर कमरा हो गयी। लेकिन मेरे चेहरे की चमक लौट आयी, बालों में जान आ गयी। बच्चा भी मोटा हो रहा था। मोहल्ले की औरतें खुश थीं। ये कुछ परेशान लगे, मैं ने पूछा तो बोले –
” मआशी ( आर्थिक) दिक्कतें हैं।”
एक दिन यह बाजार में अपनी नई डिसकवरी के साथ शॉपिंग करते हुए मिल गये, बौखला गये अचानक, ” तुम यहाँ कैसे? बच्चा कहाँ है? ” मैं ने आइसक्रीम का बडा कोन सूंतते हुए हंस कर कहा, ” पडोसन के यहां दे आयी हूँ आज इसका क्रेच देखने निकली थी सोचा काफी दिनों से आइसक्रीम नहीं खायी है, खा लूं।”
” तुम्हारा गला खराब हो जायेगा। डॉक्टर राहत आजकल बाहर गये हुए हैं।” इनको मेरे गले की फिक्र लाहक होने लगी।” मेरी नजरें उसकी नाजुक़ गरदन का तवाफ ( परिक्रमा) कर रही थीं जिसमें एक चमकीली नयी सुनहरी चेन जगमगा रही थी। इन्होंने घबडा कर कैशमेमो नीचे गिरा दिया।
” मुझे दफ्तर में देर हो रही है एक मीटिंग है आज।” यह उस बला के साथ आगे बढ ग़ये। कैशमेमो चार हजार का था।
मैं धारोंधार रोई, बेहोश हुई, फिर खूब लडी, हजारों गालियां दे डालीं, खूब उल्टा सीधा कहा, गरेबान फाड ड़ाला, वह खामोश सुनता रहा। आखिरकार मैं भी खामोश हो गयी, औरतों ने बताया कि औरत को मर्द की ज्यादतियों पर खामोश रहना चाहिये। यही नेक औरत का चलन है। अपने शौहर की बुराई करने वाली औरत समाज में रुसवा होती है, शौहर की नजरों में गिरती है। और आकबत में भी कोई जन्नत के महल का दरवाज़ा नहीं खुलता।
मैं ने हार कर खामोशी की स्याह अबा ओढ ली। वह बहुत खुश था यों वह बहुत बेचैन भी रहता। अजीब किस्म की बेचैनी और वहशत से पागल हुआ जाता। जब तक वह नया पत्थर पिघलाने में मसरूफ रहता यह बेचैनी रहती, जब पिघल जाता तो अजीब सा सुरूर उस पर तारी हो जाता। वह सीटिंयां बजाता और अजब अन्दाज से मुस्कुराता। उसकी अय्यार आंखें जगमगातीं। अब मुझे भी पता चल गया था, जब कोई नयी कली उसकी जिन्दगी में आती वह अचानक बेहद मेहरबान हो जाता मुझ पर। बडे वालिहाना(स्नेहिल) ढंग से कहता,
” तुम तो बडी नेक हो” ( जी तो चाहता उसका मुंह नोंच लूं)
” अगर जिन्दगी रही तो अगले साल सोने का गुलूबन्द बनवा दूंगा।” ( अल्लाह करे, कमीना मर जाये)
रूठता देख कहता, ” चलो तुमको आइसक्रीम खिला दूं।” ( बद्जात)
” क्यों न आज होटल में डिनर कर लें।” वह घिघियाता।
दिल में तो आता हजार गालियां दूँ। अपनी चूडियां तोड ड़ालूं और रंडापा ओढ लूं। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाती मैं। हर हाल में मुझे उसके साथ ही रहना था, एक छत के नीचे, हजारों जोडों की तरह बेबस, बेहिस। जिन्दगी की तमाम नरमी अचानक खुश्क हो गयी। अब तमाम रिश्ते अपने मायने खोते जा रहे थे। मैं अजब किस्म के नाकाबिले बयान कैफियत के ट्रान्स में थी। तमाम ताल्लुकात बेकैफ़ हो चुके थे, बेमजा, नमक खत्म हो चुका था। जुबान पर एक फीका सा जायका। नमक कहाँ खो गया? पता ही नहीं चला बस अचानक चुपचाप जिन्दगी से गायब हो गया।( कैसे? नामालूम!) भयानक अकेलापन था, एकदम घुप अंधेरा, साथी था लेकिन नहीं था कुछ याद नहीं।
दिन रात बाजारों में घूमती, बेतहाशा शॉपिंग कर डालती। कई साडियां, ब्लाउज, सूट नाईटी बिला वजह ही खरीद डाले। एक माह में कई बार फेशियल करवा डाला। शहर – शहर घूमी लहासिल। ढेर सारे गमले खरीद लाई। खोदते खोदते अपनी कब्र तक पहुंच जाती, नन्हा सा गढ्ढा गारनुमा नजर आने लगता, फिर कब्र में तब्दील हो जाता। मैं सफेद कफन पहन कर अन्दर चली जाती, बीज बोकर बाहर आ जाती।
शॉपिंग करते करते, होटलिंग करते करते मैं थक जाती। वो जिस शहर में जाता घर को सजाने का सामान ले आता। घर सामान से भर गया था। मेरा दिल मर गया था, उसका दिल जवान था। ज्यों ज्यों वह बूढा हो रहा था उसके कहकहे दिन ब दिन जवान हो रहे थे।
कई बार खुदकुशी की कोशिश की मगर नाकाम रही। हर बार मियां ने ही मुझे बचाया। खैर यह बात तो हम दोनों के बीच ही रही, ” अल्लाह की दी हुई जिन्दगी जाया नहीं करते, खुश रहा करो, हंसा करो, अपने को मसरूफ रखो, नमाज पढो, कलमपाक की तिलावत किया करो इससे जी बहकलता है, अल्लाह मेहरबान होता है, बच्चे में जी लगाओ अच्छी मां बनो, सुबह उठ कर टहला करो, अपने को फिटफाट रखो यार।” उसके जूते से लेकर बाल तक चमकते, वह फैशनेबल कपडे पहनता।
मैं ने इस शख्स को इस शिद्दत से चाहा कि शायद ही किसी औरत ने किसी मर्द को चाहा होगा। मैं उसको इस कदर चाहती थी कि वह बोर हो गया। हजार बार कह चुका, ” मुझे शिद्दत से न चाहा करो, मैं उकता जाता हूँ।” जब वह सो जाता तो मैं रात रात भर शमा लेकर उसका चेहरा ताकती रहती। सच, मुझे वह दुनिया का सबसे हसीन इन्सान लगता ।( हालांकि वह हसीन नहीं था) ।एक अजब किस्म की दीवानगी मुझ पर सवार थी। वह भी चाहता था लेकिन एक हद में रह कर शायद एक पर ही सबकुछ खर्च नहीं कर देना चाहता था। मैं ने नेक परवीन बनने की बेहद कोशिश की, कामयाब भी रही, लेकिन वह हाथ से निकल गया।
मैं बेहद चाहने के साथ साथ उससे शदीद नफरत भी करने लगी थी। एक साथ दोनों जज्बे मुझ पर बुरी कदर हावी थे। मोहब्बत के मारे मैं उसके गलीज मोजे तक सूंघती और पसीने में भीगी बनियाइन अपने तकिये पर रखती। जब वह न होता, अकसर रातों को वह न होता। उसकी कार बाहर खडी रहती ताकि मोहल्ले वालों ( बल्कि वालियों) को मालूम न हो। दुनिया का इतना डर था उसको। पार्टियों में मुझको सजा धजा कर ले जाता। कपडे बनवा देता, मेकअप का सामान ला देता। इस मामले में उसकी मालूमात बडी वसीह ( बहुत ज्यादा) थी। अजीब किस्म का जलील कमीना शख्स था। मैं रोती तो सबसे पहले उठकर घर के दरवाजे, ख़िडक़ियां बन्द करने लगता। हाथ पैर जोडने लगता।
” खुदा के लिये मता रोओ, लोग तुम्हारा रोना सुनेंगे तो मेरे बारे में क्या राय कायम करेंगे? ”
अपने बारे में वह हर लम्हा अच्छी राय कायम करवाना चाहता था। मोहल्ले, समाज, दुनिया और खुदा से डरता लेकिन करता वही जो वह चाहता, मारे नफरत के मैं उसके पसन्दीदा आफ्टरशेव लोशन और सेन्ट एक साथ मिला कर कॉकटेल बनाती और फ्लश में डाल देती। उसकी पसन्दीदा शराब की बॉटलों को तोड ड़ालती, वह कुछ न कहता खामोश रहता।
लेकिन रात में सोते सोते उसके माथे की रग इतनी तेजी से फडक़ने लगती कि मैं चौंक जाती, वह बेकरार रहता। उसके मुंह से अकसर कोई न कोई नाम खुद ब खुद निकल जाता। बाज वक्त यों ही वह जिक़्र कर देता परिवशों( सुन्दरियों)का फिर सॉरी कह कर एक अजब बेचारगी से आंखों में मासूमियत भर लेता कि पल भर में नफरत काफूर हो जाती और मैं फिर अच्छी बीवी बनने की कोशिश करने लगती।
मैं मां नहीं बन सकी। बच्चा जरूर पैदा कर लिया, लेकिन मेरे अन्दर मां बनने का जज्बा ही न पैदा हो सका। नफरतों की वजह से वह मर गया। बाज औरतें बगैर औलाद पैदा किये ही मां बन जाती हैं, ममता का जज्बा इतना हावी होता है। मैं मां होकर भी मां नहीं थी। बच्चा मैं जरूर पाल रही थी, लेकिन मेरे अन्दर अन्दर उसके लिये कोई नरम गोशा नहीं था। ऐसे बच्चे शायद ज्यादा ही समझदार होते हैं। नन्हा सा बच्चा मुझे देख कर हंसता तो लगता मजाक उडा रहा है। वह रोता ही नहीं था या तो खेलता या तो चुपचाप क्रेच चला जाता। शायद वह मेरा राज ज़ानता था कि मैं मां होकर भी
मेरे अन्दर की नाजुक़ कोंपल खिलने से पहले ही मुरझा गई थी। लगता यह भी नर बच्चा है, बडा होकर यह भी वैसा ही होगा जैसा कि इसका बाप है। फिर भी उसके बाप को में शिद्दत से चाहती और बेपनाह नफरत भी करती। यह दोनों जज्बे एक दूसरे पर ओवरलैप होते रहते।
औरतें बतातीं कि शौहर भी तरह तरह के होते हैं। बस ब्रीड नेम अलग अलग होते हैं – बुलडॉग, अलसेशियन, जर्मन शैफर्ड, ग्रेहाण्ड, पॉमैरियन, फॉक्सटैरियर, डॉबरमैन, लैब्राडोर, देसी इनको सख्ती से बांध कर रखो नहीं तो इधर उधर मुंह मारने लगते हैं।
लेकिन जब वह मेरे पास होता तब भी मेरे पास कहां होता था? उसकी आवाज क़हीं और होती, जिस्म कहीं होता, जहन कहीं और टहल रहा होता। आंखें समुद्र पर होतीं, तो जबान नमकीन, चटपटे, मीठे तुर्श जायके तलाश कर रही होती एक न एक औरत हमेशा उस पर हावी रहती। लाशऊरी( अवचेतन मन) तौर पर उसकी गुत्थियां उलझी रहतीं, उसके जहन में हमेशा कोई और होता वह जुडा रह कर भी मुझसे जुदा था। साथ होता तब भी लगता कि बीच में कई लोग हैं वह कभी अकेला होता ही न।
मैं ने क्या नहीं किया उसे खुश करने के लिये…गर्मी की तपती दोपहरों में गैस खत्म होने पर उसके लिये जलते आंगन में कागज़ ज़ला जला कर चाय बनाती। सर्द रातों में उठकर उसको भूख लगने पर खाना पकाया अपने हाथों से खिलाया, बच्चों की तरह नेवाले बना बना कर। उसकी हर ख्वाहिश पूरी की। फिर भी वह बेवफा निकला और मेरा यकीन मोहब्बत पर से उठ गया। तमाम जज्बे मुर्दा हो गये। दिल रेगिस्तान हो गया।
आश्रम की चिरकुंवारी मोटी गुरुजी कहती हैं, ” माया से बचो, प्रेम माया है, उसका जाल झूठा है। कोई न अपना है, न पराया, मुक्त हो जाओ बंधन से।” अकीदत ( श्रध्दा) से तमाम औरतें सर झुका लेतीं, मैं भी मक्कर साध लेती…आंखें खोलती तो गुरुजी की चेली उनको तले काजू खिलाती नजर आती माया से !
” आप उदास क्यों हैं?” एक कमसिन लडक़ी ने बैठी हुई भीड में से पर्ची सरकाई। मैं इर्द गिर्द की खामोशी देखी थी। अपना नोटों भरा बैग किनारे रख कर रुमाल तलाश किया था और उसको पर्ची लौटाते हुए मुस्कुरा दी। सब माया है सब जड है।
जितना मैं उसके करीब जाने की कोशिश करती वह दूर होता रहा। तमाम कामयाब नुस्खे नाकामयाब साबित हुए। वह मेरी दूरी से खुश होता, मैं मायके जाने का नाम भी ले लेती तो वह नाच उठता।
” अल्लाह, तुम कितनी अच्छी हो, अपना ख्याल रखना…आराम से रहना! कोई जल्दी नहीं है इत्मीनान से आना…वहाँ तो तुम्हारा दिल लगेगा न?” और मैं दूर हटने लगी उसकी खुशी बढने लगी।
” सब कुछ तो है तुम्हारे पास औरत की तरह रहो” ( शायद मुझे औरत की तरह रहना ही नहीं आया) यों औरतों वाली तमाम कमीनगी, मुझमें भी थी, जलन, हसद, नफरत, कुढन, शुरु के दौर में मैंने खूब जासूसी भी की थी। बटेरों की किस्में पता कीं, उसके पतों की डायरी छिपा दी लेकिन कंप्यूटर की तरह उसके जहन की फ्लॉपी में हजारों पते, फोन नम्बर, सालगिरह की तारीखें दर्ज थीं। खूब नमाजे और नफलें पढीं, रोजे रखे, कुरान हिफ्ज हो गया, हज़ारों सूरे याद हो गये, वह अपना न होना था, न हुआ। ताबीज ग़ण्डे सब बेकार बेअसर।
” दिल को वसीह करो अपने।” वह समझाता।
” सबसे मोहब्बत किया करो।” वह हंसता।
लो जी दिल न हुआ कबूतरखाना हो गया कि जिसके हर खाने में एक अदद( लडक़ी?)।
मुझे पूरी चॉकलेट चाहिये थी। गलती यही थी कि मुझे शेयर करने की आदत नहीं थी न। न कोई समान न कोई रिश्ता। यही गांठ थी। हजारों टुकडों में बंटी चॉकलेट का मजा कसैला हो जाता है मेरी जुबान पर। बचपन से आदत थी पूरी चॉकलेट खाने की, घर में छोटी होने का यही नुकसान रहा कि कोई हिस्सा बांट करने वाला नहीं था, सब कुछ अकेले ही लेना था, सुख दुख लेकिन यह तो वह चॉकलेट था जो।
रात में अकसर ज्यादा पी लेने के बाद माफियां मांगता तब अचानक उसका जमीर जाग जाता, शक्ल मिसकीनों जैसी बना लेता। एकदम मासूम बन जाता, कदमों पर सर रख देता और दोनों हाथों से मुंह छिपा कर बच्चों की तरह फूट फूट कर रोता।
मलूल आवाज में कहता, ” मैं तुमको कोई खुशी नहीं दे सका।”
” नहीं नहीं तुम बहुत नेक हो।” मैं फौरन सारे गुनाह बख्श देती और शर्मिन्दा हो जाती अपनी ज्यादतियों पर। वह अपने गुनाह बख्शवाने की जिद करता और मैं हर नमाज में इसके लिये दुआएं मांगती। मस्जिदों, इमामबाडों और दरगाहों में उसके गुनाह बख्शवाने पहुंच जाती।
अकसर जी चाहता कि कलेजे में छिपा लूं। बाज औकात मैं मां बन जाती उसकी, बहन भी बन जाती, महबूबा भी बन जाती। हजारों रूप निकल आते। हम फिर दोस्त बन जाते। कभी कभार मियां बीवी भी बन जाते। लेकिन चन्द दिनों बाद फिर वही…कुत्ते की दुम टेढी वाला हिसाब….जो कभी सीधी नहीं होती लाख कोशिश कर लो। कुरान हाथ में लेकर झूठी कस्में खा जाता ऐसे ऐसे बहाने तराश लेता कि अक्ल हैरान रह जाये।
अब मैं भी अकसर चुप रह जाती। कुछ कुछ इंसानी दोस्ती भी हो गयी थी उससे, रिश्ता बदल सा गया था।
वह मुझे बताने लगा था कि फरहा थोडी मोटी है, लेकिन आंखें झील की तरह पुरसुकून और गहरी नीली हैं। मोहिनी के दांत, सरोज के लब, लबें लाली कान्ता के बाल, सुमबुल.. अंजलि की जबान मीठी है…साधना से सिर्फ फोन पर ही बात कर लो तो सुकून मिल जाये। अब इतनी दौड भाग के दौर में ज़रा सा सुकून तो सभी चाहते हैं न? तुम समझ रही हो न? रूटीन लाईफ से आदमी बोर हो जाता है न? इसलिये जरा सी तब्दीली।”
मेरी अक्ल मोटी है, बारीक बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं। इसलिये मैं सो जाती।
हालांकि वह जल्दी बोर भी हो जाता फिर नई जुस्तजू नई तलाश शुरु हो जाती। वह एक जगह बैठने वाला परिंदा था ही नहीं । बहुत क्लोज पार्टीज में वह अपनी नई डिसकवरी को भी ले जाता और दोस्तों पर रोब मारता। मेरे चिडचिडाने पर कहता, ” तुमको तलाक तो नहीं दे रहा हूँ न!” मैं घुटकर रह जाती। जी तो चाहता मैं खुद ही ऐसे शख्स को तलाक दे दूं। लेकिन बन्नो तू जायेगी कहाँ? इस समाज में जहाँ कुंवारी और तलाकशुदा लडक़ियों की हालत एक जैसी है जो बगैर कोई गुनाह किये गुनाहगार मानी जाती हैं। तलाकशुदा औरत? न न न! कभी जी चाहता भाग जाऊं यह जंजाल छोड क़र लेकिन तहफ्फुज( सुरक्षा) का अहसास ही काफी था।
” प्रैक्टिकल बनो। वक्त के साथ चलना सीखो”
अब लडक़ियों से मुझे भी मिलवाने लगा। अकसर देर रात में आये फोन थमा देता।
”सुनो लडक़ियां क्या क्या कहती हैं मुझे। कितना प्यार करती हैं।”
बडा गुमान था उसको अपनी मर्दानगी का। हैरत होती मुझे लडक़ियों के मुंह से इस तरह की बातें सुनकर।
चन्द लडक़ियां मुझे अच्छी भी लगीं। मैं उनकी आपा और बाजी भी बन गई। चन्द वक्त – ए – रुखसत पर इतना रोईं कि मेरा दिल समुद्र की तलहटी में चला गया और मैं ने बडी मिन्नतें कीं कि –
” आप इनमें से किसी के साथ तो ईमानदार रहिये। आप जिससे चाहे शादी कर लें। मुझे एतराज नहीं होगा बस आप खुश रहिये, इसी में मेरी खुशी है।”
” लानत भेजो” वह मेरी बेवकूफी पर बेतहाशा हंसता और कहता कि ” मेरे बेटे का क्या होगा? तुमको अन्दाजा ही नहीं है अभी यही तो मेरी नस्ल बढाएगा ( वह बेटा जिसकी शक्ल वह कभी कभार ही देखा करता था) समाज में मेरी इज्ज़त हो तुम…वह मेरा बेटा।”
यह खुदा किस तरह मेरा साथ दे रहा है? जी चाहता है न साथ दे तो ही अच्छा। हाँ लडक़ी की जुदाई उससे बरदाश्त नहीं होती। लडक़ी छोडते वक्त बेहाल हो जाता, इतना दर्द तो मुझे बच्चा पैदा करने में नहीं हुआ था जितना इसे लडक़ी छोडने में होता। बेतहाशा रोता, घन्टों उदास रहता, न खाता न पीता। मैं उसको फिर जिन्दा करने की कोशिश में बेजान हो जाती। चन्द दिन वह नॉर्मल रहता फिर दूसरा दौर शुरु।
मुझसे कहता, ” मुस्कुराती रहा करो। हंसा करो, यह क्या मुंह बनाकर बैठी रहती हो? पपलू खेला करो, घूमने जाया करो। सजकर रहा करो”
मैं चीनी की गुडिया की मानिन्द सज संवर कर बैठी रहती, मुस्कुराती रहती। आईने में मेरा चेहरा इतनी पर्तों से ढका नजर आता कि फिर लगता कि कोई दूसरा ही चेहरा है। मैं तो खो गई हूँ। गुमशुदा हूँ, अगर मेरे घर से कोई आ जाता तो वह घबडा जाता।
‘अपनी अम्मा बहनों से हरगिज क़ुछ मत कहना। कहना, मैं दफ्तर में बेहद मसरूफ हूँ।”
मैं वही कहती जो वह कहता। हालांकि सभी मेरी मुस्कान के अन्दर की उदासी समझ ही जाते। मेरे कहकहे खोखले हो जाते फिर भी मैं हंसने की लगातार कोशिश करती रहती।
वह मिसकीन और मजलूम शक्ल बना लेता। आंसू टपकने लगते, सांस तेज चलने लगती उसकी, पलभर में वह फरियादी बन जाता, और पल भर भी न गुजरता कि कातिल बन जाता। बेहिस और बेरहम, संगदिल एकदम पत्थर सा आदमी इतना मक्कार कैसे हो जाता है मुझे यकीन ही न आता।
आरसी मुसफ में रखा आइना याद आ जाता जब पहली बार इनकी शक्ल इसमें देखी थी। एकदम मासूम, हैरत से उदास आंखें एकटक मुझे आईने में देख रही थीं।
इंसान के अन्दर कितने राज छुपे हैं? कितने रूप अनगिनत रंग। सब लहासिल… लाजवाब एकदम मुलम्मा उतरने लगा। परत दर परत चेहरे से चेहरे चढने उतरने लगे। अजीबो गरीब मुखौटे। जानवरों और इन्सानों की मिली जुली शक्लें एक अजब शैतानी शक्ल घूरने लगी ।
हवस में डूबी आंखें… रंगत स्याह… अल्लाह अल्लाह, हैबत तारी हो जाती, कॉलबेल बजी, दूध उबल कर गिर गया, गैस बुझ गयी, गैस की महक पूरे घर में फैल गयी।
”तुम कहाँ थी”
” पता नहीं यहीं तो थी।” मैं जल्दी जल्दी दूध साफ करने लगी। कुकर पतीली सब स्याह कर डाले थे। टी वी का स्विच खराब कर दिया था, प्रेस से कपडे ज़ल जाते, वाशिंग मशीन में कपडे फ़ंसा डाले।
” दिमाग क़हां रहता है तुम्हारा?” यह पूछते।
” पता नहीं।” मैं शर्मिन्दा।
उसका दिल बडी ज़ल्दी उकता जाता। किसी भी चीज से, खासतौर पर अपनी गिज़ा से। व्हाईट मीट से भरता तो रेड मीट ढूंढ लेता। तलाश जारी रहती हर पल।
वह मूड में होता तो मजे ले लेकर सुनाता अलग अलग जायके लज्जत, लुत्फ। हुस्न के दांव पेंच बयान करता.. अजब था वह।
” वह कलमी आम की तरह शीरीं है। तो वह तुख्मी आम की तरह तुर्श, वह मैकडॉनल्ड का बरगर है, तो वह डॉमिनोज का पिजा और जूही देशी मजा है अरहर की दाल, चावल और कमरख की चटनी की तरह शोभा सरसों के साग जैसी।”
फिर अचानक चुप हो जाता ” ओह सॉरी! ”
मेरी आंखों के खण्डहर उसे डराने लगते। मेरे अन्दर की भूतनी हंसने लगती।
लडक़ियों में पूरी तरह इनवॉल्व हो जाता। पूरा किरदार उनका अपने ऊपर तारी कर लेता। उनकी हर ख्वाहिश का एहतराम करता। उसकी पसन्द, नापसन्द, लिपस्टिक नेलपॉलिश का रंग, खुश्बू, कपडे, क़िताब, दुकान, रेस्टरां, उनके दिमाग और दिल के तमाम बन्द दरवाजे ख़ोलता हुआ उनके घर तक पहुंच जाता और घर वालों से दोस्ती गांठ लेता।
मुझे उन दिनों बीमार, कामचोर, उम्रदराज और निष्प्रयोज्य बताता। इस तरह मुझे गलत साबित करके उनकी हमदर्दी हासिल कर लेता। शादीशुदा जिन्दगी की तल्खियों पर रोशनी डालता और कलियों का दिल जीत लेता।
क्लास थ्री की एम्प्लॉइज उसकी पसन्दीदा गिजा( भोजन) थी। दरअसल ये लडक़ियां उसको आसानी से दस्तयाब हो जातीं थीं। इस वर्ग की साइकॉलोजी से वो अच्छी तरह से वाकिफ था। उनकी दिली ख्वाहिशात का खुले दिल से स्वागत करता।
पांच सितारा होटल में शानदार कैण्डल लाईट डिनर। किसी पहाडी ईलाके की सैर। शॉपिंग सेन्टर से खरीदारी। तोहफे और तहायफ। उसकी छोटी मोटी मेहरबानियां उसे निहाल कर देतीं।
दफ्तर में उसको क्लास थ्री का अफसर कहा जाने लगा था, इनको पटाना आसान रहता है। मौके – ब – मौके उनसे फायदा भी उठा लेता, उनको छोटे छोटे फायदे देता भी। क्लर्क, स्टेनो, टायपिस्ट( जिनसे वह अपने कागज़ात मुफ्त टायप करा लेता) लाईब्रेरियन ( ढेरों किताबें घर उठा लाता जो कि उसकी अलमारी की रौनक बन जातीं), होटल की रिशेप्शनिस्ट के साथ जहां वह शामें इत्मीनान से गुजारता। शराब, चाय, कॉफी, सैण्डविच सब फ्री। चलते वक्त पसन्दीदा ऐश ट्रे या चम्चा या फूलदान उठा लेता। अखबारों के दफ्तरों में छोटे मोटे काम कर रही लडक़ियां, टेलीफोन आपरेटर्स जिनके जरिये वह मुफ्त में विदेश कॉलें किया करता। रेडियो की कैजुअल अनाउन्सर, ट्रान्सलेटर्स वगैरह वगैरह।
वह अपनी जेब पर कतई भार न डालता, ” बीवी कमबख्त पूरी तनख्वाह हथिया लेती है।” कह कर मजलूम बन जाता। रेस्टरां में कभी उसकी जेब से पांच दस के नोट से ज्यादा न निकलता।
” तुम्हारे पास? ”
नौकरी पेशा लडक़ी खुद ही बेचारी पर्स खाली कर देती यह उनके पैसों से ही उनकी शॉपिंग करा देता और खुद भी फैजयाब हो जाता। छोटे मोटे तोहफे जरूर दे देता। सरकारी खर्च पर तफरीह भी करा देता। जरूरत पडने पर सरकारी कार व चपरासी भी भेज देता। बावक्त उसकी नजर चार पांच डिशों पर एकसाथ होती वह कॉकटेल का शौकीन था।
मैं कभी इनके शिकार के खेल में शरीक हो जाती तो यह और खुश हो जाते। किसी माशूका का फोन आया था बता देती तो इनका लहजा ही बदल जाता।चेहरे की रंगत बदल जाती।
यह जब किसी से उकता जाता तो बगैर किसी वजह के कोई भी मामूली सा इल्ज़ाम लगा के बेरहमी से अलग हो जता। सफ्फाक़( जालिम) और बेदर्द बन जाता। बाजवक्त सैडिस्टिक नजर आता। छ: महीने से ज्यादा दोस्ती किसी लडक़ी से न रखता था। यह इसका रिकार्ड था।
इस्लाम का मद्दाह था। कुरान का उसको हिफ्ज था, हालांकि लडक़ियां हर कौम की इस्तेमाल करता उनका इस्तहसाल( शोषण) करता। खासतौर से गैरकौम की मरगुब (पसन्द) थी। जिनका शीन काफ भले ही न दुरुस्त हो लेकिन छत्तीस – चौबीस – छत्तीस के आंकडों में गलती न हो। कमसिन पर नजर रहती। अजब किस्म का जुनून था उसपर कि अकसर तरस भी आता। इतना तिश्ना( प्यास) कि समुद्र भी पी जाये तो प्यास न बुझे। अजब किस्म का इज्तराब( बेकरारी)
अकसर लडक़ियां इसपर आशिक हो जातीं। उसकी बेचारगी का अंदाज ही कुछ ऐसा था। न जाने क्या क्या गुण थे उसमें। भोला बाबा बन जाता, बच्चों की तरह आंचल में मुंह छिपा लेता, लेकिन हैवानियत तारी होती तो ऐसी ऐसी गालियां देता कि यकीन ही नहीं आता कि इन्सान है या हैवान।मारपीट पर उतर आता तो एकदम जंगली बन जाता।
बाजवक्त मैं खुद ही दुआ करती कि अल्लाह इस बदबख्त को सुकून दे। अल्लाह इसकी बेचैन रूह को आराम दे।”
वो फिर मजे क़रता, ठाठ से खाना निगल कर चादर ओढ लेट जाता।
” आज बेहद थक गया, दफ्तर में काम ज्यादा था।”
मैं सब समझ चुकी थी कि अब कुछ कहना सुनना लहासिल है। उसको सुधारने की कोई गुंजाइश बाकी न थी। मैं ने उसकी तरफ से ध्यान हटा लिया और उसको उसके हाल पर छोड दिया।
यह मुतमईन (संतुष्ट) थे। देर रात इनके फोन आते। यह भी करते, फोन पर आहें और सिसकियां भरते। झूठमूठ खांस कर अपना मर्ज बढा चढा कर बयान करते। मैं चुपके चुपके सुनती बाद में मुझे हंसी आने लगी। दिल ही दिल में खूब हंसने लगी। अचानक मैं मैच्योर हो गयी।
मेरी गैरमौजूदगी में मोहल्ले की कई औरतों ने कई लडक़ियों को मेरे घर पर इनके साथ आते जाते भी देखा। टूर पर यह अपनी नयी स्टेनो साथ ले गये थे, इनके पर्स की अन्दरूनी तह से दार्जिलिंग का टिकट निकला जिस पर एम – फोर्टी लोअर बर्थ और एफ – ट्वैन्टी अपर बर्थ लिखा था।
कभी इनकी मैरिट लिस्ट में रही पॉमेला अब मेरी नई दोस्त बन गई थी। उसने ही बताया कि ”मर्दों में फिमेल सेन्स्टीविटी का फिक़दान(कमी) होता और वह अपने मैचोएटीटयूट में गुम रहते हैं। इसलिये मर्द और औरत कभी अच्छे दोस्त नहीं बन सकते जितना कि औरत औरत।”
यह बात मेरी मोटी अक्ल में आ गयी।
अब मैं खूब ब्यूटीपार्लर जाती और तरह तरह से मालिश कराती, क्रीम में डूबे हुए नर्म मुलायम हाथों का लम्स अजब ख्वाबआवर कैफियत पैदा कर देता। फेशियल, पैडिक्योर, मैनीक्योर आराम से करवाती रूह तक थकान उतर जाती। बालों के नये नये स्टायल बनवाती, अकेली रेस्तरां जाती, मौसिकी ( संगीत) सुनती।
यह थोडा मुझसे डरने लगे थे पता नहीं क्यों?
सर्द तन्हा रातों में इटेलियन मुलायम कम्बल का लम्स इन्सानी लम्स से ज्यादा सच्चा और अच्छा लगने लगा था( कोई डर न खौफ) यह अपना खिराज( मूल्य) भी नहीं मांग सकता।
पॉमेला के मुताबिक मैं ने खूबसूरत तराश – खराश के कपडे पहनना शुरु कर दिये। पहले मैं ढीले ढाले पहनती थी।
मैं फिर से अपने ढर्रे पर उतर आई। बच्चे को तो क्रेच में डाल ही दिया था अब दिन भर नॉवलें पढती। टी वी देखती, तरह तरह की फिल्में देखती। लगता नई नई शादी हुई है। खाती पीती, वजन काफी बढ ग़या था।
एक दिन मोहल्ले की औरतें झुण्ड बना कर फिर नमूदार हुईं।
” तुम बडी मोटी हो रही हो? ”
” जी।”
” बस जरा ढंग के कपडे पहनो।”
” जी।”
” तुमको खूब खुश रखता है, बडा आराम और ठाठ दे रहा है।”
” जी।”
” बच्चे को क्रेच में नहीं डालना चाहिये, बर्बाद हो जाता है बच्चा।”
” जी।”
” तुम्हारा मियां बडे टूर कर रहा है।”
” जी।”
” तुम्हारी बेराह रवी बढ रही है। दिन भर ताला लटका कर गायब रहती हो?”
” जी।”
” चाय बनाओ।”
” हाँ भई जरूर।” वह सब पसर गईं।
मैं इन लोगों को जल्दी फुटाना चाहती थी, मेरे पास फायर फिल्म के दो टिकट थे।