वह एक सतरंगी गेंद थी। जो लंबे समय तक खिलौनों की अलमारी में बंद रही। जब इस सम्पन्न घर के बच्चे ने लड़खड़ा कर चलना शुरू किया तो वह नर्सरी के फर्श पर बिछे गुदगुदे कालीन पर लुढ़कती रही। कभी-कभी उसे बच्चे के बिस्तर में टैडी बियर और बनी रैबिट के साथ सोने का मौका भी मिला। नर्सरी, जहां ढेर सारे महंगे-मंहगे खिलौने थे, पटरियों पर चलने वाली रेल, बोलने वाली गुड़िया, कूदने वाला बंदर था। यहाँ सुंदर चित्रों से सजी दीवारें, नेट के सुंदर, सफेद झीने परदों वाली खिड़कियाँ थीं। एक नीली बुकशेल्फ में चित्रों वाली किताबें भी थीं। बच्चे की किलकारियाँ थीं, खेल थे, रोना-गाना था। स्वादिष्ट बिस्किट – केक – चॉकलेट्स से भरे जार थे। सोने के समय से जरा पहले आने वाली बच्चे की दादी थीं, जो नित नए संसारों की कहानियाँ सुनाती थीं। बच्चे की देखभाल करने वाली आदिवासी ‘नैनी’ थी। जिसे हिदायत थी कि वह नर्सरी में आने से पहले गरम पानी से शावर ले। बच्चे की बॉटल और सिपर कीटाणु रहित करने के लिए उबलते पानी का इस्तेमाल करे। जमीन पर गिरे खिलौने को साबुन और गुनगुने पानी से धोकर ही बच्चे को खेलने दे। पहले गेंद को यह नहाना भला लगा, क्योंकि अब बच्चे के साथ वह बगीचे में जाती थी। नरम घास पर लुढ़कती-फुदकती थी। सुगंधित फूलों की क्यारियों में जा गिरती। कभी अनार के पेड़ में जा अटकती। उसे दर्जनों खिलौनों भरी नर्सरी में बच्चे का पसंदीदा खिलौना होने पर नाज़ था। मगर बार-बार धोए जाने पर गेंद के रंग भी हल्के होने लगे, वह अपने उछलने की आदत के कारण बच्चे के मन में स्थायी जगह बना चुकी थी।
उस रोज बंगले में एक दावत थी। बंगले को लड़ियों से सजाया गया था। चारों तरफ़ फैला हरी कार्पेट ग्रास का लॉन और क्यारियों में सुरूचिपूर्ण ढंग से लगे फूलों के पौधे, लाल कवेलुओं की छतें और टीक की रेलिंग और मार्बल से बनी सीढ़ियाँ, एक कोने मे लगा नक्काशी किया झूला किसी पुरानी यूरोपियन पेंटिंग की तरह दिख रहे थे। मि.घोष जो बच्चे के पापा थे, सूट पहन कर अपने मेहमानों का स्वागत कर रहे थे, मिसिज़ घोष तो किसी रानी की तरह मालूम होती थीं। बच्चा गेंद को अपने साथ बाहर ले आया कि अपनी सबसे प्यारे खिलौने से अपने साथियों के साथ खेलेगा। मगर दूसरे बच्चों ने रंग उडी गेंद को देख कर मुंह बिचका दिया। बच्चा देर तक गेंद हाथों में लिए रहा फिर उसने धीरे से एक मेज के नीचे सरका दी और बाकी बच्चों के साथ खेल में मगन हो गया। गेंद ने पहली बार इतनी बड़ी दावत देखी थी, निश्चित ही ऐसी गहमा-गहमी पहले न हुई होगी।
शाम ढली और अचानक पश्चिमी आकाश में शुक्र-तारा अपनी पूरी ख़ूबसूरती से झिलमिला उठा । चायबागान के संथाल स्त्री-पुरुषों की एक टोली अपनी परंपरागत पोशाक और वाद्ययंत्रो के वहाँ साथ आ पंहुची और नाच शुरू हुआ। पहले धीमा, लयबद्ध लहरों की तरह उठता-गिरता फिर तेज़ और हवा-सा सरसराता। गेंद मेज से कुछ बाहर निकल आई। नाचने वालों के चेहरे इन बड़े और सम्पन्न लोगों के आगे सहम कर मशीनी ढंग से मुस्कुरा रहे थे। नाच के बाद उन सबने दूर अलग पंडाल में खाना खाया और चले गए। गेंद को बच्चा वहीं भूल कर नींद में डूब गया और नैनी की गोद में अंदर भेज दिया गया। बाकी बच्चे भी बुद्धू बक्से के आगे कार्टून देखने चले गए।
पार्टी को देर तक चलना था। कुछ लोग डांस फ्लोर पर थिरकने लगे, कुछ खाने की टेबल की तरफ बढ़ गए। कोई मेहमान बार के पास खड़ा – धीमे स्वर में पास खड़े किसी कर्नल से कह रहा था।
“इनके रहने का अंदाज तो देखो। टैनिस कोर्ट, स्विमिंग पूल वाला आलीशान बंगला। नौकरों की फौज और तो और नौकरों के मैनेरिज्म में कालोनियल अनुशासन और अंदाज देखिए साहब। लोग गलत नहीं कहते कि चाय बागान के मैनेजर यहाँ के अघोषित सम्राट होते हैं। मालिक कोलकता ,मुम्बई जैसे शहरों मे बैठे होते हैं। वे यहाँ नहीं आना चाहते, कभी आतंकवाद तो कभी कोरोना…. सो जब तक मैनेजर फ़ायदा पहुँचा रहे है, वो वहाँ बेफ़िक्री से बैठे हैं। सिर्फ ज़्यादा – कम होने पर ही उनकी नज़रें टेढ़ी होती हैं। वरना उनका काम कोलकता में चाय – नीलामी पर नज़र रखने का होता है।“
“अपना साम्राज्य दिखाने के लिए ही ये हम जैसे लोगों को दावतें देते रहते हैं।“ कर्नल संधु ने पहलू बदलते हुए मुस्कुरा कर कहा था।
“सही कहते हैं कर्नल साहब, हम फॉरेस्ट वाले भी तो इनके इस साम्राज्य में प्यादे भर हैं। देखते नहीं जंगल का कितना हिस्सा चाया बागानों के रकबे को बढ़ाने में चला जाता है। नियम सब ताक पर धरे रह जाते हैं।“
“आप कुछ कीजिए….”
“कुछ करने वाले यहाँ से दूर भेज दिए जाते हैं। डुआर्स का यह इलाका मेरा घर है कर्नल साहब, कभी ये जंगल इतने घने थे कि मुझे याद है सत्तर के दशक में एरफोर्स का एक मिग-21 क्रेश होकर इधर गिरा था तो महीनों नहीं मिला था। पायलट को जंगल से पैदल निकलने में तीन हफ्ते लगे थे। उनके लोग उसे मरा हुआ समझ चुके थे। जंगल तो अब क्या बचे अब तो बस ये हरा समुद्र है चाय का। चाहता हूँ बच्चे स्कूल में हैं तब तक अपने घर के पास रह लूँ।“
बच्चों से खाली हो गई बड़ों की दुनिया में गेंद अकेले पड़ी ऊबने लगी। कुछ देर बाद बड़े भी चले गए। कुछ नौकर पार्टी के बाद का बिखराव समेटते रहे। फिर एकदम सन्नाटा हो गया। वह रात भर ओस में खुले आसमान देखते हुए हवा के साथ लुढ़कती-भटकती रही। उस दिन उसे पता चला कि उसके आस-पास कितना बड़ा संसार है। ऊपर एक विशालकाय गेंद-सा ही चाँद है और जूही के फूलों जैसे खिलते सितारे हैं। वह जहां रह रही है, वह एक विशाल चाय बागान का एक बंगला है। वह टकटकी लगाए आसमान को देखती रही। आधी रात बीती होगी कि नैनी के साथ रोता हुआ बच्चा नंगे पैर ही गेंद खोजने आ गया था, पीछे-पीछे उसकी मम्मी नाइट गाउन में दौड़ी आ रही थीं।
“रघु ! रघु बाबा ! क्या हुआ?”
“मेली बॉल मम्मा!”
“नैनी, उसे पकड़े रखो। घास में लीचेज़ हो सकती हैं। इसकी बॉल … शायद वहाँ है, मैं लाती हूँ…” अब तक जब भी वे नर्सरी में आईं गेंद अकसर बिस्तर या पालने के नीचे पड़ी होती थी या अलमारी में बंद होती। आज वे उस पर झुकीं, उसे उठाया और अपने चेहरे के पास लाईं तो गेंद को उनमें से आती ताज़ा फूलों की महक भली लगी। मगर यह क्या, वे तो चीख पड़ीं ….
“छि: कितनी पुरानी गेंद है यह, इसके रंग निकल रहे हैं। प्लास्टिक में दरारें आने लगी हैं। मेरा बेटा इससे खेलेगा?” गेंद का दिल टूटता उससे पहले ही वह उठा कर उस विशाल बंगले के बाहर फेंक दी गई।
“रोने की क्या बात है? तुम्हें नई लैदर कवर वाली बढ़िया बॉल ला देंगे। लाल और चमकती हुई। अब तुम बड़े हो गए हो न! जल्दी ही टैनिस खेलोगे…चलो आओ आज मेरे बेडरूम में सो जाओ।“ बच्चा भीतर जाने तक रोता रहा।
“मम्मा ! मुझे वही बॉल चाहिए थी।“
अपमान से आहत और बच्चे की रुलाई से व्यथित गेंद पहले तो बंगले से लगी एक पगडंडी पर अनमनी पड़ी रही फिर सरक कर ढलान की तरफ जा रुकी। ढलान के एकदम नीचे जो मोटी धारा बहती है वह तोरसा है, उधर पूरब की तरफ ऊपर हैं भूटान के पहाड़ जिन्हें लोग ‘क्लाउड फैक्ट्री’ कहते हैं। एकदम सही कहते हैं, वह लोअर हिमालयन रेंज है, जहां दिन रात बनते बादल यहाँ घाटी में उगने वाली चाय के लिए नमी बनाए रखते हैं। गेंद नदी की कलकल साफ सुन पा रही थी। गेंद की सतह हवा के स्पर्श महसूस कर रही थी। उसने गहरी सांस ली कि आज नैनी, नर्सरी साफ रखने के बहाने उसे झपट कर अलमारी में पड़े खिलौनों के ढ़ेर पर नहीं पटक सकेगी। जहां रात भर सांस घुटती है और दूसरे खिलौने एक दुष्ट चुहिया के उत्पात से डर कर भगदड़ मचाते हैं। भले वह एकदम अकेली है….लेकिन खुली हवा में है। बच्चे ने उसे प्यार किया और अब वह उसकी शुरुआती यादों में रहेगी – ‘मेरी पहली गेंद जो सतरंगी थी।‘ गेंद का मन डूबता उससे पहले उसने ऊपर देखा – आह! अपार विस्तार….ऊपर सितारे चमक रहे हैं और नीचे घाटी में ….. अरे! वहाँ भी सितारे? ये तो उड़ रहे हैं…क्या यही बच्चे की दादी की सुनाई कहानी के जुगनू हैं? जो अपनी दुम पर लालटेन बांधे चलते हैं? गेंद थकी हुई थी वह दृश्य देखते-देखते एक पत्थर पर जा टिकी।
पहाड़ियों से झाँकते सूरज की पहली किरण और एक खुशबू ने उसे जगाया। वह चाय पर फूल आने का मौसम था जिनकी मादक और तुर्श महक और नमी से हवा कुछ भारी-भारी थी। पेड़ों में फंसे झीने कोहरे के टुकड़े एक जादू जागा रहे थे। पूरा माहौल पंछियों के कलरव से गूंज रहा था। “यह आस-पास की दुनिया को आँखें खोल कर देखने का समय था, भटक कर जमीन नापने का।“ यह वाक्य बच्चे की दादी की सुनाई गुलिवर की कहानियों से याद रह गया गेंद को। गेंद ने चाय-बागान के मैनेजर ‘मि.घोष’ के बंगले पर उचटी-सी नजर डाली और लुढ़कने लगी।
‘विदा, रघु! फिर मिलेंगे!” गेंद ढलान पर लुढ़कती हुई, नदी की धार में खुदको गिरने से बचाती एक चट्टान पर कूद कर उस पार उछल गई। उस पार थे, अथाह हरे विस्तार, उनके बीच सरपट भागते चक्करदार रास्ते। झिलमिलाती तोरसा की धारा सूरज से लुकाछिपी खेलती-सी लग रही थी। ऊपर नीले आसमान में एक छोटा-सा काला बादल ठिठका खड़ा था, ठीक किसी स्कूली छोटे बच्चे-सा जो इस ख़ूबसूरत नज़ारे को देख स्कूल जाना भूल गया हो।
गेंद जहां आकर रुकी वह बेतरतीब घने पेड़ों से भरा जंगल का टुकड़ा था। रिजर्व फॉरेस्ट का एक छोर जो प्लांटेशन के कहर से छिप कर बच गया हो। ओह! यह क्या कहानियों वाला जंगल है? लेकिन यहाँ तो जीवन का मंगल दिख रहा है। वह कीटों के उत्सवों का दिन था, पतंगे पगलाए घूम रहे थे। प्यूपा से तितली बनने का सामूहिक मेटामॉरफ़ोसिस चल रहा था। ढेरों ढेर पीली तितलियों के समूह उड़े जा रहे थे। खौंखियाहटों, गुर्राहटों, चिंचियाहटों, चिंघाड़ों, दहाड़ों, मिमियाहटों, भिनभिनाहटों, रिरियाहटों, सरसराहटों से यह जंगल भरा था… ऐसे में गुनगुन, भिनभिन, चहचह, ट्वीटटुट, पियूपियू, हिस्स कौन कितनी सुन पाता है!
अब गेंद एक पगडंडी पर थी, जहां कुछ मटमैले से मनुष्य बैठ कर तामचीनी के बर्तनों में भोजन कर रहे थे। उनकी पीठ के बोझ बगल में ज़मीन पर रखे हुए थे। बंगले के मनुष्यों की तरह ये लोग भोजन को आनंद और आराम के साथ नहीं खा रहे थे। बस जल्दी-जल्दी निगल रहे थे। क्योंकि पेट तो किसी तरह भर जाएगा। उससे जरूरी है पीठ पर लदी टोकरी को अधिक से अधिक भर लेना।
‘पत्तियां, कुछ कम हुई हैं इस बार, कल दो घंटे ज्यादा काम करके भी बीस किलो ही हुआ मेरा।“ पसीना पौंछते हुए एक दुबली औरत कुछ मिमियाते हुए बगल वाली अधेड़ औरत से बोली, जो अपने घुटनों पर तेल लगा रही थी।
कुछ दूर पर कुछ युवा औरतें खिलखिला रही थीं। दोपहर के भोजन का समय समाप्त होते ही महिलाएँ झाड़ियों की पांतों के अंदर चली गईं, मशीन की गति से उन्होंने अपनी कलाईयों को तेजी से घुमाकर चाय की एक-एक झाड़ी से उसकी कोमल हरी ऊपरी तीन पत्तियाँ छीन लीं। वे काम के साथ सामूहिक तौर पर गुनगुना भी रही थीं। मधुमक्खियों की गुंजार से ही होते हैं – ये झुमुर गीत।
मैंने अपना नाम किताब में लिखवा दिया है
हे दुष्ट श्याम
मनीजर कहते हैं काम – काम
तनखा-बाबू कहता है, थोड़ा तो पास आओ,
बड़ा साहब, खाल उधेड़ने की धमकी देते हैं
हे जादूगर श्याम
तूने असम लाकर धोखा दिया
गेंद वहाँ उन लोगों के बीच बच्चों को खोजते हुए ठिठकी ही थी कि उसे लगा फिर से एक चिढ़ी हुई आँख उस पर आ टिकी है।
“ये सब क्या है? कितनी बार कहा है, बच्चे इधर नहीं आएंगे। नहीं आते तो फिर ये गंदे-संदे खिलौने यहाँ कैसे आते हैं?“ एक सूला टोप लगाए सफेद कमीज़ और भूरी कॉरड्रॉय पेंट पहने हुए आदमी ने कामगारों से चिल्ला कर कहा और उसे जोर की किक मारी और वह एक बाउंड्री के पार जा गिरी। तेजी से चलते दर्जनों हाथ एक पल को रुके, फिर चलने लगे मगर सामूहिक झुमुर गान से जागा उछाह बुझ गया।
गेंद जहां गिरी बाउंड्री पार, वहाँ कुछ आदमी काम कर रहे थे। उसने दूर घास में बैठे किसी व्यक्ति को कहते सुना – ‘भैया यहाँ नर्सरी की डूटी में थोड़ा आराम है। डेढ़ साल से हम चाय के पौधों में दवा का छिड़काव करते रहे हैं। मेरी हथेली की चमड़ी में अजीब तरह की बीमारी हो गई। उधार लेकर इलाज कराया।“
नर्सरी! यह सुन कर गेंद उत्साहित हो गई “वाह फिर तो बच्चे होंगे यहाँ।“
गेंद इधर लुढ़की-उधर लुढ़की। एक बड़ा-सा अहाता था। जहां एक हरा तंबू तना था, उसके नीचे प्लास्टिक बैग्स में हजारों छोटे-छोटे हरे पौधे थे। जो अपनी-अपनी नन्ही पत्तियों जैसे नन्हे हाथ निकाल आकाश में फैला रहे थे। एक नीले-सफेद चंदोवे के नीचे दो सौ के करीब और पौधे थे, जो कुछ कुम्हलाए से थे, कुछ सूख कर लटक गए थे। इनकी कुछ अलग ही किस्म से सार-संभाल हो रही थी। हरे तंबू के नीचे बीज से और यहीं की बेहतरीन झाड़ियों से निकाली कटिंग से नए पौधे बनाए जा रहे थे। नीले एनक्लोजर में तापमान और नमी को निर्धारित कर चीन से आयातित छोटी पत्ती वाली चाय और श्रीलंका के खास खुशबू वाली चाय के पौधों को रखा गया था। नीले एप्रन पहने कुछ युवक इन पौधों को फुहार से पानी और नाप-नाप कर खाद दे रहे थे।
वहाँ खड़ा एक सांवला हॉर्टिकल्चरिस्ट असद कुरैशी ‘बीम सन हैट’ लगाए और सफेद बुर्राक टी-शर्ट – शॉर्ट्स पहने उन युवकों से कह रहा था – “बड़ा ही अजीब मिज़ाज होता है चाय के पौधों का। इन्हें तेज़ धूप भी चाहिये, छाया भी, नमी भी… ढेर सी बारिश भी उस पर तुर्रा यह कि धरती पर, जड़ में पानी जमना नहीं चाहिये, उस पर नमी भरा ये अजीब-सा वातावरण फफूंद और कीड़ों की आवभगत को तैयार रहता है। जिसे क़ाबू में रखने के कैमिकल्स का छिड़काव…. मैं जब शुरू में आया तो ये सब देख-सुन कर बदन में झुरझुरी आ गयी थी कि बाप रे! तो ये है हकीकत हम हिंदुस्तानियों के प्रिय पेय की ।“
गेंद निराश हुई कि यह भी कोई नर्सरी हुई जहां बच्चे ही न हों! बस ग्रो बैग्स में मिट्टी में धँसे ये पौधे। जिनको आस-पास के इलाकों के जंगल काट कर लगाया जाएगा। गेंद का मन हुआ फिर से खुले जंगल में निकल चले। मगर इतनी बाधाएं थीं बीच में, बोरियाँ, पाइप्स, मिट्टी के ढेर और फिर बड़ा सा गेट। काश फिर से कोई उसे एक किक लगाए या उछाल दे। तभी पास लगे सिल्वर ओक के पेड़ से एक गोल्डन लंगूर उतरा उसने गेंद को उठाया और लेकर पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ सबसे ऊंची टहनी पर ले जाकर सूंघा, परखा, चखने की कोशिश में कडक प्लास्टिक का अजीब-सा स्वाद आया तो अपनी मेहनत जाया हो जाने की खिसियाहट में पहले वह खौंखियाआ फिर उसे पूरे जोर से फेंका गेंद हवा में तैर कर जब धरती पर आई तो वह चायबागान के बीचों-बीच वहाँ गिरी जहां कवक और फफूंद की हरी-नीली रपटन थी। मोटे तनों वाली चाय की झाड़ियाँ पास-पास लगी थीं। छोटे छोटे मकरंद से भरे चाय के सफ़ेद फूल खूब खिले थे। भले वे कितना ही पत्तियों में छुप जाएं पर मधुमक्खियों की तेज़ नज़रों से नहीं बच पाते। मधुमक्खियाँ इनके तुर्श रस की दावत उड़ाने मे मग्न थीं, इनकी गुंजार इतनी सघन थी कि कुछ और सुनाई ही न दे। वहाँ रेंग रहे कुछ घोंघे गेंद को हैरत से देखने लगे। जब वह हिली न डुली तब रेंग कर पास आये और महज कौतुक के लिए उस पर चढ़ने की कोशिश में रपट कर रह गए। गेंद पर छोड़ गए लसलसी रेखा। गेंद वहाँ से भागी।
कुछ दूर पर उसे घिसी चप्पलों वाले कई जोड़ा पैर दिखे और ऊपर झाड़ पर जल्दी-जल्दी चलते हाथ। चाय की ताज़ा पत्तियां तोड़ते हुए। ये चाय बागान की स्थायी कामगार आदिवासी स्त्रियाँ थीं, कोई संथाल, कोई उरांव, कोई गोंड, मुंडा, भूमिज। जिनकी पाँच-छ: पीढ़ियाँ इन बागानों में जन्मी, खपीं और मर गयीं। क्योंकि इनके हाथ पारंगत थे, चाय की ढाई पात तोड़ने में, ढाई यानि एक अधखुली पत्ती और दो खुली हुई ताज़ा पत्तियां। गेंद उन मेहनतकश पैरों के पास पड़ी रही। वे पैर धूल धूसरित थे मगर उनमें गरम लहू बहता है यह बात जौंके ज्यादा अच्छी तरह जानती थीं, बजाय मालिकों और मनीजर साहबों के। वे उतना ही खून चूसती थीं जितने में उनका पेट भर जाता। फिर बिना अहसास दिलाए टप्प से गिर जातीं। गेंद ने तभी एक काली रस्सी सरसराती देखी जिसमें पीले घेरे बने थे। वह उन पैरों से लगभग सटते हुए गुजर गई। दूर कोई आदमी चीखा – ‘संभल कर ! इधर एक करैत सांप दिखा है। सब पैर थपथपाएं जमीन पर।‘ कई जोड़ी निस्पंद आखों ने आवाज की दिशा में देखा और हाथ जरा रुक कर फिर काम में लग गए। विरासत में मिला ये डर अब आदत बन गया है। सांप क्या तेंदुआ तक चला आता है। बस्तियों और बाजार हाट में हाथियों का उपद्रव भी आम बात है।
गेंद चाय के झाड़ों की भूलभुलैया में तब तक फंसी रही जब तक कि वह दौड़-दौड़ कर थक कर, छुप कर चाय की झाड़ियों में बैठे चीतल के छौने से न जा टकराई। छौना अचकचाया और कुलांचे मार कर भागा गेंद उसके पैरों से उछाल खाकर, भूलभुलैया से निकल कर एक समतल जगह पर जा गिरी। वहाँ कुछ मजदूर पीठ पर सिलिन्डर और पंप बांधकर खुले मुंह, बिना ग्लव्स, बिना गॉगल पहने कीटनाशक तरल बरत रहे थे। बरतना क्या चाय की एक-एक पत्ती को कीटनाशक की बरसात से नहला रहे थे। भले इस हिस्से से पत्तियां एक अंतराल बाद तोड़ी जाएंगी। लेकिन सारे वातावरण में एक कसैली रसायनिक गंध फैली हुई थी। कच्ची जगह पर घोंघे तो घोंघे, कुछ चिड़ियाँ मरी पड़ी थीं। गेंद तक को घुटी-घुटी लगी यहाँ की हवा। वह सरकती रही। कुछ दूर पर एक पीली-सी खंडहर इमारत थी। वहाँ कुछ आदिवासी स्त्रियाँ खड़ी थीं। कुछ ने अपनी पीठ पर बच्चे बांध रखे थे। कुछ पेड़ के नीचे बैठ अपने बच्चों को दूध पिला रही थीं।
इस बिना छत वाली बोसीदा, ब्रिटिश समय में बनी यह इमारत किसी खंडहर से कम नहीं थी। किसी भी समय दीवारें टूट सकती हैं और पूरा झूला-घर कब्रिस्तान में तब्दील हो सकता था। ‘मधुपुर टी एस्टेट नर्सरी’। गेंद को और क्या चाहिए बच्चे! गेंद ने खुशी से दो टप्पे खाए… जा गिरी दूध पिला रही महिला के पास। उसने टखनों से ऊंची सूती साड़ी पहन रखी थी। जिसका रंग पहले पता नहीं क्या रहा होगा, अभी तो धूसर था। गेंद ने अपने कलेवर को देखा और मायूस हो गई कि जब वह नई थी तो उसके रंग भी कितने चमकीले थे। अब वह मटमैली प्लास्टिक की लुढ़कती कोई चीज भर है। बच्चे के दूध पीने की चक-चक सुनाई दे रही थी। उसने गौर से उस महिला को देखा, वह भले ही चमकीले-साफ, रंगीन कपड़े नहीं पहने थी, चेहरे पर कुछ चुपड़ा नहीं था, उसने बाल भी ठीक से नहीं सँवारे थे। मगर वह वास्तविक माँ थी, उसके चेहरे पर एक स्वार्गिक भाव था। वास्तविक ही सुंदर होता है। एक बार जब आप वास्तविक हो जाते हैं तो किसी हाल में बदसूरत नहीं हो सकते, सिवाय उन लोगों के जो यह मामूली बात नहीं समझते। गेंद को रघु की मम्मी याद आ गयी थी और उनकी उसके प्रति घृणा – कितनी पुरानी रंग उड़ी गेंद!
इस माँ ने भी गेंद को देखा और खुश होकर मुस्कुरा दी। जब दूध पिला कर वह बच्चे को लेकर पालना-घर की तरफ चली तो उसने गेंद को भी ममता से उठा लिया और बच्चे के साथ-साथ उसे भी हौले से पालना-घर के खुरदुरे फर्श पर छोड़ दिया। वहाँ खेल रहे दस-बारह बच्चे जो चलना जानते थे उस पर झपटे और लड़ने लगे। वहाँ बच्चों को देखभाल करने के लिए जो लड़की नियुक्त थी, उसने सबसे गेंद ली, गेंद को प्यार से पौंछा, बच्चों को गोला बनाने को कहा और एक खेल सिखाया। गेंद को भी बहुत दिनों बाद आनंद आया था। बच्चों के कोमल हाथ उसमें एक पुलक और एक उछाल भर देते हैं। वह उन हाथों का रंग और धूल नहीं देखती।
छोटे और दुधमुँहे बच्चे अपनी अपनी माँ की साड़ियों से के बने बांस पर अटके झूलों में सोए चले जा रहे थे। जब थोड़े बड़े बच्चे खेल कर थक गए तो उनको खाना दिया गया। बांस के पत्तों पर भात और आलू का भुरता और दाल। फिर वे वहीं ताड़ के पत्तों की बनी चटाइयों पर सो गए। मच्छर उनकी कोमल त्वचाओं पर बैठे अपनी भूख मिटा रहे थे। उनको आदत थी, वे करवट लेते और फिर सो जाते। गेंद ने झपकी ली मगर उसकी नींद खुल गई। पालना-घर की इंचार्ज लड़की का एक दोस्त आया था, गेंद उनकी फुसफुसाहट भरी बातें सुनने लगी।
“यहाँ किसलिए आया?”
“तुझसे मिलने। जबसे तू यहाँ लगी है, मुझसे मिलने का टाइम नहीं निकालती।“
“कुछ काम-धंधे पर लग तब मिलेंगे….“
“सात सौ रुपए महीने के इस बेकार काम का घमंड कर रही? इन अधनंगे मजदूर बच्चों में दिन खपा देती।”
“बेकार क्या है? छोटे बच्चे तो बेचारे सोते रहते हैं। बड़े थोड़ा खेलते, थोड़ा सीखते हैं। मेरा भी टाइम पास हो जाता है और माँ को भी हाथ बंटा देती।“
“दिल्ली चलने का सोच न। मनोहर बता रहा, दस हजार महीने के, रहने का कमरा, खाना-कपड़े…काम क्या? खाना बनाना, पार्लर में हाथ बटाना, सेल्स गर्ल जैसा। मैं ड्रायवरी कर लूँगा। बागान का काम अब बेकार हो गया है। बूढ़े भूखे मर रहे हैं और जवान लोग भाग रहे। “
उसे याद आया सात महीने पहले, एक शाम, एक आदमी ने उसके घर का पीछा किया, जब वह जंगलों से जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करके वापस आ रही थी। उसने कई बार इस तीस-पैतीस साल के आदमी को अपने गाँव के आसपास घूमते देखा था, लेकिन उसने कभी उस पर अधिक ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उसने कभी उसे परेशान नहीं किया था। सितंबर की उस शाम, हल्की बूंदाबांदी के बीच, सुमिता ने उस आदमी को उसके गंभीर रूप से बीमार और बिस्तर पर पड़े पिता के पास आते देखा। उसने अपना नाम मनोहर बताया था। उन्होंने तुलु ओराँव से पूछा कि क्या वह अपनी बेटी को “शोहोर” (शहर) में जाकर काम करने देना चाहेंगे। तभी उसकी माँ को चलते-फिरते स्कूल वाली दीदी बात याद आ गई कि ‘लड़कियों को शोहोर ले जाकर बेच देते हैं और…..”
“मनोहर का तो नाम भी मत लेना… मधुपुर बागान की तीन लड़कियां गायब हैं, उनके माँ-बाप परेशान हैं। चल भाग यहाँ से मुझे अब तेरी कोई बकवास नहीं सुननी।“ गेंद कुछ परेशान हो गई। चुपचाप उस पालना-घर की केयरटेकर लड़की सुमिता के पैरों के पास पड़ी रही। वह खिड़की में कोहनी टिकाए कुछ सोच रही थी। शायद सुंदर गहरे हरे रंग के इन चाय के झाड़ों के नीचे की स्याह छाया के बारे में। एक सौ साठ साल लंबी विडंबना के बारे में जब उसकी परनानियों-परदादियों को अंदरूनी आदिवासी इलाकों से यहाँ लाया होगा, जहाँ उनका कोई नहीं था। जहाँ वे लगभग बंदी थे, जहाँ उन्हें जानबूझ कर इतने अभावों में रखा कि पुश्तें की पुश्तें अपने हाथों बस पत्तियां तोड़ें और इन्हीं हाथों से चार निवाले निगल कर, यही हाथ सरहाने लगा कर फर्श पर सो जाएं। लड़की अपनी सोच से बाहर निकली जब एक कीटनाशक स्प्रे करने वाला मजदूर पालना-घर में आया अपनी बच्ची को लेने।
“सूरज भैया, दवा से आपके हाथ महक रहे हैं, इनको साबुन से धो लो तब ही उठाना चन्दा को। बिन माँ की बच्ची है, आप यह स्प्रे का काम छोड़ दो…खतरनाक है।“
“सुमी कितना सोचेंगे? यहाँ आकर कौन इस से बचता है? उठा न चन्दा को। इसे घर छोड़ आऊँ, इसकी दादी आ गई है।“
पिता के पुकारने पर चन्दा आँख मल कर उठी। सांवला गोल चेहरे पर बड़ी-बड़ी काली आँखें, दूधिया हंसी और घुँघराले बालों का गुच्छा माथे पर। लड़की को चन्दा पर विशेष ममता थी। उसने गेंद अपने पाँवों के पास से उठा कर चन्दा को दे दी। वह जानती थी इन बच्चों के लिए खिलौने कितनी दूर की चीज हैं। चन्दा खिलखिलाई और गेंद को छाती से लगा कर अपने पिता के साथ चल दी। गेंद ने सायकिल की सवारी की। गेंद अब काली दीवारों वाली झोंपड़ी में थी। जहां गुदड़ियों का बिस्तर था। बाहर मुर्गियाँ थीं। कटहल के गाछ थे। चन्दा की पैरों की पायल की रूनझुन थी। दो बरस पहले जब चन्दा के जन्म के कुछ महीनों बाद ही सूरज की पत्नी लीला एक अनजान बीमारी से चल बसी थी। मजदूर लोग कहते थे नन्हे बच्चों की महक से तेंदुए बौरा जाते हैं। तेंदुए के डर से वह बच्ची को अकेले कभी न छोड़ता था। या तो अपने साथ या फिर पालना-घर।
आज से बस्ती में दो दिन का कोई आदिवासी उत्सव था। फिर शाम ढली, फिर से शुक्र तारा उगा और ढम-ढम-ढिम-ढिम्म माँदल बज उठा था। नृत्य करने को उत्सुक स्त्री-पुरुष आज अपने उल्लास के लिए नाचने उठे थे। गेंद आज चन्दा की गोद में थी, बाकी बच्चे उसे छूकर देखना चाह रहे थे। मगर चन्दा ने फ्रॉक की झोली बना कर उसे दुबका लिया था। वहीं से गेंद ने देखा आज नर्तकियों और नर्तकों की टोली के चेहरे ख़ुशी से दमक रहे थे। नृत्य के घेर-घुमेर तन की थकान उतार देते हैं और मन को पंख सा हल्का कर देते हैं। फिर उन पर लगी चोटें और दर्द महसूस ही नहीं होते। जब देर रात तक अपना उत्सव मना कर पूरी बस्ती सोने चली गई। लौटते हुए सूरज के कंधे पर बेसुध चन्दा सो गई और नींद में हाथ ढीले हुए और गेंद घर के बाहर केलों के गाछ के पास गिर पड़ी। गेंद फिर खुले आसमान के नीचे थी। उसने एक दिन में जान लिया था कि चाय बागानों के हरे समुद्र में एक नहीं दो दुनियाँ बसती हैं और तीन नर्सरियाँ। तीसरी नर्सरी के बच्चों का वजूद चाय के पौधों से भी नीचे है। तभी सूरज बाहर आया उसने रस्सी से बच्ची के सूखते कपड़े उतार कर अंदर लिए और साथ ही गेंद को भी उठा कर भीतर ले आया। गेंद अब चन्दा के कोमल हाथों के घेरे में सुरक्षित थी, चन्दा पिता के।
यह तेंदुओं के बाहर आने का समय था।