क्यूँ ख़डी थी मैं वहाँ? क्या कर रही थी उस चूना-माटी-पत्थरों के मलबे से अटे पड़े मैदान के बीच? 

मेरी कोहनियों को हरा रंग देने वाली काई जमी मुंडेर या पीठ से सटी जाली का कोई टुकड़ा, पीली दीवार की झरती कोई परत , मेरी उत्कन्ठा थामे बैठा पीपल का एक पत्ता, खिड़की का खुलता बंद होता पल्ला,  या हवा में तैरता गंदी गली का भभका, किसी पत्थर से लिपटी इत्र की महक या दबा कुचला कोई फूल या फिर उसके पास छूट गई मेरी कोई किताब!

क्या बचा था अब और क्या खोज रही थी मैं? व्यस्तताओं के जाल में उलझी… वक़्त के हाथ से फिसल कर टूटे पारे सी इधर उधर बिखरी स्मृतियाँ…

या फिर मेट्रिक्स के खुले कोष्ठक!

ठहरी-ठहरी नजरें फिसल रहीं थीं, बुलडोजर के नीचे कहीं पाताल में धंसे नरक तक और पत्थरों के ढेर के ऊपरी सिरे पर बैठे नानी के गुस्से पर।

सही-सही उस जगह का अंदाज लगा पाना भी मुश्किल था लेकिन स्मृतियों के बिखरे टुकड़े तो हर जगह दबे, बाहर निकलने को हाथ पैर मार रहे थे। खुली हवा में सांस लेने को आतुर… अधूरी छूटी किसी कहानी के पूरा हो जाने की आस में। मानने से इंकार करते हुए कि कहानियाँ पूरा होना नहीं जानतीं। जानतीं हैं सिर्फ शुरू  होना।

 इस कहानी की शुरुआत उस रोज हुई जिस रोज मेरी कच्ची अमिया सी उम्र की पीठ को, दो आँखों की थोड़ी सहमी सी नजरों की गर्माहट ने स्पर्श किया। पीठ को इसलिए कि जिस ओर मेरी पीठ थी उस ओर देखने की सख्त मनाही थी। तीन मंजिली हवेली “कृष्ण भवन” की छत की जिस पत्थर की जाली से मैं पीठ टिका कर किताब पढ़ती थी, ठीक उसी के पीछे वो पीली दीवार वाला नरक था, जिसकी छोटी खिड़की से दिसंबर की गुनगुनी धूप से हाथ मिलाती वो गर्माहट आती मुझे महसूस हुई थी। उस ओर पीठ करने का एक कारण और भी था, दोनो दीवारों के बीच की गन्दी पतली गली में सड़ते कचरे का भभका, जो जब-तब सर उठाए छतों खिड़कियों की तलाश में निकल पड़ता और जहाँ अवसर हाथ लगा वहीँ घुस जाता। उसी गन्दी गली को लाँघ कर आती गर्माहट ने सख्त मनाही वाली नानी की ताकीद को नजरअंदाज करने पर मजबूर किया। तो मैं मानती हूँ कि दोष मेरा नहीं, उन नजरों का था या फिर उनकी गर्माहट का। वैसे भी दोष किसी और के मत्थे मढ़ देने की कला जानना भी एक कला ही है। तो मैं अपनी इस कला पर मुग्ध होती हुई पीली दीवार वाले नरक की उस छोटी सी खिड़की की ओर आकर्षित हो ही गई, बल्कि कर ली गई। स्वर्ग का आकर्षण तो सुना-पढ़ा था लेकिन नरक की ओर आकर्षित होना… वो भी उस उम्र में… मेरे लिए अचंभा था। पर ये अचंभा घटित हो गया था, जिसे अघटित बनाना मुझे नहीं आता था। माधू को भी नहीं। उसे सिर्फ पतंगे उड़ाना आता था और चूंकि नानी उसे सौ साल पुरानी, दरारें पड़ चुकी, काई से चिकनी हुई मुंडेरों वाली छत पर अकेले जाने की इजाजत नहीं देती थी तो मुझे उसके साथ भेजा जाता था। शुरूआत में तो उस वीरान उजाड़ सी छत पर माधू के साथ आना मेरी मजबूरी थी लेकिन जिस दिन मजबूरी स्वीकार्य हुई, आदत में तब्दील होती गई और जब आदत में मजा आने लगा तो मैं मजबूरी की तलाश में रहने लगी। 

असल में मेरा कच्ची अमिया सी उम्र वाला चित्रकथाएं और छुटपुट कहानी किस्सों की किताबें पढ़ने का शौक पीछे छूट रहा था और पहली बार तनु ने मुझे एक ऐसी किताब पकड़ाई थी जिसे पढ़ कर कच्ची अमिया में रस पड़ने लगा था। दिन-ब-दिन मीठा होता रस। किताब का नाम था “चौदह फेरे “। तो चित्रकथाओं के पुलिंदे के बीच किताब किसी प्रेमी की तरह दबा-छिपा कर पुलकते मन के साथ छत पर ले जाती। किताब छिपाना मेरी मजबूरी थी, वो इसलिए कि चित्रकथाओं तक तो ठीक , मगर “बड़ों वाली किताबें” पढ़ने की सख्त मनाही थी।

मुझे लगता है इस “सख्त मनाही” में मोहक गन्ध वाले मीठे बीज दबे होते हैं, जो सख़्ती का दबाव पड़ते रहने से ही फलते-फूलते हैं और इन्हीं पर आंनद नामक रसदार फल उग आते हैं। मैने उन फलों को चख लिया था। अब जीभ उनका जायका बार-बार लेना चाहती थी।

आनंद रस में जब मैं सिर ता पांव डूबी थी तभी पीठ पर वो गर्म स्पर्श महसूस हुआ। निगाहों का स्पर्श तन की परतों को भेद सीधे मन तक की राह बनाने की कला जानता है। सो मुझे खबर हो उससे पहले मेरी गर्दन उस ओर घूम गई। चौकोर खिड़की का एक पल्ला आहिस्ता से ऐसे खुला जैसे किसी रहस्यमय किले का दरवाजा। उसी के पीछे से निकली तिरछी गर्दन पर टिकी दो आँखें मेरी आँखों से आ टकराई। गर्दन के नीचे का हिस्सा खिड़की के दूसरे पल्ले के पीछे छिपा रहा। उसी पल मै उठ खड़ी हुई और दूसरे पल नरक की खिड़की के ठीक सामने थी। नानी से कई बार पूछा मैने और माधू ने भी “उसे नर्क क्यूं कहती हो।” 

” क्यूं कि उधर देखने से आँखें फूट जाती हैं।” नानी ने गुस्से से कहा था। नानी का इशारा किन आँखों की तरफ था ये तो बाद में समझ आया।

मै जिस उम्र में थी मेरी अक्ल पर समझ की एक हल्की सी झाई चढ़ने लगी थी लेकिन माधू की अक्ल पर अभी ऐसी कोई झाई नहीं उगी थी। मुझे उस ओर खड़ा देख चिल्ला ही पड़ा वह ” हौ.. आँखें फूट जाएंगी अब तेरी…”

मगर मैं तो उन दो आँखों वाली को पूरा देखना चाहती थी सो हाथ में पकड़ी चित्रकथा की किताबें आगे कर दीं। ठिठका हुआ पतला लम्बा, मुल्तानी मिट्टी के रंग का सा हाथ बाहर निकला तो सपाट पसरी धूप जगमग सजग हो गई। हाथ ने किताबें थामी तो घुमिल रंग की आंखों के नुकीले सुरमई कोने तक तर हो गए। नुकीली ठुड्डी के ऊपर पतले होठों ने खिंच कर त्रिकोण सा बना दिया।

“क्या नाम है!” मैने उसकी ठिठक के सिरे को पकड़ते हुए पूछा।

“सायबा” जैसे किसी बियाबान में एक घुंघरू खनका हो। अब उसने दूसरा पल्ला भी खोल दिया था, ऐसे जैसे मेहमान के लिए द्वार। ताजा जमी झिल्लीदार काई रंग का साटन कुर्ता जिस पर अभी-अभी धो कर आए कंधों पर छितराए बालों से पानी यूं टपक रहा था जैसे थमती बारिश की बूंदे लरजती काई पर। अचानक उसने हड़बड़ा कर खिड़की बंद कर ली, शायद पीछे से उठी किसी आवाज से।

उस रोज पहली बार उस नरक को भरपूर निगाहों से देखा। उस पूरी दीवार में गिनती की छोटी-छोटी तीन खिड़कियां थी जो इस ओर खुलती थी बाकी सपाट दीवार,जैसे कोई जेल। दीवार के ऊपर पत्थर में ही सफेद रंग से उभरा धुंधला सा कुछ लिखा था। आँखों को फोकस कर पढ़ा, “मुमताज़ महल”। जेहन की आँखें हिस्ट्री की किताब के पन्नों पर जा गड़ी। शाहजहां ने मुमताज को ’ मल्लिका ए जहां ’ और ’ मल्लिका उज जमानी ’ की उपाधी से नवाजा था। कहां सारे जहान की महारानी और कहां ये नानी का नरक! मगर ये तो पिछवाड़ा है फिर नाम इस ओर लिखे होने का क्या तुक! अभी मैं सोच ही रही थी कि झटके से दोनो पल्ले खुले_” आपकी किताबें कल वापस करती हूं।” कई घुंघरू एक साथ खनके। पल्ले तेजी से बंद हो गए और कुछ कहने को अधखुले मेरे होंठ भी।

उस रोज माधू को नानी को कुछ भी बताने पर फिर कभी उसके साथ छत पर न आने की धमकी दी जो कारगर सिद्ध हुई। उसी रात मम्मी ने बताया कि पापा कल आ रहे हैं और हम सवेरे घर चले जायेंगे। वैसे तो मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था, अपने घर रहूं या नानी के, लेकिन इस बार मेरा मन नानी के घर की ओर झुक रहा था या… राम जाने उस नरक की ओर! लेकिन जाना तो था ही सो हम चले गए।

पापा की टूर्स वाली जॉब के चलते हम महीने मे बीस दिन नानी  के रहते। सो एक हफ्ते बाद ही हम फिर नानी की हवेली में थे।

 लाडलीजी का खुर्रा के ठलान पर बनी नानी की तीन मंजिली हवेली तीन चौकों को समेटे अपनेआप में एक छोटी मोटी कॉलोनी ही थी, जिसकी निचली मंजिल क़े एक चौक में प्राइमरी स्कूल चलता तो दूसरे में दर्जी से लेकर सुनार, कोल्हापुरी चप्पलों से लेकर जूट की टोकरी और कई और तरह क़े सामान वाली दुकाने थीं। एक सबसे बाहरी चौक में अमरुद, सीताफल, जामुन, अनार लगे पेड़ों वाले छोटे से बगीचे के सामने पीतल क़ी मोटी सांकलों वाले झूले पर नानी क़े गोपाल अपने सखाओं और राधा संग विराजते। दूसरी मंजिल पर नाना और उनके छोटे भाई में बंटे अनगिनत कमरे। नाना क़े भाई जिन्हे हम काका कहते थे इत्र बनाने क़े शौक़ीन थे और उन्हीं क़े नए-नए प्रयोगों क़े चलते नाना का इत्र लगाने का शौक परवान चढ़ता चला गया। इस इत्र ने कई गुल खिलाए, जिनका मुझे समझ की परतें चढ़ने पर ही पता चला। तीसरी मंजिल दोनों मामा और काका क़े चार बेटों क़े लिए थी। मजे की बात ये कि उनमे से सिर्फ दो यहाँ रहते, एक मेरे बड़े मामा और दूसरे काका क़े सबसे छोटे बेटे। उन दिनों में खानदानी रईसों में विलायती स्टाइल बंगले बनाने क़े जूनून क़े पँख उगे ही थे सो बाकी सब बंगलों का रुख कर गए थे। हवेली क़े दोनों गोखों पर मोट्या हलवाई का कब्जा था। एक पर रस में डूबे गुलाबजामुन का कढ़ाह तो दूसरे पर बेसन की सेव और नुगरों का ढेर। गोखों क़े बाहर एक मालन चादर बिछा सवेरे से अपनी फूलमालाओं की दुकान सजा लेती, जो रात तक सजी रहती। इन्हीं गोखों को पार कर कुछ कदम आगे बढ़ने पर दाएं वो पतली गली थी जो जुबां पर तो ‘गंदी गली ‘ नाम लिए थी लेकिन न जाने कितनों की प्रिय गली थी। गली की नुक्कड़ से ही मेरी उत्कन्ठा ने कितनी ही बार नजरों पर बैठ गली में घुसपैठ की कोशिश की होगी लेकिन हर बार मालन या मोट्या हलवाई की बरजती आवाज़ ” चोखी कोनी वा जगह… अण्डीने आ जाओ बिटवा… ” मेरी नजरों को कचरे से अटी पड़ी उस गंदी गली से वापस मालन के सजे ताजे खूबसूरत फूलों तक लौटा लाती। 

 इत्र क़े साथ मिलीभगत कर इन गुलों ने जो गुल खिलाए वो जिस रोज समझ आए उसी रोज नानी का नरक क़े लिए गुस्सा भी समझ आया और समझ आया फ्रायड का मनोविश्लेषनात्मक लिबिड़ो सिद्धांत।

 किताबें पकड़ाते हुए एक मीठा उलाहना दिया था सायबा ने -” इतने दिन से कहाँ थीं! कितना इंतजार किया आपका। ” जैसे कोई बरसों पुराना परिचय हो।

 “घर चली गई थी।”

 “घर! क्या ये आपका घर नहीं!”

 “है तो! लेकिन नानी वाला। पापा आ गए थे तो जाना था।”

 उसकी आँखों की चमक कुछ बुझ सी गई। 

 “क्या हुआ?” मैने पूछा तो उदास हँसी क़े पीछे कुछ छिपाती सी बोली –

 ” नहीं! कुछ नहीं। “

 “कुछ तो है, बताओ न सायबा!” मेरा अपनत्व भरा आग्रह उसने स्वीकार किया। उसके होंठ थरथराए – “पापा…”

 “क्या हुआ पापा को….”

 “हम लोगों क़े पापा नहीं होते।” उसकी नजरें और गर्दन इस कदर झुक गई जैसे पापा न होने में सारी गलती उसी की हो।

 “ओह्ह!” मेरे मुँह से निकले इस शब्द क़े साथ उस दिन पीली दीवार वाले नरक क़ी एक परत झरी और मेरी समझ की परत पर चढ़ गईं।

नरक की खिड़की क़े फ्रेम में सजी किसी जीवंत तस्वीर सी सायबा और खुले गगन तले ठीक फ्रेम की सीध में मुंडेर पर कोहनियाँ टिकाए, नरक के कोनो तक में झाँक लेने को उत्कंठित मैं। ये उत्कन्ठा मेरे भीतर ठीक उसी वक़्त पैदा हो गई थी ज़ब पहली बार नरक की खिड़की के भीतर झांका था। पैदा हो कर बच्ची ही बनी रहे  वो उत्कन्ठा ही क्या। वो बढ़ती रही बांस के पेड़ सी। पीछे से आई जरा सी आहट पर सायबा तुरत खिड़की बंद कर देती, जो कभी दुबारा खुलती और कभी नहीं। खिड़की खुलने के इंतज़ार में मैं कुछ देर खिड़की के नीचे की दरार में उग आए पीपल , जिसकी शाखाएं हवा संग मिल खिड़की के निचले सिरे से जाली के भीतर झाँकताकी करतीं रहतीं, पर अपनी उत्कन्ठा टाँगे ख़डी रहती और फिर बुझे मन से किताब पढ़ने बैठ जाती।

किताब… और बुझे मन से! जो पहले कभी नहीं हुआ उन दिनों हो रहा था।

और भी बहुत कुछ था जो हो रहा था या फिर…  मेरे नोटिस में आने लगा था। जैसे मामा का इत्र और फूलों की मिलिजुली गंध लिए रात में देर से आना…   ” गाज गिरे इस रंडीखाने पे… पाताल में जा गिरे ये नरक…आँखें फूट गईं है तेरी… ” नानी क़े दाँतो ,जीभ, कंठ और आँखों में भिचते पिसते शब्द ….मामी का बंद कमरे में सुबकना, सवेरे नाना का मामा को दुनियादारी की अनगिनत बार दी गई तालीम का दोहराना और मामा का सब कुछ अनसुना कर बिलक्रीम से  बालों को सैट कर कानों में इत्र के फाहे दबा, लिबिड़ो सिद्धांत की डोर थामे बाहर निकल जाना। सारा दिन नानी का नाना क़े इत्र को मामा के दोष में शामिल कर कोसना। और एक सबसे बड़ी बात मम्मी का इन पचङो में निर्लिंप्त रहना। उनकी निरलिप्तता पर मुझे अचरज होता। लगता जैसे वो उनका घर है ही नहीं। सिर्फ पापा के न होने पर समय गुजारने की बेदामी सराय है। क्या सचमुच! या वे निर्लिंप्त होने का सिर्फ दिखावा करतीं थीं, किसी कारणवश!

जो भी हो, मेरे लिए सायबा का आकर्षण जस का तस बना रहा।

उस रोज मेरे हाथ में थमे उपन्यास कृष्णकली को देख सायबा मचल उठी थी-

” ये वाली किताब दो न दीदी! “

” अभी नहीं समझ पाओगी तुम” मैने टालना चाहा था।

” समझती हूँ सब। ” उसने नजरें झुका ली थीं। ” मौलवी आते है न हिंदी उर्दू की तालीम देने … वो… और भी बहुत कुछ समझा देते हैं…।” नजरें झुकाये किसी अपराधी की तरह ख़डी उस लड़की के ज़िस्म में एक अजनबी सी लहर उठी और शांत हो गई।  अचानक उसके भीतर से दूसरी ही सायबा निकल बाहर आई जैसे थिर पानी क़े बीच मचलती मछली की उछाल।

” ये खिड़की किन्नी सी है इसमें मेरी क्या खता!”  खाला कहती है मैं बड़ी हो रही हूँ और अब मुझे नाच और संगीत क़े साथ अदब, तहजीब और अदाएँ भी सीख लेनी चाहिए। वो मुझे सिखाती भी है… ऐसे… ” उसने आँखों की कोरों को तिरछा कर जिस कटाक्ष से मेरी ओर देखा मेरी हँसी फूट पड़ी।

” श.. शss कोई सुन लेगा ” उसने होठों पर ऊँगली रखते हुए इशारा किया।

” पता है न आपको! खिड़की खोलने की सख्त मनाही है। ” वो फुसफुसाई।

उफ़! ये सख्त मनाही….

” वैसे इस मनाही की वजह क्या है? ” पीली दीवार से परतें झर रही थीं और मेरी समझ पर चढ़ रहीं थीं।

बड़े इत्मीनान से गर्दन बाहर निकाल ऊपर झाँकती हुई बोली वो –

” ऊपर लिखा नाम देखा है न आपने! खाला कहती है हम रानियाँ हैं, पर्दादारी से ही हमारी शान है। “

” लेकिन ये नाम पीछे की दीवार पर क्यूँ लिखा है? “

” ये तो खाला से कभी पूछा ही नहीं मैने… हो सकता है सामने की दीवार पर भी लिखा हो!”

” तुम्हें नहीं पता? “

उसने ना में गर्दन हिलाई।

” अभी इतनी बड़ी नहीं हुई कि महल क़े उस हिस्से में जाने की इजाजत मिल सके।” उसका चेहरा फिर लटक गया।

” मेरे साथ चलोगी? ” बिना सोचे समझे पूछ बैठी मैं।

“कहाँ?” ‘कहाँ’ की आ की मात्रा पर उसका मुँह और धड़कन दोनों अटक गए थे।

“कहीं भी…”

अपनी पतली लम्बी अंगुलियों से मुँह ठाँपते  बोली थी वो –

” आप जानती नहीं न…इसीलिए बोल रही हो…खाला कहती है हमारे कमरों में बाहर निकलने वाले दरवाजे नहीं होते। ” जितनी सहजता से उसने ये बात कही उतनी ही मुझे असहज कर गई।

“खिड़की… वो तो बाहर खुलती है न!” मेरे मुँह से निकला।

वह कुछ समझे-अनसमझे से भाव से मुझे देखती रही फिर धीरे धीरे उसकी नजरें पीपल के पत्तों से टहनियों पर उतरती दरार में जा कर अटक गई।

” क्या देख रही हो? ” कुछ देर की चुप्पी के बाद धीरे से बोली “दरार।” मेरी नजरें भी चौड़ी होती दरार में जाकर फंस गई थीं।

” इस पर कितना दबाव रहा होगा न!” उसके होंठ थरथराए और मेरा ज़िस्म।

उस रोज़ सायबा मुझे खिड़की के कोष्ठक में बंद किसी द्विआयामी या फिर बहुअयामी आव्यूह ( मेट्रिक्स ) सरंचना सी लगी थी जिसके समीकरण हल हो जाना चाहते तो हैं मगर नहीं जानते कि A के नीचे लिख दिए गए मानदंड़ों 1-2 या m-n को कैसे भेदा जाए।

तब क्या मैं मिल्टन या केली हो जाना चाहती थी।

कुछ भी हो, समझ का एक बड़ा मेट्रिक्स बन चुका था जो एम्बेडेड ( अंत:स्थापित ) को कुरेद कुछ तो नया आकार ले ही रहा था, जिसकी जद में मैं भी आ चुकी थी।

बात बदलते हुए मैंने पूछा उससे –

“अच्छा ये बताओ ये दोनों खिड़कियां क्यूँ नहीं खुलतीं?” उसने गर्दन निकाल खिड़कियों की तरफ बेदम सी नजर फेंकते हुए कहा –

” वो उधर वाली तो सलीमा आपा की है। वो देख-सुन नहीं सकतीं… बेटी हुई है उनको। उनकी खिड़की पर अंदर ताला रहता है हमेशा और ये वाली बड़ी अम्मी की है। चाहें तो खोल सकतीं हैं, उन्हें मनाही नहीं, लेकिन नहीं खोलती। कहतीं हैं उनकी आँखें अँधेरे में ही खुलती हैं, आदत नहीं दिन का उजाला देखने की। पहले कभी कभी रात में खोल देती थीं लेकिन ज़ब से अस्थमा हुआ है बदबू बर्दाश्त नहीं होती। ” सायबा धीमे स्वर में बोल रही थी और मैं नरक के अनजाने दबे-छिपे कोनों से गुजर रही थी। उस दिन पहली बार मुमताज़ महल को मैंने भी मन ही मन नरक का दर्जा दे दिया था।

उन दिनों में सायबा हर चार पाँच दिन में एक किताब पूरी कर लिया करती। उसकी किताबें पढ़ने की लालसा दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। शिवानी,अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी,टैगौर के पात्रों से प्रेम होता जा रहा था उसे।

“तुम्हें समझ भी आती हैं ये सब या बस यूँ ही…”

” समझ आतीं हैं… खूब समझ आती हैं। ” उसकी आँखों और होठों के पतले किनारे फैल जाते। 

अँधेरे बियाबान में हरहराती लतापुष्पों की गंध सी सायबा के आकर्षण ने मुझे उन दिनों जकड़ लिया था। दो सरहदों के बीच नो मैंन्स लेंड बनी गंदी गली के भभके  का इंतजाम भी मैं कर चुकी थी। नाना की दराज से चुरा सबसे हल्की महक वाला गुलाब के इत्र का फाया, हलकी इसलिए कि नानी की नाक तक न पहुँच सके, अपने कान के खम में दबाए रखती और ज़ब ज़ब भभका मेरी नाक में घुसने की कोशिश करता, इत्र की दीवार ख़डी कर देती। एक दिन सायबा को ज़ब इत्र का फाया देना चाहा.

” ना! अभी नहीं। ” मेरे असमंजसपूर्ण चेहरे को देख बोली –

” खाला कहती है ज़ब मेरी तालीम पूरी हो जाएगी और मुझे महल के उस हिस्से में जाने की इजाज़त मिल जाएगी तब… तब उस रोज गुलाबजल और इत्र स्नान होगा मेरा। “

पीली दीवार की एक मोटी सी परत झररर से झर गई जिसे मैं अपनी समझ पर चढ़ने से रोक देना चाहती थी और रोक देना चाहती थी सायबा का गुलाबजल और इत्र स्नान।

मेरे भीतर की मछलियों की बेचैन हलचल ने थमने से मना कर दिया था। बोर्ड की परीक्षाएं खत्म हो चुकीं थी लेकिन मेरा मन और बुद्धि ऐसी परीक्षा के प्रश्न-उत्तर के खेल में उलझ चुके थे जिसमें सही गलत शब्द ही नदारद था , हाँ, डर जरूर था मगर फेल होने का नहीं, नानी को भनक हो जाने का।

उन दिनों मन्नो मासी की बेटी सुरु दीदी, जो मुंबई कॉलेज में पढ़ रही थी, एक सप्ताह के लिए आई हुई थीं। वे ज़ब भी आतीं तब हम या तो नानी के या उनके त्रिपोलिया आतिश मार्केट वाले घर पर साथ ही रहते। उनका बंबइया बेफिक्राना अंदाज मुझे खूब भाता। उनको पीली दीवार वाले नरक, सायबा और मैं क्या चाहती हूँ सब बताने पर उनकी गोल आँखें और गोल हो गईं –

” तू तो सच में बड़ी हो गई है रे अप्पू!”

” आप मेरी मदद करोगी न!… एक बार सिर्फ एक बार। “

“हम्म…करनी तो पड़ेगी।” उन्होंने अपने बॉब कट बालों वाली गोल मुंडी हिलाते हुए कहा था।

हमारी प्लानिंग पूरी हो चुकी थी और उसमें हमें माधू की मदद की भी जरूरत थी। माधू के लिए वो किसी एडवेंचर से कम नहीं था सो हमसे ज्यादा उत्साहित हो रहा था। उसका जोश मुझे डरा भी रहा था, कहीं झोंक ही झोंक में नानी के सामने कुछ उगल न दे।

उस रोज़ बादलों की एक झीनी झप्पी ने सूरज को समय से कुछ पहले ही सुला दिया था। नानी की लम्बी चौड़ी छत का उजाड़ सूनापन पहली बार अच्छा लग रहा था। सायबा की खिड़की बंद थी। मैंने एक कंकर दरवाज़े की ओर उछाला, खट की आवाज़ हुई और कुछ ही देर में खिड़की खुल गई। सुरु दी ने मेरी तरफ प्रशंसात्मक नजरें उछाली  और फिर उनकी नजरें सायबा से जा चिपकी। हल्की नीली बूंदे पश्चिम-रवि के सिंदूरी से मिल शहर के गुलाबी रंग के साथ-साथ पीले और हरे को लपेट पचरंगी साफा बुनने लगीं। सुरु दी से परिचय कराने के बाद सायबा से पूछा मैंने –

” मैं और माधू सुरु दी के घर जायेंगे। वो देख रही हो न ऊँची सी मीनार! ईसरलाट, वहीं हैं इनका घर। ” मैंने पश्चिम की ओर अंगुली से इशारा करते हुए कहा था। ” खूब मस्ती करेंगे। चलोगी हमारे साथ। “

मेरा इतना कहना था कि एक निश्चित आकार में अटके मेट्रिक्स के सारे समीकरण उलझ कर उसकी आँखों में आ डटे।

” लेकिन… कैसे…’ आँखों के साथ उसके होंठ भी उलझ गए थे।

” उसकी चिंता तुम मत करो, बस ये बताओ कि क्या सुबह चार बजे चल सकती हो? ” इस बार सुरु दी ने उसे आशव्सतिपूर्ण नजरों से सहलाते हुए पूछा। उलझे समीकरण फिर से पंक्ति में आ बैठे।

” ह… हाँ… रात भर थकने के बाद सुबह 8-9 बजे से पहले यहाँ कोई नहीं उठता, और वैसे भी ज़ब से मैं बड़ी होने लगी हूँ अम्मी ने रात में इधर आना ही छोड़ दिया, थक कर उधर ही सो जातीं हैं। “

” फिर ठीक है, पक्का रहा, हम सुबह चार बजे ही आएँगे, तुम तैयार रहना। ” सायबा ने अपने बालों की उलझी लट को खींच कान के पीछे दबाया और गर्दन सीधी कर बोली ” ठीक है “

” नींद तो खुल जाएगी न!” मैंने पूछा।

” आएगी ही नहीं। ” उसने इतनी अदा से इठला कर बोला कि हम सब हंस पड़े थे और वो होंठो पर अंगुली रख शsssशश करती रह गई।

मम्मी और नानी को हमने कह दिया था कि हम सवेरे जल्दी साईकल से सुरु दी के घर जाएंगे। सुरु दी का होना नानी के सारे सवालों को तहा देता था।

गुलाबी नगरी की वो गुलाबी सुबह और उसके महीन स्पर्श से लरजती-दमकती अचरज भरी सायबा की आँखे, जैसे बंद कोष्ठक अपने लिखित मानदंड़ों को भेदने का पता पा रहा हो।वक़्त की अनगिनत परतें भी मेरे भीतर से उस रात उन आँखों में बनते-बिगड़ते समीकरण मिटा नहीं पाई।

छत पर हमारे पहुँचने से पहले सायबा खिड़की का आधा पल्ला खोले इंतजार में मिली। नो मैंन्स लेंड को पार करने का जुगाड़ हमने कबाड़ में से लकड़ी का एक फंटा ढूंढ़ कर, कर लिया था। फंटे का एक सिरा खिड़की पर और दूसरा मुंडेर पर टिकाया गया। माधू की जिम्मेदारी उसे कस कर पकड़े रखने की थी। सुरु दी के कहने पर सायबा ने अपनी चुन्नी का एक सिरा कमर में बांधा और एक सुरु दी को पकड़ा दिया।

“डर तो नहीं लगेगा न सायबा।”

उसने मुस्कुराते हुए गर्दन ना में हिलाइ – “छलांग भी लगा सकती हूँ लाला की तरह, आप तो मेरे लिए उसकी माशूका से भी बढ़ कर हो।”

” अच्छा तो मिस सायबा पर शिवानी का नशा चढ़ गया है। ” मैंने हँसते हुए कहा था।

” कौन लाला? कौन शिवानी? “सुरु दी ने सवाल किया।

” जैसे आपका निकोलस स्पार्कस… बस वैसे ही। ” 

” अरे जल्दी करो यार… ” हमारी बातों से उकता, फंटा पकड़े माधू ने कहा।

निशांत के हल्के धुंधल्के में फंटे पर बैठ धीरे धीरे खिसकती सायबा ने ज़ब हरी मुंडेर को छुआ तो उसकी अंगुलियों की लरज सिर्फ मैंने ही नहीं, उसके तलवों तले के पाताल ने, सिर पर की असंख्य आकाशगंगाओं ने , दरार में धंसे पीपल ने और पीली दीवार की परतों में उभरे ‘मुमताज़ महल’ ने भी जरूर महसूस की होगी। कोख से बाहर आने वाली लरज… नीड से बाहर पहला पँख खोलने वाली लरज… सितार के पाँचवे पीतल तार की लरज… परमाणु सी कण-कण में फैल जाने वाली लरज…चैत्य और अचैत्य के मिलन वाली लरज।

हवेली के सूने पड़े दुकानों वाले चौक की सीढ़ियों से उतर हम बाहर निकले। सुरु दी ने सायबा को पीछे बैठाया और मैंने माधू को। जयपुर के आराध्य गोविन्द और ताड़केश्वर शिव के मंगला दर्शन कर लौटने वाले कुछेक पैदल लोगों के सिवा उस वक़्त सड़कों पर सिर्फ तर हवाएं पत्तों संग डोल रहीं थीं। बड़ी चौपड से त्रिपोलिया तक पहुँचे तो गुलाबी बादल सांवले हो झमाझम हो लिए और हम मस्ती में सराबोर। सायबा के लिए तो जैसे कोई कल्पनालोक खुल गया हो।

” अब तक तो आपकी दी किताबों से ही दुनिया को देखा था, आज पहली बार आँखों से देख रही हूँ। ” उसकी आँखों की बल्कि पूरे ज़िस्म की  लहर बारिश के पानी संग बह रही थी। 

सुरु दी के घर से जुड़ती हुई त्रिपोलिया की दुकानों की छतें थीं जो सीधी इसरलाट तक पहुँचती थीं। भीगते दौड़ते हम इसरलाट तक पहुँच गए थे। 

” इसकी सबसे ऊपरी सातवीं मंजिल पर बैठ राजा ईश्वरी सिंह सामने नाटाणी महल में अपनी प्रेमिका को निहारा करते थे। ” सुरु दी सुना रहीं थीं।

” वाओ! सो कूल…!” माधू के अंदाज से हमारे ठहाके की गूँज बारिश में घुल गई।

” जानता भी है प्रेमिका का मतलब!”

” क्या सुरु दी, इतना छोटा भी नहीं अब। “

“हम ऊपर नहीं जा सकते क्या?” सायबा ने पूछा।

” कुछ साल पहले तक तो खुला था लेकिन एक रोज़ किसी शराबी ने नशे में छलांग लगा दी नीचे, तब से बंद है। “

लकड़ी का बरसों पुराना दीमक लगा गल चुका दरवाजा हमारे सामने था।

” तोड़ दूं….। “माधू ऊपर जाने के जोश में था।

” खुद को ब्रूसली समझा है क्या? ” सुरु दी का इतना कहना था कि माधू ने अपनी लात का एक भरपूर वार दरवाज़े पर कर दिया और दरवाजा झटके के साथ जमीन पर चित्त। भीतर के अँधेरे में चमगादडों की भगदड़ मच गई। कुछ पल के लिए तो सुरु दी भी घबरा गईं कि कहीं गार्ड ने देख लिया तो गड़बड़ हो जाएगी। माधू पर गुस्सा करते हुए हमने किसी तरह उस टूटे दरवाज़े को टिकाया और वहाँ से भाग लिए।

शहर की गर्द को अपने में समेट बारिश बहा ले गई थी और धुले-धुले गुलाबी शहर ने पूरब से चढ़ती सुनहरी छाया को समेट दोरंगा साफा बाँध लिया था। साइकिल से शहर की गलियों पर फिसलते हम वापस लौट आए। सायबा को सही सलामत नो मेंस लेंड पार करा दी गई, बगैर किसी को खबर हुए।

आव्यूह सरंचना के अंत:स्थापन में घात लगाने के लिए दरार में बीज पड़ गया था।

सुरु दी मुंबई लौट गईं। पापा लम्बी छुट्टियों पर आए हुए थे। कुछ ही दिनों बाद पता चला कि मेरा मुंबई कॉलेज में एडमिशन हो गया है और तीन दिन बाद ही जाना है। मुंबई जाने की ख़ुशी के साथ साथ दिल में एक हुडक सी उठी। सायबा से मिलने की। लेकिन वक़्त तो भाग रहा था और मुझे उसके साथ ही ट्रेन पकड़नी थी।

वक़्त हम दोनों के सिरों पर से गुजरता हमें अपनी-अपनी राह धकेल रहा था। 

कुछ महीनों बाद ही खबर मिली कि नानी ने हवेली छोड़ शहर से बाहर बंगला खरीद लिया है और जल्द ही उसमे शिफ्ट हो जाएंगी। शायद नरक से पीछा छुड़ाने का यही उपाय समझ आया था उन्हें। मन किया कि उड़ कर वहाँ पहुँच जाऊँ और टिका दूँ कोहनियाँ फिर से उस काई वाली मुंडेर पर ठीक सायबा के सामने। कितना इंतजार किया होगा उसने मेरा। क्या पता खिड़की खोलती भी होगी या नहीं…या…क्या पता वो भी सामने वाले हिस्से में शिफ्ट हो गई हो। ये विचार एक लहर सा मेरी नस-नस को कंपा जाता।

मुंबई की बदहवास भागदौड़ और अपनी पढ़ाई की व्यस्तता के बीच धीरे-धीरे सायबा वक़्त की तहों में सिमटती चली गई लेकिन ज़ब-ज़ब जयपुर जाती वो तहें फड़फड़ा कर खुल जातीं और मैं उनमें सायबा को तलाशने लगती। नानी की हवेली बंद पड़ी थी और अब वहाँ जाने का कोई सबब नहीं था। जितने थोड़े समय के लिए आती उसमें न किसी से कुछ कह सकती थी न वहाँ जा सकती थी। सुरु दी पढ़ाई के लिए लंदन चली गईं थीं। कई बार मन में आया कि मामा की मदद लूँ लेकिन नानी के डर ने कुछ करने न दिया।

ज़ब ज़ब जयपुर आती … कुछ न कर पाने की टीस में ताज़ा तरल रक्त बहने लगता और मुंबई लौटते ही टीस पर व्यस्तता का फाहा रख जाता। व्यस्तताएं दुनिया भर में दबे प्रेम के अंखुआए बीजों को सहला कर दबाए रखना जितना बखूबी जानती हैं उतना ही टीसते घावों पर ठंडा फाहा रखना भी।

ज़ब क्लास में ‘नैतिकता के सिद्धांत’ में सार्वजनिक सामाजिक उत्तरदायित्व जैसे बिंदु आते मुझे मेरे भीतर से कांच चटकने की आवाजें आतीं… जिसकी किरचे पूरा दिन चुभती। मेरा पत्रकारिता का कोर्स पूरा हो गया था और एक दैनिक अख़बार में जॉब भी मिळ गई थी। मुझे मुंबई के अलग-अलग इलाकों में जाना होता। मैं लोगों से मिलती… बातचीत करती और रिपोर्ट तैयार करती। उस दिन मुझे जिस इलाके में भेजा गया वो एक छोटा रेड लाइट एरिया था। पीले रंग की कई सारी दीवारों वाला। मेरी समझ की परत पर चढ़ी पीली दीवार के मलबे पर जैसे किसी ने कुदाल चला दी और अचानक सारा झरा मलबा खड़ा हो अनगिनत दीवारों में बदल गया। बारिश के बाद की तीखी धूप से बनती बिगड़ती परछाईयां दीवारों पर नाच रहीं थीं। तंग सी गली में कदम रखा तो मालन और मोट्या हलवाई की आवाज़ गूंजी –

‘ चोखी कोनी वा जगह….अण्डीने आ जाओ बिटवा…’ भीतर उठी कंपकपि की लहर को ‘सख्त मनाही ‘ के दबाव से दबा देने की असफल कोशिश की।

मगर आज न पैर थमे न किसी खूबसूरत फूल या इत्र के ठेर की ओर नज़र लौटी । लौटने की जरूरत भी कहाँ थी… यहाँ तो सब कुछ गली के भीतर ही था। गली के दोनों ओर छोटी-छोटी दुकाने जिनमे रोजमर्रा के सामान…. चाय पान की थड़ी से लेकर सजने सवंरने तक का माल असबाब। दुकानों के ऊपर लाइन से बने दड़बेनुमा कमरे… कुछ के दरवाज़े बंद… कुछ पर पर्दे…. कुछ खुले। मेरी नजरें पीली दीवारों पर कूँची सी फिर रही थी। शायद कहीं मुमताज़ महल लिखा हो !  क्या पता सिर्फ पीछे की ओर हो!

 एक कंधे पर टंगे बैग और दूसरे पर कैमरे को संभालती मैं गली की भीड़ में घुस गई। एक दुकान के बगल से जाती सीढ़ियां चढ़ी तो उल्टी और पेशाब का मिलाजुला भभका नाक में भर गया। मन किया इत्र के फाहे की दीवार ख़डी कर दूँ। कितना अजीब है मन! कभी दीवारें ढहाता है कभी ख़डी कर देना चाहता है। मुझे लगा इस दुनिया क़ी तमाम समस्याओं क़ी जड ये दीवारें ही हैं। सीढ़ियां चढ़ते ही कई जोड़ी आँखें मुझ पर जमी दिखीं… तिरस्कार की जमी काई लिए….. काई के नीचे बहुत कुछ ढका छिपा… मगर देह बेपरवाही से अधलिपटी… अधउघड़ी…। उन्होंने शायद मुझे नीचे से आते देख लिया था।

” काहे आई रे ? ” एक ने सवाल किया।

” कुछ बातचीत….।”

” काहे …!  चिथड़ा जिनगी की कहानी बेच कर खुद कपड़े लपेटेगी?” 

” न नहीं… मेरा मतलब सिर्फ कहानी नहीं…। “

” तो क्या हमें भी!” दूसरी ने कहा और बाकी ने ठहाका लगाया।

” बिके हुओं को बेच कर कुछ ना मिलेगा? ” पहली ने फिर कहा।

टीस पर फड़फड़ाता फाया उड़ चुका था और मेरी गर्दन झुकी हुई थी।

” अच्छा… चल आ… बस दस मिनट। ” मैंने गर्दन उठाई और उसके पीछे चल दी। कमरे में पैर रखा तो लगा मुमताज़ महल के अनदेखे आगे वाले हिस्से के किसी कमरे में हूँ। बगैर खिड़की वाला कमरा। जहाँ की सबसे जरूरी चीज़ थी पलंग। बाकी कुछ हो या न हो कोई फरक नहीं पड़ता। मेरी नजरें पलंग पर टिकी थीं।

‘उस रोज़ गुलाबजल और इत्र स्नान होगा मेरा….।’ नसों में कंपकपी की लहरों से उठता गिरता समंदर बह आया। पीपल के पत्तों पर टिकी उत्कठाएं जिद्दी बच्चों सी दौड़ गले में लटक गईं। कोई जवाब नहीं था मेरे पास उनके लिए। एक बीज बो आई थी… आकाश का एक टुकड़ा दिखा आई थी… और छोड़ आई थी मौसम के भरोसे। 

उसने दरवाज़े का बड़े फूल की प्रिंट वाला पर्दा खींच बैठने का इशारा किया। पलंग की किनार पर टिकते लड़खड़ाती मेरी देह पर उसकी दृष्टि जमी थी।

” घबरा मत… बैठ जा। ” वह खुद ऊपर पैर कर बैठ गई। इतनी देर बाद मैंने उसके चेहरे को गौर से देखा। सूरजमुखी के मुरझाए फूल सा पीलापन और थकी बुझी सी आँखें।

“आपका नाम?” मेरी जबान की लहर मेरी ही सोच थी या…।

” रानी। ” 

‘खाला कहती है हम रानियाँ है… पर्दादारी से ही हमारी शान है।’ सायबा कान के पास फुसफुसाई।

“कितनी उम्र से यहाँ…

” पैदाइच यहीं हुई…

” स्कूल गईं कभी या… ” वो हँस दी।

” कौन भर्ती करेगा बता…  कभी-कभी तेरी जैसी किसी के भेजे में उबाल आता है तो आ जाती है पढ़ाने बच्चों को कुछ दिन… फिर उबाल ठंडा और सब ठप्प। ” उसने हथेली पर हथेली पटकी। 

” यहाँ नाच गाना भी होता है या….। ” 

” भूखे आते हैं यहाँ…. किसे फ़ुरसत नाच गाने की… उन्हें सिर्फ बोटी चाहिए। “

ठीक उसी बक्त मेरी पीठ पीछे पडे पर्दे से आती गरमाहट ने पीठ को स्पर्श किया …. वही तन की परतों को भेद मन तक राह बना लेने वाली नज़र का स्पर्श। उस स्पर्श की भेद से उठी लरज ने मुझे खबर किए बगैर गर्दन पीछे घुमा दी। दो आँखें मेरी आँखों से आ टकराई। गर्दन के नीचे का हिस्सा पर्दे के पीछे छिपा था। अचानक उसने हाथ आगे बढ़ाया… पतला लम्बा पीला सांवला सा हाथ।

” किताब… “

उसका इशारा मेरे बैग से बाहर निकली पड़ी दो किताबों की तरफ था। मैंने किताबें उठाई और कपकपाते हाथों को थिर करने की कोशिश करते हुए आगे बढ़ा दीं।

उन आँखों के बनते बिगड़ते समीकरण… ठीक वैसे ही… मेट्रिक्स के कोष्ठकों में बंद।

“क्या नाम है?”

“रेशमा ” मेरे कानो ने सुना सायबा…. सायबा… सायबा… इतने दिन से कहाँ थीं …. कितना इंतजाऱ किया आपका… ऐसे भी कोई जाता है क्या भला???

पीली दीवार के साथ काई जमी हरी मुंडेर की परतें भी  झररर झरर झर रहीं थीं।

तब मुझे क्या पता था कि यहाँ भी मलबे के सिवा कुछ न मिलेगा। मामा ने कृष्ण भवन बेच दिया था और बताया कि मुमताज़ महल भी बिक चुका है दोनों को मिला कर कोई होटल बन रहा है और मैं उसे खंगालती उलांघती लौट रही थी अपनी व्यस्तताओं के जाल में। 

(हंस कथा सम्मान 2023 में नामित कहानी)

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