मरने से पहले उसने जो बयान मुझे दिया था, उसकी सच्चाई को झुठलाता हुआ महज एक सफेद झूठ मेरे सामने राक्षस की तरह खडा हंस रहा था। उस बयान के बाद परिवार के सभी लोगों को अपने बचाव का रास्ता मिल गया था। मगर उन्हें नहीं पता था कि मृत्यु की खाई में धकेला गया इन्सान इतनी आसानी से मुक्त नहीं होने देता है। मेरी डाईंग रिर्पोट के कारण सारा मामला एक जगह आकर ठहर गया था। वे सब उस जाल के भीतर फंस चुके थे और जाल से निकलने के लिये मेरा इस्तेमाल चाकू के रूप में करना चाहते थे। बीती वारदात का समूचा सच मेरे सामने खुलने लगा। मैं जानता हूँ कि सच को झूठ में परिणत करते समय उन्हें किन मानसिक यातनाओं से गुजरना पडा था। अपने तथाकथित पति को बचाने के लिये वह समय से पहले मर गई थी। वह स्वयं जली है! ” यह बयान दिला कर वे सब विजेता होने का दंभ पालने लगे थे।
ये जगह ही ऐसी है, यहाँ जिन्दगी तिल तिल करके समाप्त होती है और लोग मृत्यु तथा मृतक के साथ झूठा, गन्दा खेल खेलते हैं। आतंक तथा भय के भूत खडे क़र देते हैं। बच्चों की जिन्दगी का सौदा करते हैं।
मेरा मन खिन्न हो गया। पेशेन्ट अब भी आते जा रहे थे और उधर वो मेरा इंतजार कर रहा था, लम्बा, दुबला पतला युवक, जिसे उम्र ने असमय प्रौढ, परिपक्व तथा वाचाल बना दिया था। आँखों के आस पास की कालिमा को देखकर लोमडी क़ी याद हो आती है।
” हमारे वकील का कहना है कि आप अदालत में बयान बदल लेंगे तो मामला फिट हो जाएगा।” जैसे ही मैं खाली हुआ, वह मेरे पास स्टूल पर आकर बैठ गया।
” क्यों बदल दें? उसने जो बयान मेरे सामने दिया था उसे तो तुमने बदलवा ही लिया था। एक इंसान को जिन्दा जला दिया और तुम उसका बचाव कर रहे हो। ऐसे आदमी को सजा नहीं मिलनी चाहिये क्या? दूसरों के जीवन को अपनी सम्पत्ति समझ कर इस्तेमाल करते हो तुम लोग। तिलक लगाते हो मगर ईश्वर से नहीं डरते।” मैं ने उसकी शुष्क कँपकँपाती आँखों में देखते हुए कहा। क्रूरता का भाव उसके जबडाें को भींचे था।
” नहीं डॉक्टर साहब ! यकीन मानिये उसे अपने किये का बहुत दु:ख है। उसका परिवार उजड ज़ाएगा।” कह कर उसने हाथ पर बैठे मच्छर को जोर से मसल दिया।
” तब नहीं सोचा था यह सब? ” मैं ने कठोर होकर कहा।
” अब तो मर ही गई न। आपस की लडाई में, दारू के नशे में हो गया वह सब।” उसके चेहरे पर दु:ख, शर्म या पछतावे का कोई भाव नहीं था।उसके कपडों से आती पसीने की बू और चेहरे की चिपचिपाहट देखकर मुझे वितृष्णा हो उठी।
” अब तुम जाओ। अपने वकील से कहना, मैं रिर्पोट नहीं बदलूंगा।” मैं ने उठते हुए कहा।
मेरा सिर भारी हो रहा था। मैं एक लम्बी, गहरी नींद लेना चाहता थामगर अब मुझे नींद नहीं आएगी। इस आदमी का चेहरा देखकर मेरा मन उद्विग्न हो उठता है। वैसे, डॉक्टरी के पेशे में यह सब चलता रहता है। ऐसे मामलों से मेरा साबका पडता रहता था, जली हुई देहों से चमडी क़ो प्याज क़े छिलकों की तरह उतार फेंकना और लम्बे समय तक इलाज करते रहना ईससे भी दुखद बात यह होती थी कि मरने वालों के साथ जो खेल यहाँ खेले जाते हैं वो कहीं न कहीं दिमाग को झकझोर देते थे।
कोर्ट में जाने की नौबत संभवत: पहली बार आई थी और इसीलिये मैं भी खेल का अंग बना लिया गया था। सारे रिश्तों के असली रंग, स्वयं को बचाने की धूर्त तिकडमें और अंतिम क्षणों तक मृतक के प्रति अथाह बनावटी प्रेम, झूठे आंसू, ढोंगभरी सहानुभूति और बच्चों को सामने लाकर उनके प्रति प्रेम और विश्वास का प्रदर्शन ऐसे किया जाता है कि सचमुच ऐसे लगने लगता है कि यह दुनिया सिवा रंगमंच के कुछ भी नहीं है, लकडी से बनाया रंगमंच। जो जितनी तेजी से उछलता कूदता भावप्रदर्शन करता है वह उतनी गहराई से अपने आकर्षण में बाँधता है। अफसोस कि ऐसे नाटक देखने को मैं विवश हूँ।
हाथ मुंह धोकर लेट गया। खाना नहीं खाया गया। मन के साथ तन भी थका था। आँखे मूंद लीं। शायद नींद आ जाये मगर अजीब सा शोर चारों तरफ घरघरा रहा था उस आदमी की उपस्थिति अब भी मेरे आस पास तैर रही थी। दर्दनाक अहसास वह मेरे हृदय में उतार कर चला गया। मैं ने उठ कर कॉफी बनाई और फिर लेट गया याद आया उसका नाम विमला था। रंग गोरा और बाल लम्बे थे, जो आधे से ज्यादा जल चुके थे। देह पर धब्बे मात्र रह गये थे। वह सुन्दर मांसल औरत थी। मगर कुछ ही पलों में उसकी सारी सुन्दरता, कोमलता तथा मांसलता उसके अपने ही शरीर से उठने वाली लपटों में झुलस कर अथजली लकडियों की तरह हो गयी थी भद्दीछिछली। मैं जानता था वह स्वयं नहीं जली है, जलाया गया था उसे। दो चार दिन से ज्यादा नहीं बचेगी। प्रिवारवालों को स्पष्ट बता दिया था कि चाहें तो अपनी अंतिम इच्छा पूरी करने के लिये उसकी सेवा कर सकते हैं। लपलपाती पीडा तथा इतने भयावह रूप में स्वयं को पाकर उसने सद्य:आक्रोश से भरकर सच्चाई उगल दी थी उस सच्चाई ने सबकी रातों की नींद हराम कर दी थी। सबके चेहरों पर हवाईयां उड रही थीं…फिर धीरे धीरे सबने उसे घेरना, पुचकारना शुरु कर दिया था ताकि बयान बदलवाया जा सके। उसको बचाने का मीठा आश्वासन देने के लिये वे कुछ भी करने को तैयार थे। मैं जब भी वहाँ जाता था, उसके नजदीकी लोगों को गिडग़िडाते या आंसू पौंछते देखता था।
” डॉक्टर साहब बचा लीजिये मुझे! ” विमला मुझसे कहती। दर्द से तडपती – चीखती – कराहती विमला आश्वस्त थी जिन्दगी को लेकर, मगर उतने ही बेचैन थे परिवार के लोग। जैसे जैसे समय खिसकता जा रहा था, जेल की कोठरी बहुतों के करीब आती जा रही थी। मौत से पहले एक एक शब्द उनके लिये आकाश कुसुम बनता जा रहा था।
” देखो बेटा, ठीक होकर तुम्हें जाना तो वहीं है। बच्चों को तो छोडोगी नहीं। उसे नहीं छुडाया तो कौन खिलाएगा? ” दादी समझा रही थी। ” इनको देखो इन्हें” बच्चों की तरफ इशारा करके कहती वो ”ये देखो तुम्हारे कोख जाये किसका मुँह देखेंगे? हाय! क्या किस्मत थी हमारी? तेरे जैसी बहू का सुख न मिला।”
यह आदमी तब भी ऐसे ही मंडराता रहता था। पता नहीं किन किन लोगों को लाता था विमला को समझाने के लिये। कमाल का दिमाग है ” जिन्दा रहेगी तो किसका मुंह देखेगी तू? हम तो रख नहीं पाएंगे। कितना पैसा खर्च कर रहा है तेरे ऊपर? कहाँ कहाँ से डॉक्टर नहीं बुलवा रहा है” वह दर्द में डूबी विस्फारित नेत्रों से टुकुर टुकुर देखती रहती थी। उसकी वो करुणाविव्हल, विवश निगाहें कभी नहीं भूलतीं मुझे।
” डॉक्टर साहब, मैं बच जाऊंगी? मैं जीना चाहती हूँ। मेरा बेटा…मेरी लडक़ी उनका क्या होगा? ” कहकर रोने लगी थी वह। जिन्दगी और मौत के बीच झूलती विमला बच्चों के लिये जिन्दगी चाहती थी। दुख और बिछोह ही तो मन को तडपाता था, वरना शरीर का क्याउसके तो सरे अवयव यों ही खुले पडे रहते हैं मेरे सामने। पर कोई रहस्य है जो मुझे हमेशा चौंकाता है, इस जैविक संरचना से दूर ले जाता है रहस्यलोक में।
” क्या तुम बचाओगी अपने पति को? ”
” हमें उसकी नहीं बच्चों की चिन्ता है। जैसी भी रहूँ, जिस रूप में रहूँ बच्चों के सामने रहूँ।”
” देखो, उसने तुम्हारे साथ क्रूरता का व्यवहार किया है। उसको क्या हक था तुम्हें इस हालत में पहुंचाने का? उसको सजा भुगतने दो।” मैं एक डॉक्टर के अलावा उसको सांत्वना देने वाला साथी कैसे बन गया था, समझ नहीं पाया। मैं वास्तव में उसका मनोबल बढाना चाहता था, ये जानते हुए भी कि वो मर रही है, ” तुम हिम्मती हो। निडर हो। इन तमाम कष्टों और कुरूपताओं के बावजूद भी जीवन सुन्दर लगेगा बशर्ते तुम सत्य का साथ दो।”
” वह गुस्सैल है। पागल है। जीवन भर बच्चों को प्रताडित करेगा।”
” गुस्सा किसी और पर क्यों नहीं उतारा? ”
” मेरे बच्चे” वह सिसक कर रो पडी थी, ” आप मेरे भाई समान हो”
वह याचना करने लगी मुझसे। वह क्यों नहीं समझती कि मैं एक डॉक्टर हूँ, परमात्मा नहीं। उसका शरीर चिकित्सा की सीमा से निकल चुका था।
” हिम्मत रखो।” मैं ने सांत्वना देते हुए कहाएक झूठी और खोखली सांत्वना।
दूसरे दिन जब मैं डयूटी पर पहुंचातो देखा कुछ लोग उसको घेर कर खडे हैं, ” क्या बात है? इतनी भीड क्यों लगा रखी है यहाँ? बाहर जाईए।”
” यह अपना बयान दोबारा देना चाहती है।” इसी आदमी ने आकर बताया था मुझे।
” क्यों!” मैं चौंक पडा।
रात भर में ही उसने अपने अपने मन को बदल लिया था। एक रात में उसने पूरी एक जिन्दगी अपने बच्चों की देख ली होगी उसकी इच्छा का अनादर नहीं किया जा सकता था। मैं निस्सहाय सा उसे देखता रह गया। उसने निगाहें बचा कर डबडबाई आंखों से दो तीन बार मेरी तरफ देखा…फिर सामने देखने लगी। मैं समझ गया था उसके शरीर को ही नहीं, हृदय तक को इन लोगों ने ममत्व की आग से सेंका होगा। मैं गहरी दया की भावना से भर कर उसके सामने जा खडा हुआ। वह पस्त सी पडी रही। सुकून तथा विश्वास का भाव उसके बुझते हुए चेहरे पर झलक रहा था। सारा द्वन्द्व, सारी पीडा, सारी लडाई जैसे समाप्त हो गयी थी।
” वे लोग मुझे बाहर ले जाने को बोल रहे हैं। मैं ठीक हो जाऊंगी। नयी चमडी लगवा देंगे।” वह खुश होकर मुझे बता रही थी एक डॉक्टर को, ” प्राईवेट हस्पताल में अच्छा इलाज होता है। आप वहाँ मेरा इलाज करेंगे? ”
मैं उसके भोलेपन तथा मूर्खता पर क्या कहता।
” मेरे बच्चों की जिन्दगी का सवाल था।” वह मुझे समझा रही थी….या स्वयं को जस्टीफाइ कर रही थी…मैं नहीं समझ सका।
बाद के दो दिनों तक सन्नाटा छाया रहा। वे रिश्तेदार, वे परिचित, वे बच्चे – कोई नहीं आया…यही आदमी चक्कर लगा जाता थाएक औरत रात में रुकी थी, इस उम्मीद के साथ कि एकाध दिन बाद तो मर ही जाएगी।
” डॉक्टर साहब! आपने क्यों मना कर दिया यहाँ से जाने के लिये? वे कह रहे हैं प्राईवेट में ले जाना है, बाद में मुम्बई ले जाएंगे। आपने रोक दिया! ” अन्तिम दिन पूछा था उसने मुझसे।
” मैंने? मैं क्यों मना करने लगा। इलाज तो सभी जगह एक जैसा होगा।” मैं समझ गया था अब इन्हें इसकी जिन्दगी की नहीं, मौत की जरूरत थी। एक खूबसूरत भ्रम में, सपने में जी रही थी वह जबकि मौत उसके भीतर आकर बैठ गयी थी। चौथे दिन जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके पास कोई भी न था। घण्टों की प्रतीक्षा के बाद यही आदमी आया था।
” देखना अब भी बैठा है या चला गया! ” मैं ने पत्नी से कहा।
” बाहर तो कोई नहीं है।”
सुनकर मैं ने राहत की सांस ली। आज का दिन ही खराब निकला। सबकुछ बोझिल और उदास लग रहा है। मैं पीछे आंगन में जाकर बैठ गया कुर्सी पर पांव पसार कर। आकाश में तारे चमक रहे थे। अन्धकार में गहन नीरवता थी। हवा की ठण्डक बदन को छू रही थीमैं यों ही बैठा बैठा कब सो गया, याद नहीं।
मैं अस्पताल के लिये निकल ही रहा था कि देखा वह सामने बैठा है। कुर्ता पायजामा पहन कर वह जोकर सा लग रहा था। उसका चेहरा देखते ही मेरा मूड खराब होने लगता है,
” क्या बात है? ” मैं जानबूझ कर कडक़ आवाज में पूछा।
” सुनवाई की तारीख बढ ग़यी थी। अब परसों है। वकील साहब ने कहा कि इस बार आप जरूर आ जायें। हमने आपका रिजर्वेशन करवा दिया है, एसी में।” वह मेरे नजदीक आकर खडा हो गया और फुसफुसाते हुए बोला, ” दस हजार रुपये आप भी ले लीजिये। मेहरबानी होगी आपकी। हमें निबटा दें।” उसने बिना किसी संकोच और भय के सीधे सीधे कह दिया। उसका सूखा हुआ कठोर चेहरा एकदम कंकाल की तरह कुरूप और भावहीन लग रहा था।
” क्या बकवास करते हो? दिमाग खराब हो गया तुम्हारा। लालच देकर काम करवाना चाहते हो!” अमूमन मुझे गुस्सा कम ही आता है और वैसे भी इस प्रोफेशन में वाणी पर संयम, व्यवहार में कोमलता, कन्विन्स करने की क्षमता तथा सामने वाले को पूरे भरोसे में लेने की अपार धैर्य शक्ति का होना अत्यन्त आवश्यक है, मगर इन क्षणों में मैं बेहद मर्माहत और अपमानित महसूस कर रहा था।
” माफी चाहते हैं साब।” वह मेरे पांवों पर झुकते हुए बोला, ” उसका छूटना जरूरी है। जब तक आपके बयान नहीं होंगे, तब तक वह वहीं पडा रहेगा। मर जाएगा।” वह दोनों हाथों को प्रार्थना की मुद्रा में जोड क़र खडा हो गया।
” कोई नहीं मरता। मेरा वक्त बरबाद मत करो…जाओ।”
” उसकी न सही, बच्चों की खातिर चले चलिये।”
अब वह स्कूटर का हैण्डिल पकड क़र सामने खडा हो गया और यह परखने की कोशिश करता रहा कि बच्चों के नाम से मैं कैसा रुख अख्तियार करता हूँ। इसमें कोई दोराय नहीं कि वह चिकना घडा है। उसे देखते ही मेरे सामने विमला जीवित होकर खडी ज़ाती। उस नीरीह औरत के साथ मैं अन्याय नहीं कर सकता था। उसके सामने तो बच्चों का मोह था, भविष्य था मगर मेरे सामने तो सिवा सत्य का साथ देने के कुछ भी न था। ठीक दो माह बाद वह फिर मेरे घर के सामने बैठा था। पहले तो मुझे लगा, कोई आदमी अपने बच्चों को दिखाने लाया होगा। उसने इस बीच दाढी बढा ली थी जिसके कारण उसका चेहरा और भी डरावना लग रहा था। आंखें कंचों की तरह गोल तथा पीली लग रही थीं।
” डॉक्टर साहब! ” वह लपक कर पास आया।
” तुम फिर आ गये!” मैं ने आश्चर्यमिश्रित गुस्से में कहा।
” क्या करें साहब? आप नचा रहे हैं सो हम नाच रहे हैं। सुअर की तरह बच्चे पैदा करके छोड दिया।” वह स्वयं में बुदबुदा कर बोला।
” कितने बच्चे हैं?”
” कुल चार हैं। दो इस बीवी के, दो पहले वाली के।”
”पहली बीवी! उसको क्या हुआ था?” मेरे पूछने पर वह सकपका गया मगर फिर रोनी सी सूरत बना कर बोला, ” वह मर गयी थी। उस घर की किस्मत ही ऐसी है। वह मकान ही मनहूस है साला। कितनी पूजा पाठ करवाई तांत्रिक से मगर फिर भी अनर्थ होता रहता है।”
” या जलाया था! ” मैं ने व्यंग्य से कहा।
” दुर्घटना थी साब। चालीस हजार रुपये खर्च किये थे, तब कहीं जाकर केस निबटा था।”
वह एकाएक गर्वोन्मत्त होकर बोला, जैसे परोक्षरूप में चुनौती दे रहा हो कि इस तरह की घटनाओं से निबटना उसके लिये मामूली बात है, ” हमारे वकील बहुत अच्छे हैं। होशियार। नामी गिरामी।कभी कोई केस नहीं हारते। जीत की गारन्टी रहती है।” वह दाढी पर हाथ फेरता हुआ बोला। निर्लज्जता तथा धूर्तता की छाया उसके चेहरे पर सन्ध्या की कालिमा की तरह उतर आई थी। मुझे उसका चेहरा विकृत तथा घृणित लगने लगा। इस आदमी से कैसे छुटकारा मिलेगा – मैं सोच ही रहा था कि यकायक लडक़ी ने दौड क़र मेरे पांव पकड लिये, ” अंकल! मेरे पापा को छुडवा दो।”
लडक़ी का चेहरा कई दिनों से धोया नहीं गया था। धूल, आंसू, नाक के धब्बे उसके चेहरे पर चिपके थे। बाल रूखे तथा गुँथे हुए थे। मैं समझ गया कि यह चालाक आदमी ट्रेनिंग देकर लाया है बच्चों को।
” अंकल हमारा कोई नहीं है। हमारे पापा को बचाओ!” बच्ची रटे रटाये शब्द रुदन में घोल कर बोल रही थी। मैं ने हडबडा कर बच्ची को परे धकेल कर डाँटते हुए कहा, ” यह क्या तमाशा है? बच्चों को सिखा कर लाए हो।”
लडक़ा भी निहायत खुरदरी जमीन पर पडा था और जोर जोर से रो रहा था पूरी ताकत से। क्षणों बाद ही अँगूठा मुंह में डाल कर चुसुर चुसुर करने लगा। पता नहीं कब से भूखा था या जानबूझ कर भूखा रखा गया था। हृदयविदारक दृश्य पैदा करके वह मेरी सहानुभूति प्राप्त करना चाहता था। मुझे लगा, इसे तो नट मण्डली में होना चाहिये, जहां यह करतब दिखाकर लोगों को रिझा सकता था।
” ये नाटकबाजी मेरे सामने नहीं चलेगी। समझे बच्चे को उठाओ और चलते बनो।”
” साहब! आप समझते नहीं हैं।”
” क्या नहीं समझते? क्या समझाना चाहते हो कि मैं झूठ बोलूं। अपने ही लिखे को असत्य सिध्द करूं। मज़ाक बना दिया है तुमने तो सारी व्यवस्था का। कैसे बेवकूफ लोग थे जिन्होंने सब कुछ जानते हुए भी अपनी लडक़ी की शादी कर दी थी। यह जानते हुए भी कि वह अपराधी था। दूसरी बार वही किया न उसने। क्यों? जानते हो? तुम जैसे लोगों की शह पाकर। वो जानता था कि एक बार छूट गया है तो दोबारा भी छूट जाएगा” मैं धाराप्रवाह बोले चले जा रहा था।
” देखिये साहब, हम तो खुलकर पैसा खर्च कर रहे हैं। सबने अपने अपने बयान अदालत में बदल दिये हैं। वकील साहब का कहना है कि आपका बयान होते ही केस खत्म हो जाएगा। आपको बीस हजार तक दे देंगे। अरे! हमारा केस तो मजबूत थामगर वो आ टपका उसका भाई अवतार लेकर। उसने नया वकील किया है। कहता है इस बार लम्बी सजा दिलवाएगा – मैं आपके पांव पडता हूँ। आप सज्जन आदमी हैं। देवता हैं। जिन्दगी देने वाले हैं। आपकी कृपादृष्टि से इन बेसहारों की जिन्दगी बच जाएगी।”
मौका पाते ही वह फिर से अपनी औकात दिखाने लगा। मैं चकित। विमूढ सा खडा रह गया। कैसा आदमी है यह! न हारने वाला। न बुरा माननेवाला। चौराहे पर खडा किसी भी रास्ते पर जाने को तैयार। बच्चा जमीन पर पडा सो गया था। हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया था। विमला का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ खडा हुआ। इन्हीं बच्चों के लिये बयान बदला था उसने।
” अपने वकील से कहना मुझसे ज्यादा जिरह न करें।”
” ऐसा कैसे हो सकता है? ” वह उचक कर बैठ गया और कुटिलता से समझाने की मुद्रा में आ गया। उसकी भावभंगिमा इतनी तीव्र गति से बदली कि मैं दंग रह गया।
” तुम्हें समझाना बेवकूफी है, पर मैं सोचूंगा।”
वह उत्साहित हो हाथ जोडता हुआ खडा हो गया। इस समय वह धूर्त भेडिये की तरह लग रहा था, जो अपने शिकार को येन केन प्रकारेण फाँसने में या शिकार स्थल तक ले जाने में कामयाब हो जाता है। उसने लडक़े को कन्धे पर टाँगा। उसके दुबले पतले हाथ मरी हुई बकरी के समान लटक रहे थे। लडक़ी को दूसरे हाथ से घसीटता हुआ तेजी से चला गया। उसकी चाल में जो वेग थातत्परता थीमैं समझ गया कि वह अपनी सफलता पर इतरा रहा है।
सुनवाई की तारीख के पहले दिन से ही वह प्रेतात्मा की तरह आकर मेरे इर्दगिर्द मंडराने लगा था। मेरी पत्नी और मां के सामने घडियाली आंसू बहा कर करुण कथा का ऐसा रूपान्तरण किया कि मेरी मां दिन भर उदास बैठी रहीं। मेरा बैग उठाए खुशामद करता, दांत निपोरता वह मधुमक्खी की तरह चिपका था मुझसे।
” साब वो लडक़ा मरते मरते बचा।” उसने जानबूझ कर मेरी कोमल रग पर हाथ रखना चाहा।
” क्यों क्या हो गया था? कौन रखता है बच्चों को? ”
” कौन रखेगा साहब? ” उसने ऊपर हाथ उठा कर अदृश्य में लहराते हुए कहा, ” रिश्तेदारों ने तो पहले ही मुंह फेर लिया था। दादी है तो अन्धी। बूढी हड्डियों का क्या आसरा? सब मेरे ऊपर आ गया है। मैं अपनी गृहस्थी देखूं या इसकी। गुस्सा तो इतना आता है कि चेहरा भी न देखूँ। मगर बच्चों का ख्याल कर दया आ जाती है। माँ बाप दोनों न होंगे तो भीख मांगेंगे या जेब काटेंगे।” उसने आसपास भीख मांगते बच्चों की तरफ इशारा किया, मानो वह जताना चाहता है कि यदि ऐसा हुआ तो मैं भी समान रूप से भागीदार होऊँगा।
” अब तो तीसरी शादी की तैयारी कर रहे होगे तुम लोग।” मैं ने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा।
” हम क्यों करवाएंगे साहब। करने वाले करवाते हैं। जिनको अपनी लडक़ियां बोझ पडी हैं या जिनकी शादी नहीं हो पाती, जो भूखे गरीब गुरबे हैं, वे तो मात्र आदमी के नाम पर तैयार हो जाते हैं, चाहे वह विधुर हो या चार बच्चों का बाप। साहब, आप लोग तो शहर में रहने वाले अफसर हैं – आपको क्या पता कि गाँवों में कैसे हालात हैं। सौदा होता है लडक़ियों का। बाकायदा लोग खरीदते बेचते हैं। अफसरों नेताओं को खुश करने के फार्मूले हैं उनके लिये तो।” कह कर उसने पिच्च से थूक दिया।
” क्यों साहब, आपके पास वो भी आया था न? ” उसने घाघ दृष्टि से देखते हुए कहा, ” उधर खबर थी कि वह भी आपसे मिलने आया है ज़मकर तैयारी चल रही है। अरे, जानेवाली तो चली गयी। उस भलेमानुस को यह तो सोचना चाहिये कि बच्चों की देखभाल करने वाला कोई तो हो! ” वह गुस्सा निकाले जा रहा था और मैं खिन्नता के साथ ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। मन किया कि लौट जाऊं पर तभी ट्रेन आती दिखी। मुझे बिठाकर वह मुलायम स्वर में बोला, ” साहब, आप बयान ठीक से देना। छह सात जिन्दगियों का सवाल है। उसकी बातों में न आना, हमारी प्रार्थना है।”
वकील सचमुच अनुभवी था, तेज था। उसका नाम बिकता था। जिन्दगियों को लूटने वालों, जिन्दा जलाने वालों, कत्ल करने वालों के साथ उसकी कोई नैतिक जवाबदेही न थी। समाज के प्रति उसका कोई कर्तव्य न था। उसका असिस्टेण्ट वकील तथा मुंशी इतनी मुस्तैदी के साथ इन गुनहगारों या उनके लोगों को अटैण्ड कर रहे थे कि मैं देख कर दंग रह गया।
सबसे ज्यादा व्यथा तो मेरी आत्मा पर तब छा गयी जब मैं ने मजिस्ट्रेट को न्याय की कुर्सी पर बैठे हुए देखा। यह अधबूढा मजिस्ट्रेट क्या जाने कि जलने वालों को किस तरह की हृदयविदारक पीडा होती है या उनका जीवन कितना कुरूप हो जाता है। कितने तरह के सबूत बनाये तथा मिटाये जाते हैं और किस तरह मरणासन्न व्यक्ति के बयान बदलवा कर सब कुछ अपने अनुसार कर लिया जाता है मेरा मन कर रहा था कि मैं लौट जाऊं मगर अब लौटने का कोई रास्ता भी न बचा था। प्रश्न पर प्रश्न पूछे जा रहे थे। मेरी डाईंग रिर्पोट की चीरफाड क़र रहे थे वकील। मैं ने देखा, कमरे के भीतर बाहर लोग सांस थाम कर इस बहस को सुन रहे थे और मेरी तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे में किसी दूसरे लोक का प्राणी होऊं। मेरे बयान टाइप होकर मेरे सामने हस्ताक्षर के लिये आए तो मुझे उन्हें पढने तक की इच्छा न हुई, बल्कि मेरे अन्दर ऊर्जा ही शेष न थीमैं पुन: उन शब्दों को देखना नहीं चाहता थाजब मैं बाहर निकला तो साढे चार बज रहे थे। सूरज सिर पर था। उमस के कारण शरीर चिपचिपा रहा था। शिराओं से कोई घनघनाता पदार्थ बह गया था।
” आपने तो सारा मामला ही गडबड क़र दिया।” वह दौडता हुआ आकर खडा हो गया।
” मैं ने क्या कहा था तुमसे? तुम लोग भरोसे के लायक नहीं हो!” मैं ने गुस्से में आकर कहा।
” लेकिन साब, आप तो हमारे फेवर में बयान देने आए थे।”
” स्वयं को झुठलाने के लिये वह सब कहता, जो मैं ने नहीं किया। है न! ”
” साहब वकील ज्यादा जानते हैं। हम क्या जानें? ” उसने स्वयं का बचाव करते हुए कहा।
” मेरा पीछा छोडो।” मैं ने पलट कर कहा और सीधे होटल से बैग उठा कर स्टेशन आ गया।
छह माह बाद वही व्यक्ति मुझे दीख गया। अस्पताल के सामने। उसने मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया। नाराज होगा, मैं ने उसके हिसाब से गवाही जो नहीं दी थी।
”प्रकाश! ” मैं ने पुकारा, पहले उसने देखा, फिर अनसुना सा करते हुए खिसकने लगा।
”प्रकाश! ” मेरे पुन: पुकारने पर वह आया।
” नमस्कार डॉक्टर साहब!” उसने एक उंगली से गरदन छुते हुए कहा।
” क़ैसे आए हो?” मैं ने देखा उसने बालों को गहरा काला किया हुआ है। दाढी मूछ भी एकदम तराशी हुई थीं। चन्दन का टीका अब भी लगा था।
” कुछ काम था।” उसने इधर उधर देखकर कहा।
” क्या हुआ? ” मैं ने जानने के लिये पूछा क्योंकि उसके बाद केस का क्या हुआ, मुझे पता ही नहीं था, ” उसके क्या हाल हैं?”
” किसके?अच्छा वो? अरे, वो तो तभी रिहा हो गया था।” उसने यह बात इतनी लापरवाही से बताई, जैसे बेहद मामूली बात हो।
” कैसे?” मैं चौंका।
” कैसे क्या साहबबस हो गया।” वह फिर हल्के फुल्के ढंग से बोला मानो हाथ पर बैठा मच्छर उडा रहा हो फूंक मार कर।
” फिर भी कैसे हो गया रिहा? ”
” हमने कहा था न साब कि हमारे वकील साहब बहुत दिमागवाले हैं। आपने तो पैसा लिया नहीं। आप ठहरे सीधे सच्चे इंसान। पूरे केस में साठ हजार खर्च कर दिये।” वह गर्व के साथ, बल्कि पूरी निर्ममता के साथ ऐसे बोल रहा था जैसे मेरा मखौल उडा रहा हो। मेरी सच्चाई, मेरी करुणा उसके लिये कोई मायने नहीं रखती थी। ” साब सब बिकता है – गवाह, पुलिस, वकील, न्याय।” उसने चुटकियां बजाते हुए कहा।
” लेकिन मेरा बयान तो।”
” वो आया था न केस लडने। क्या हुआ? सुना है हाईकोर्ट में जाने की सोच रहा है,” मेरी बात काटते हुए बोला वह।
मैं उसका चेहरा देखे जा रहा था, जिस पर जीत का उन्माद बह रहा था। भेडिये की तरह चमकती उसकी आँखों में उपहास का रंग स्पष्ट था, ” अच्छा डॉक्टर साब! नमस्ते।” मैं कुछ और पूछता या बताता, इससे पहले ही वह भीड में अदृश्य हो गया।