समुद्री घोड़ा
वह दोनों तरफ से अंधेरे अधर में लटके किसी रस्सों से बने पुल पर भाग रहा था। डगमग झूलता हुआ। जिसके एक ओर से कुत्तों का झुंड उस पर भौंक रहा था, दूसरी तरफ कुछ अजब आकृतियाँ फुसफुसा रहीं थीं कि वह फुसफुसाहट डर पैदा करे। उसके हाथों में धड़कता हुआ कुछ था। माँस की कई कई परतों के बीच लसलसे पारदर्शी द्रव और खून सना कोई अटपटा और छटपटाता घायल जीव!
वह जीव हिला और उसके हाथ से छूट कर अँधेरे पानियों में जा गिरा, छप्प! और उसकी नींद एक झटके से उचट गई। रीढ़ में कंपन उसे देर तक महसूस हुए, उसके बाद कुछ पल को पेट के निचले हिस्से में हल्का दर्द हुआ, ठीक हो गया। उसने उठकर पानी पिया। उसकी धड़कनें बामुश्किल काबू में आईं, उसने वह सपना जहन से झटक दिया।
बाहर बॉलकनी हल्का उजास फैलने लगा था। उठ कर उसने वॉशिंग मशीन चला दी और अपने लिए माइक्रोवेव में चाय बना कर ले आया। बिस्तर पर बैठ कर कुछ नई आई ई मेल्स देखने लगा। उसने बगल में बेसुध पड़ी रौद्रा को अभी जगाना मुनासिब नहीं समझा। वह कल सुबह नौ बजे की निकली दस बजे लौटी है काम से। रौद्रा के गोरे भारी चेहरे पर थकान दिख रही थी। उसके उपरी होंठ की रोमावलि पर तापमान संतुलित होने पर भी पसीने की बूँदें जमी थीं।
“ यह आजकल कुछ आक्रामक ढंग से आत्मविश्वासी दिखने की कोशिश में लगी है, मैं जानता हूं यह दबाव में है। कुछ है जो इसे परेशान कर रहा है। इसकी कंपनी का सी. ई. ओ. बहुत बड़ा टास्क मास्टर है। उस पर कंपीटिशन इतना कि हर व्यक्ति उसकी जगह लेने को तैयार, वह है कि हर सप्ताह अधिक काम और रिजल्ट लाकर ज्यादा से ज्यादा पॉइंट कमाना चाहती है, ताकि वह पिछले दो साल से पीछे छूटने का गैप भर सके।”
“ अह!” वह तो कॉरपोरेट में बदल चुके मीडिया की किसी भी रेस में नहीं शामिल कब का बाहर हो चुका। वह उतना ही कमाता है जितने से उसके अपने बिल्स और इस घर के खर्च निकलते हैं। घर का खाना बना, गैजेट्स की मैंटेनेंस कर, लॉन्ड्री और वैक्यूम क्लीनिंग का काम खुद संभालकर कर वह अतिरिक्त पैसा बचा ज़रूर लेता है।
एक हादसे ने कितना पीछे कर दिया दोनों को। दो साल सामान्य होने में लग गए। अस्पतालों के बिलों ने जमापूंजी सारी खा ली। हैल्थ इंश्योंरेस ने उनको कुछ उबार लिया, कुछ उसके पिता की छोड़ी “वैल्थ” ने।
हाँ, जिस कॉरपोरेट की दुनिया की चूहादौड़ से वे बाहर छिटक गए थे, रौद्रा ने तो स्वस्थ होकर, फिर से सबसे पीछे लग कर भी दुबारा उस रेस में शामिल होना मंजूर कर लिया। वह कल के छोकरों के पीछे लगने के लिए अपना अहम कुचल नहीं पाया।
यूं नास्तिक रहा है वह अब तक, फिर भी वह शुक्र अदा करता है किस्मत का। वरना वह सड़क हादसा उनकी जान ले सकता था, रौद्रा के घर मेरठ से लौटते हुए हाईवे पर एक विशालकाय दो रेल के डिब्बे जितने बड़े ट्रक ने ग़लत साईड से ओवरटेक किया और एक हल्की टक्कर में ही इनकी कार को एक साईड से खिलौने की तरह पिचकाता हुआ गुज़र गया। गाड़ी की हालत देख कोई नहीं कह सकता था कि वायव की बस एक पसली टूटी होगी, रौद्रा को ज़रूर ज्यादा चोट आई, कार की बाँयी खिड़की वाला मैटल पिचक कर उसके निचले धड़ में धंस गया था। वे शहर के नज़दीक ही थे सो उन्हें तुरंत मैडिकल हॉस्पिटल पहुँचाया गया। रौद्रा की रीढ़ में रॉड्स लगीं और लगभग नष्ट गर्भाशय बाहर निकाला गया। बाद में पता चला कि वायव की टूटी पसली तो दाँए फेफड़े में जा धंसी थी, उसके फटे हुए फेफड़े को तुरंत निकाल दिया था और सांस नली का दाँया हिस्सा क्लिप कर दिया। वे तीन महीने हॉस्पिटल रहकर घर आ गए थे और वह एक फेफड़े से दस महीने तक काम चलाता रहा जब तक उसे डोनर न मिल गया।
सच पूछो तो ज़िंदगी ने बहुत बड़ा झटका दिया था। दोनों की नौकरियाँ छूट गईं थीं। रौद्रा एम.बी.ए. है सो उसे दुबारा जमने में दिक्कत नहीं हुई। वायव पत्रकार और न्यूज़ फोटोग्राफर है, सो अब फिर उस तरह जमने में उसे समय लगा लेकिन वह फ्रीलांस अच्छा काम कर रहा था।
उस हादसे ने इस तरह दहला दिया था कि उन्हें हर महीने मनोश्चिकित्सक के पास बैठक के लिए जाना पड़ता था। रौद्रा का सदमा बड़ा था क्योंकि उसने बच्चा पैदा करने की क्षमता लगभग खो दी थी। लेकिन वह इस विषय पर चुप है, कुछ जताती नहीं। शायद अब वह इस विषय पर बात करना ही नहीं चाहती। ठीक ही है।
मनोश्चिकित्सक कहता है कि रौद्रा सहज संयत है, उसे नियमित सायकियाट्रिक सेशन और दवा की ज़रूरत अब कम होती जाएगी। वह भी लंग ट्रांसप्लांट से रिकवर होकर सहज और संयत हो चला था मगर अचानक …… ये सपने। उसने एक रोज़ मन के डॉक्टर को बताया।
“मुझे बहुत भीषण सपने आ रहे हैं पिछले दो महीनों से। सपने भी ऐसे कि जो मुझ पर गुज़रते महसूस होते हैं, एक दम सच से। मसलन भागूँ सपने में तो जागने पर थकान रहे।”
“कैसे सपने बताओ ज़रा।” सायकियाट्रिस्ट ने उसके ब्लड में कैमिकल्स की रिपोर्ट देखते हुए पूछा।
उसने बताया कि कभी वह बेतहाशा भागता है, सपनों में संकरी गलियाँ, बेतरतीब मकान, एक मकान में घुस कर दूसरे में निकलता है, लोगों से टकराता है, सीढ़ियाँ फर्लांगता है, छज्जों से कूदता है, मस्जिद में, गुंबदों पर चढ़ छलाँग लगा देता और अचानक पंख से लग जाते हैं और वह उड़ता है पहाड़ों के पार।
कभी
वह बीहड़ जंगल में किसी गुफ़ा के कोने में हाँफ रहा है, बाहर कुछ भेड़िए ज़मीन कुरेद रहे हैं, पंजे फटकार रहे हैं, अजीब कराहें और चीख़ें। वह धँसता जाता है गुफ़ा के भीतर भीतर अंधेरों में और वह घुस जाता माँस – मज्जा, रक्त और म्यूकस की लिबलिबाहट में। किन्हीं पारदर्शी झिल्लियों में फंसा।
कभी
वह निचले पेट में दर्द महसूसता है। वह बाथरूम ढूंढता है, बेइंतहां गंदे बाथरूम , मल के ढेर पार करके एक बेहद गंदे कमोड पर हिम्मत करके बैठता है, बहुत देर की रोकी पेशाब की हाज़त से निज़ात पाता है, करता है तो करता चला जाता है, करता चला जाता है….. नींद खुलती है तो बिस्तर गीला।
उसके कुछ और टैस्ट हुए और उसकी दवाएं बढ़ गईं। मगर सपने हिंसक और अश्लील होते चले गए. वह नींद में गोंगियाने लगता था। छटपटाता था, रौद्रा को जकड़ता था। वह कई गंदे दिखते लोगों को अपनी तरफ झपटते पाता। वह अपने का मीलों नंगा दौड़ते पाता। ज्यादातर सपने वह सुबह भूल जाता मगर उन सपनों की पीड़ा मन में धंसी रहती। कसैलापन ज़बान पर रहता। सुबह वह इतना थका होता था कि वह काम के लिए निकल नहीं पाता था।
वह रौद्रा के लिए दिन ब दिन आतंकित रहने लगा। उसने उसको दफ्तर में हर रोज़ शाम छ: बजे के बाद फोन पर परेशान करना शुरु कर दिया।
“सुनो शाम के छ: बज गए तुम घर लौट आओ।”
“वायव, मैं आठ से पहले कब घर लौटती हूँ? आज तो पॉसिबल ही नहीं। नौ बजेंगे।”
“ भाड़ में जाए,छोड़ दो यह नौकरी।”
“पागल हो? जानते बूझते यह कह रहे हो?”
वह सुबह जब घर से निकलती, तब भी वह अटपटी बातें करता। उसके कपड़ों को देख कर बदलने के लिए कहने लगाता।
“ स्लीवलैस मत पहना कर यार, मर्दों की गंदी नज़रें पड़ती हैं। बदलो अभी।”
“ स्कर्ट मुझे पसंद नहीं रौद्रा। लड़कियों की टाँगे देख लड़कों को आइडियाज़ आते हैं।” वह कभी उसकी ज़िद पर कपड़े बदल लेती, कभी टाल कर निकल जाती घर से।
“ वायव!! तुम कितना बदलते जा रहे हो! तुमको क्या हो रहा है? ये तुम ही हो न? तुम ने तो लाकर दीं ये ड्रेसेज़। पहले तो तुम ऐसा कभी नहीं करते थे। बल्कि तुम कहते थे, – कॉर्पोरेट्स में मर्दों का लड़कियों को छू कर बात कर लेना कॉमन है, लड़कियों को इतना टची नहीं होना चाहिए। खुद को लड़की नहीं परसन मानना चाहिए, अपने जेंडर को लड़कियाँ पहले उठा कर ताक पर रख दें तो लड़के भी सहज व्यवहार करने लगेंगे, आजकल चला है न क्विट सरनेम बी इक्वल! तो क्विट जेंडर आईडेंटिटी बी इक्वल। यही कहते थे ना?”
“ हाँ , मगर ….. “
एक सुबह तो हद हो गई। उस दिन रौद्रा को लंबी सिटिंग करनी थी दफ्तर में, उसने एक स्लीवलैस डेनिम की आरामदायक मिडी ड्रेस पहन ली।
“ सुनती नहीं हो न मेरी किसी दिन तुम्हारा गैंग रेप होगा।”
“ क्या बक रहे हो वायव?” रौद्रा ने हाथ के ग्लास की तली में छूटा पानी उसके चेहरे पर गुस्से में फेंक दिया। गुस्सा जायज़ था, पानी भी बहुत कम था। वह बिफर कर दीवार से सर टकराने लगा।
“सुनो मेरी! मेरी बात सुन लिया करो।” रौद्रा को यह मेलॉड्रामा बहुत अजीब लगा वह दरवाजा पटक कर निकल गई। उस रात जानबूझ कर डिनर बाहर कर के आई। वायव ने गुस्से में पूरे हफ़्ते बात नहीं की उससे।
इस बात को कुछ दिन बीते ही होंगे कि उसे अपने दफ्तर में वायव के दोस्त का फोन आया कि वो पुलिस स्टेशन में हैं। डीटीसी की बस में वायव ने एक लड़के को पीट पीट कर घायल कर दिया, क्योंकि वह लड़का कोहनी से एक लड़की का सीना बार – बार छूकर, दूसरे लड़के को आँख मार कर बता रहा था अपनी उपलब्धि।
“ सालों कितना सहेंगीं लड़कियाँ, जमाना हो गया तुम्हें यह सब करते हुए?” वह यही बड़बड़ा रहा था। बात किसी तरह बिना पुलिस केस बने सिलटाई गई और वायव बहुत देर बाद घर लौटा।
शाम को रौद्रा और वह दोनों अपने बेडरूम में थे तब, रौद्रा ने उसे प्यार से छुआ तो वह रो पड़ा।
“ मुझे समझ नहीं आ रहा। मुझे क्या समस्या है? मैं क्या बहुत बुरा व्यवहार कर रहा हूँ तुमसे? कल फिर मैंने सपना देखा, बहुत सारे नंगे, जलील मर्द मेरे पीछे और मैं शलवार में उलझ कर गिर पड़ा हूँ, वो दबोच रहे हैं……”
“ शलवार?” रौद्रा चौंक गई, उसके पसीने में डूबे चेहरे को देखा, क्या इसकी पर्सनालिटी ट्रांसवेस्टाइट में तब्दील हो रही है?
“ पता नहीं फिर पैंट होगी।” वह उसे अपने को ऐसे देखते हुए सकपकाया। पास पड़ी स्माइली सिलिकॉन बॉल से खेलने लगा और चुप हो गया। रौद्रा भी चुप होकर खिड़की के बाहर मटमैले हो चले शाम के धुँधलके को देखने लगी, सड़कें जाम से त्रस्त खामोश हो हरी बत्ती का इंतज़ार कर रही थीं, हरी बत्ती हुई शोर चालू हुआ तो वायव बोला –
“ सच कहूं मैं खुदको औरत ही पाता हूं सपनों मे। भागती औरत के उछलते – दर्द करते सीने को महसूस करता हूं। दबोचे जाने का डर……कहते हैं सपना बता दो तो वो नहीं आते मैं तुमको हर सपना बता कर उनसे पीछा छुड़ाना चाहता हूँ। लेकिन वे एपिसोड दर एपिसोड किसी क्राइम सीरियल की तरह आते चले जाते हैं। यह सीरीज़ कब खत्म होगी रौद्रा? परसों तो मैंने खुद को साड़ी में झाड़ियों में गिरते देखा। एक भीड़ को खुद पर टूटते।” यह सब क्या है रौद्रा? क्या मैं संतुलन खो रहा हूँ? मैं जांघों में दर्द महसूस करता हूँ, टीस …. खरोंच।”
“डॉक्टर, वह समझ नहीं पा रहा था लगातार एक ही पैटर्न के अपने भयानक सपनों की वजह।वह परेशान है बहुत।” रौद्रा ने अगली सुबह सायकियाट्रिस्ट को फोन करके कहा तो डॉक्टर ने वॉर्ड में भरती कर, कुछ दिन ऑब्जर्वेशन में रखने के लिए कहा। उसने वार्ड में एडमिट होने के मुद्दे पर भी आनाकानी की उस रोज़ कातर होकर उसने रौद्रा से माफी भी मांगी लेकिन रौद्रा बहुत चिंतित थी, उसके एक सौ अस्सी डिग्री पर आकर बदलते व्यक्तित्व से। रौद्रा के बहुत समझाने पर वह मैडिकल कॉलेज के सायकियाट्री वॉर्ड में एडमिटेड हो गया था।
वह एक ही सवाल कर रहा था हर बार, अपने डॉक्टरों से कि वह हर बार बेतहाशा कराहता क्यों भागता चला जाता है। ये कौनसे जंगल हैं? जिनके रास्ते इतने पहचाने हैं कि वह रोज बिना भूले हर पगडंडी सही पकड़ता है, जो गुफ़ा की तरफ जाती है। अंत में गुफ़ा में जा दुबकता है? यह कौन सा डर है?”
रौद्रा ने मनोश्चिकित्सक से न्यूरॉलॉजिस्ट से बात करने की सलाह मांगी कि कहीं दिमागी चोट न लगी हो। मनोश्चिकित्सक ने न केवल न्यूरॉलॉजिस्ट बल्कि वायव का लंग ट्रांसप्लांट करने वाले सर्जन के साथ भी मीटिंग फिक्स कर ली। वायव के कई टैस्ट हुए और फिर अगली – पिछली सारी दूसरी शारीरिक और न्यूरॉलॉजिकल जाँचों के नतीजों को देखा गया। रोड एक्सीडेंट में सर पर तो बिलकुल चोट ही नहीं थी। उन दोनॉ के ही शरीर के छाती से निचले हिस्से दबे थे कार के पिचके हिस्से में। दोनों होश में थे। मानसिक तौर पर भी वह किसी क्लीनिकल अवसाद में नहीं था, न वह जागते हुए किसी भ्रम में रहता। बस सपने ही थे जो रोज़ उसे परेशान कर रहे थे। इन सपनों ने ही उसे असामान्य अस्वस्थ बना दिया था।
मनोश्चिकित्सक के साथ न्यूरॉलॉजिस्ट और सर्जन के साथ हुई तीसरी मीटिंग में जाकर निकले कुछ तथ्य, उनमें कुछ अजीब से थे। उनसे जुड़ी संभावनाओं में से एक को सुन कर सब चौंक गए। क्या ऐसा भी संभव है? ऐसा कहीं सच में होता है? नए – पुराने मैडिकल जर्नल्स में ऐसे कुछ केस दर्ज तो हैं। या यह एक दूर की कौड़ी ही है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं। कुछ ऐसी वायवीय वास्तविकताओं पर मैडिकल साईंस भी यकीन करती आई है। क्या कोशिकाएँ भी स्मृतियां सहेजती हैं? मृतकों के जीवित अंगों की कोशिकाएँ अपने साथ स्मृतियों का कोष लाती हैं? माइक्रोस्कोप से दिखने वाली कोशिका जिसका चित्र हर छठी कक्षा का बच्चा बनाता है! वह स्मृतियां कहां होती होंगी? जीवद्रव्य में? माईटोकोंड्रिया में? रिक्तिकाओं में तो कतई नहीं। तो फिर क्या आर एन ए या डी एन ए में? करेक्ट! डीएनए में जब पुरखों का जीनपूल सुरक्षित रहता है तो यादें ……
वायव का केस क्या सेल्यूलर मैमोरी का मामला था? क्या ट्रांसप्लांटेड अंग की कोशिकाओं की स्मृतियों में अंगदान करने वाले की ज़िंदगी का कोई हादसा क़ैद था?
“यह स्कैप्टिकल हायपॉथिसिस ( काल्पनिक अवधारणा) है। पुनर्जन्म जितनी ही हवाई है।इससे जुड़े संयोग बहुत हैं पर कोई मुकम्मल, मान ली गई रिसर्च नहीं है।” न्यूरॉलॉजिस्ट बोला।
“इतनी तकनीकी के बावजूद हम मौसम तक का तो हू ब हू अंदाज़ लगा नहीं पाते। लेकिन इस बात का दंभ भरते है कि हमने अंतरिक्ष की व्याख्या कर ली है। ब्रेन मनुष्य का अंतरिक्ष है। जब न्यूरॉलॉजिस्ट ही नहीं समझेंगे यह बात को …..” अधेड़ सर्जन बड़बड़ाया।
“ क्या इनको बताया गया था कि वह कौन डोनर था जिसका लंग ट्रांसप्लांट इनको हुआ। हो सकता है कोई मन की ही काल्पनिक उड़ान हो।ट्रांसप्लांट ऑपरेशन के बाद मरीज़ इस उलझन में तो पड़ता है कि उसको जाने किस का अंग लगा है, वह मरा कैसे होगा, वह कैसा रहा होगा, इस सब सोच की कड़ियों में कई बार अवचेतन चीजें गढ़ने लगता है। क्या इनको पता है कि डोनर कौन था?” सायकियाट्रिस्ट ने सर्जन से पूछा।
“ नहीं। एथिकली बताया नहीं जाता।” सर्जन ने बताया।
“ तो आपको पता था डोनर कौन था? उसका बैकग्राउंड?” न्यूरॉलॉजिस्ट ने अधेड़ सर्जन को सनकी मानते हुए,निचला होंठ चबाते हुए एक झपट से बोला।
“ हाँ, डॉ इसाक़ इंसीडेंटली उस लड़की के तीनों अंग मैंने और मेरी टीम ने निकाले थे। जो अलग-अलग लोगों में ट्रांसप्लांट हुए। वह लड़की पुलिस द्वारा मेरे पास कोमा में लाई गई थी। जिसके सर में चोटें थीं, उसके जिस्म से बहुत ज़्यादा खून बह चुका था, उसकी हल्की सांस लेती बॉडी का कोई वारिस नहीं था। मुझे यह भी पता है, वह लड़की ह्यूमन ट्रेफिकिंग में अनाम और लापता हुई थी। उसका गैंगरेप हुआ था। उसके जननांग बुरी तरह क्षत – विक्षत थे। वह देखने में आदिवासी लड़की थी। गोदनों से भरी देह। वह पंद्रह दिन हमारे आई सी यू में कोमा में रही थी, जिसकी ब्रेन डेथ के बाद हमने उसकी एक किडनी एक बच्चे को लगाई, लिवर एक कैनेडियन महिला को भेजा जो वहीं ट्रांसप्लांट हुआ था। उसका एक फेफड़ा हमने लंबी वेटिंग के बाद वायव को ट्रांसप्लांट किया था।”
“ माना लेकिन आप कैसे कह सकते हैं कि इस लड़की के साथ हुए हादसे ही सैल्युलर मैमोरी के ज़रिए वायव के सपनों में पहुंच रहे हैं?”
सायकियाट्रिस्ट चकराया, “ यह कोई दिमाग़ी कैमिकल रिएक्शन भी तो हो सकती है या फिर कोई अज्ञात मनोवैज्ञानिक डर हादसे और ऑपरेशनों से गुज़रने के बाद का। या डोनर को लेकर मरीज के अवचेतन की अटकलें !!
“देखिए हम सिर्फ संभावना की बात कर रहे हैं। हार्ट ट्रांसप्लांट के मसलों में लोगों के पूरा व्यक्तित्व बदल जाने के कई कई केसेज़ मैडिकल जर्नल्स में लिखे हैं।” सर्जन एक उम्रयाफ़्ता, खुले दिमाग़ का ईश्वर और दुआओं और चमत्कारों में विश्वास रखने वाला बंदा था। वह ऐसे वैज्ञानिक चमत्कारों में खूब रुचि लेता था।
न्यूरॉलॉजिस्ट अपनी रिपोर्टों पर साईन कर, सर हिला कर कॉन्फ़्रेंस रूम से बाहर निकल गया। रौद्रा हैरान – परेशान बैठी थी। सायकियाट्रिस्ट ने सर्जन से कहा – फिर भी उसे काउंसलिंग की ज़रूरत तो पड़ेगी। आप यकीन से कह सकते हैं कि…..
“ देखिए डॉ जेना, मैं पुराने स्कूल ऑफ थॉट का मैडिकल स्टूडेंट हूं। सौ प्रतिशत यकीन जैसी हमारे यहाँ किसको किसमें होता है , हाँ मैं मानता हूं कि हर कोशिका का अपना इतिहास होता है। उसकी बनावट उसे विरासत में मिलती है, यह विकसित होती है, बँटती है, कभी एककोशीय जीव बन कर रहती है तो कभी मनुष्य जैसे जीव का भ्रूण बन कर असंख्य संख्या में, हर जीवित कोशिकाएँ इस पूरी प्रक्रिया को एक से आगे दूसरी में बढ़ाती हैं। सभी लगभग हर प्रक्रिया का स्मरण रखती हैं। तभी तो वे अपनी भूमिका का सही सही निभाव करती हैं। वे एक इतिहास वहन करती हैं, कहां से आरंभ हुई, कहाँ अंत होना है। यही वजह है कि जब हम किसी नितांत अनजान के चेहरे को देखते हैं तो हमारे दिल की सैल्युलर मैमोरी कहती है, लो हम फिर मिल ही गए! क्योंकि हर जीवित कोशिका के पास उसके पुरखों के संघर्षों का इतिहास है। एक किस्सा तो मेडिकल मिथकों में यह भी है कि एक बंदे की रहस्यमय मौत हुई, उसका हार्ट एक दूसरे मरीज़ को ट्रांसप्लांट हुआ। वह मरीज़ जब स्वस्थ होकर घर पहुंचा तो उसे उस व्यक्ति के मर्डर के सपने यूँ आते थे कि सब कुछ उसके साथ घट रहा हो। वह पुलिस के पास पहुंचा और जो सपने मय डीटेल उसने बताए उस बंदे के मर्डर की मिस्ट्री सॉल्व हो गई। यह किस्सा नब्बे प्रतिशत गढ़ा भी गया हो तो दस प्रतिशत संभावना फिर भी बचती है। दुनिया ज़माने के मैडिकल साईंसदां प्राकृतिक चमत्कारों में यकीन रखते है, ह्यूमन बॉडी और ब्रेन की अज्ञात शक्तियाँ बहुत हैं। हर साधारण डॉक्टर और सर्जन के पास अपने कई कई किस्से मिलेंगे। मेरे हिसाब से इनके लिए काउंसलिंग से ज्यादा बीतता समय ही दवा का काम करेगा।
सायकियाट्रिस्ट भी उस अधेड़ सर्जन से प्रभावित सा लगा। वह सोच मे डूबा हुआ था।
“क्या यह सैल्युलर मैमोरी हल्की होकर खत्म होने की संभावना नहीं होती?” रौद्रा ने पूछा
“ हां होती है, समय के साथ जब पुराने लिखे पर नया लिख दिया जाए।”
रौद्रा की निगाह में भी यह बात अजीब सा संयोग ही थी। पुनर्जन्म की याद सा। सर्जन उनको एक असमंजस में छोड़ चला गया। उसने और सायकियाट्रिस्ट ने वायव से यह बात छिपाने का निर्णय ले लिया।
“ कोई मतलब नहीं उसके मन में एक वहम और और सपनों में एक ख़लल और डालने का।”
“ हां, मैं इन सपनों को वहम या हैल्युसिनेशन नहीं कह सकता। इसलिए, नींद लाने वाली दवाओं, पोस्ट ट्रॉमेटिक दवाओं को ही चलाए रहना होगा। यह डिप्रेशन भी नहीं है, बस हादसे का ही असर है, या कौन जाने सर्जन का कहा …… आप इन्हें दो तीन दिन बाद घर ले जाएं। “
अस्पताल में गुज़री उन दो रातों में एक रात वायव को सपने में नाभि में चाकू गड़ने जैसी टीस उठी। वह नींद में ज़ोर रसे इतना चीख़ा कि वार्ड के स्टाफ़ को उसे इंजेक्शन देकर फिर सुला देना पड़ा। सुबह उठा तो उसे बेतहाशा किसी स्त्री की गोद की ज़रूरत हुई। उसने कॉल किया।
“ रौद्रा.”
“वायव! मैं पहुंच रही हूँ तुम्हारे पास। मुझे तुम्हारी चिंता है, मुझे तुम्हारे साकियाट्रिस्ट की भी कॉल आ गई है। “
“रौद्रा, कितना कॉम्पलीकेटेड हो गया हूं न मैं। कल रात मुझे लगा कि कोई अपना लिंग मेरी नाभि में गाड़े दे रहा है, वहां से खून के फ़व्वारे छूट रहे हैं। पता नहीं, मैं यह सब क्यों देखता हूं। सुनो मुझे घर चलना है।
“ चलेंगे घर वायव, आज ही डॉक्टर ने डिस्चार्ज को बोल ही दिया। दवाएं लंबी चलेंगी पर तुम कोशिश करो अब काम में जुटने की, हम जिम जाया करेंगे ताकि थक कर सोओ तो ऐसे अटपटे सपने न आएं।
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वायव को अस्पताल से लौट कर या तो बुरे सपने आने बंद हो गए, या यूं कि दवाओं के असर से वे याद रहना ही बंद हो गए। बल्कि धीरे – धीरे उसको सपने बिलकुल आने बंद हो गए। मगर एक खिलंदड़ा लड़का संजीदा हो चला था, उसका आलसीपन मेहनतकशी में बदल गया। उसके तटस्थ चेहरे को देख रौद्रा कभी – कभी चौंक जाती। हांलाकि ऑपरेशनों और हादसे ने उनका दांपत्य अदैहिक हो चला था। लेकिन वे एक – दूसरे को बेहद प्यार करते थे सो और युवाओं की तरह एक दूसरे को हर पल चूमते और सहलाते रहे थे। अब वे दोनों स्वस्थ थे सेक्स के लिए, लेकिन वायव बहुत बदल सा गया था। बाँहों में लेकर वायव उसे बहुत कोमलता से छूता था। सर में उंगलियां डाल बाल सहलाता, पीठ और कमर दबाता। तलवों में मालिश करता। उसके स्तनों को यूं छूता जैसे वे दो नाज़ुक फ़ाख्ताएं हों। मगर वह उसे अंतरंगता से छूती तो चिहुंक जाता, पलट कर सो जाता।
वह ठीक साढ़े दस बजे दवा लेकर सोता और बिना दूसरी करवट लिए सुबह जल्दी उठता। किचन में अधूरे पड़े काम समेटता, नाश्ता बनाता। उस जैसा नास्तिक अब जल्दी नहाकर टैराकोटा की एक दुर्गा की मूर्ति के आगे दिया जलाता। अब वह स्त्री विषयक अपराधों और अधिकारों पर लेख लिखने लगा था। एक बलात्कार पीड़िताओं के रिहैबलिटेशन सेंटर में जाने लगा था और वहां की कहानियाँ कवर करता, उस सेंटर के लिए एक लोकगीत नुमा बड़ा सुंदर गीत लिखा था उसने। जो सुनता कहता गीत और वायव? मगर उसने लिखा था, लोक की औरतों का गीत।
जो उस सेंटर के ब्रोशर में छप कर सेंटर की पहचान बन गया था। वह सच में हर बलात्कार पीड़िता को उजाला देने वाला गीत था। उस गीत की चर्चा के चलते आमिर खान ने ‘सत्यमेव जयते’ के बलात्कार केंद्रित एपिसोड में उसे बुलाया भी था।रौद्रा भी साथ गई थी । वहाँ स्टूडियो में दर्जनों रेप विक्टिम लड़कियां थीं। कुछ उदास, कुछ टूटी, कुछ मजबूत। एक सहज पुरुषोचित दंभ से भरा रहने वाले वायव कितना बदल गया था, वह उन लड़कियों से कोमलता से बतिया रहा था। रौद्रा को खुशी थी कि उसने इस मुहिम में खुद को व्यस्त कर लिया था। वहां वह एक लड़की की करुण कहानी सुन रो भी दिया। उस दिन उसने अपनी संस्था के ब्रोशर के पहले पन्ने पर लिखा अपना वही गीत गाकर सुनाया। उसके सुर तक सध गए हैं, यह देख – सुन कर रौद्रा चकित होकर याद करने लगी बाथरूम में गाने वाले वायव के सुर से भटके गाने।
ओ री मेरी मैया सुन तोड़ने मरोड़ने से
ना टूटने वाली तेरी ये लचीली गुड़िया
बस गिरी थी धूल में चढ़ पड़े थे कुछ पागल कुत्ते
झाड़ कर कर कुर्ता फिर उठ बैठी न तेरी मुनिया
निकाल दे गोखरू मेरे चाम से जैसे मैं तेरी गैय्या
हाँ था तो वह बुरा सपना जो मैंने रात देखा
जो लौटी तो तेरी गोद में भूल गई सब ओ मैय्या।
अब न जाऊं जंगल अकेले ताल हो के तलैय्या
उदास न हो सीखा है सबक रख ली नेफे में कटार ,
मिर्चा भरा अपनी चोली में सीख लिए दाँव और वार
जो जाना पड़ा जो अकेले में ओ रामा तू लेना बलैय्यां
और यह गीत रातों रात प्रसिद्ध हो गया । पता नहीं कितनी लड़कियों ने इसे चीख चीख कर गाया। वायव खुश था संतुष्ट था। फ्रीलांस काम भी उसे रास आ रहा था, घर में बने रहना भी।
सब कुछ ठीक चलता रहता तो वह जीवन ही कहाँ होता? रौद्रा की मां के उन ज्योतिषाचार्य की गणनाएँ सही साबित न हो जातीं , जिनके अनुसार राहू महाराज अपनी महादशा से उठ भागे थे और अब उनके दिए ताबीज़ों और ताँबे – चांदी के सूर्यों ने किस्मत के राहू को आँख दिखा, कॉलर पकड़ सीधी राह पर धकिया दिया था। पर उनका जीवन तो जीवन था, अड़ियल – लीक से छिटका हुआ। एक रोज़ फिर गाड़ी ने लीक छोड़ दी।
“ सुनो मैं पापा बनना चाहता हूं।” एक रात उसके स्तनों की कोमल – कोमल छुअनों के बीच नाक घुसता हुआ वायव बोला।
“ तुम्हें याद नहीं हमने क्या तय किया था? जब पांच – सात साल अच्छा कमा लेंगे, तब अपना घर ख़रीदेंगे । तब जाकर एक अनाथ बच्चा गोद ले लेंगे। अभी समय है पारू – पारू!” लाड़ से सर चूम लिया रौद्रा ने।
“मुझे अपना बायलॉजिकल बच्चा चाहिए। तुम्हें इच्छा नहीं होती? तुम्हारे भीतर की औरत का मन नहीं करता मां बनने का? ”
“वायव!” रौद्रा की आँखें इस क्रूर सवाल पर गीली हो गईं। वह छिटक कर अलग हो गई।
“ हमारे बीच सेक्स तक तो होता नहीं, तुम बायलॉजिकल पिता बनने की बात कर रहे हो?”
“तुम ऐसे कह रही हो जैसे……मैं भी जानता हूं कि हमारे बीच उस तरह तो बच्चा हो भी नहीं सकता। रही हमारे बीच सेक्स की बात तो इतना बड़ा गैप रहा वह धीरे धीरे पटेगा न? “
“मुझे कोई रिग्रेट नहीं इस बात का वायव। मैं पागल नहीं हूं कि तुम्हारी मानसिकता न समझूं। पर मुझे इस बात का कोई कॉम्पलेक्स नहीं कि मैंने युट्रस खो दिया। यूं भी मुझे पीरियड्स ट्रबल करते थे। आय’म ओके विद इट। कम से कम कैरियर तो बना पा रही हूं। मुझे तो यह समझ नहीं आता कि यह सब जान कर भी तुम्हें क्यों होती है पिता बनने की इच्छा ? या तुम मुझे चोट पहुंचाना चाहते हो? सॉरी मै….नहीं समझ पा रही तुम्हें।”
“तुम समझना भी नहीं चाहतीं।” वायव के चेहरे पर उसे अजीब हिक़ारत दिखी, वह भीतर सहमी। उसे बहलाने को बोली।
“ठीक है, तुम्हें तुम्हारा अपना बायलॉजिकल बेबी ही चाहिए होगा तो करेंगे इंतज़ाम सरोगेसी का, किस्मत से मेरी ओवरीज़ सुरक्षित हैं।मेरी बेस्ट फ्रेंड आई वी एफ़ क्लीनिक चलाती है। उसके यहां सरोगेसी के लिए मिल जाती हैं कुछ……”
“ सरोगेसी? यानि ग़रीब मज़लूम औरतों की कोख का व्यापार? पता है हमारे सेंटर में किसी ने बताया कि आई वी एफ सेंटर वाले अनमैरिड आदिवासी औरतों से यह करवाते हैं। उनके शरीर से खिलवाड़, महज कुछ लाख रुपयों के लिए। छि:। इनसेंसिटिव वुमन!”
“ कौन है इनसेंसिटिव? तुम या मैं ? तुम्हें सरोगेसी से भी बच्चा नहीं चाहिए, गोद भी नहीं लेना है। तो बंद करो न ढोंग पापा बनने की इच्छा का! तुम केवल मुझे जलील करना चाहते हो? या तुमने मुझसे अलग होकर किसी और से बच्चा लाने का सपना पाला है। कोई नयी आ गई क्या तुम्हारी ज़िंदगी में?” अब सब्र छूट गया रौद्रा से छन्न करके, वह ज़ोर से बोली।
“ रौद्रा, ऐसा नहीं है। अपना बायलॉजिकल बच्चा हो सकता है बिना सरोगेसी भी। मैं रखूँगा न अपने भीतर। मैंने कहीं पढ़ा था कि अब ….. ” वायव के स्वर सांप की देह की तरह ठंडे, क्रूर और लिजलिजे थे।
“ क्या?”
रौद्रा का सर घूम गया एक पल को लेकिन बाथरूम से बाहर आकर तौलिए से मुंह पौंछता वायव एकदम सहज था और किसी सोच में डूबा था।
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रौद्रा वायव को अपने से दूर जाते देख रही थी। वायव एक रिसर्च आर्टिकल की कॉपी लेकर उसके पास आया था जिसमें उसे आई वी एफ के ज़रिए विकसित भ्रूण को पुरुष अपने एब्डॉमिनल वॉल पर स्थापित करवा कर विकसित कर सकता है। इस के लिए उसे उसकी सहमति और साथ की ज़रूरत थी।
“देखो वायव, मैंने आज घर से काम करने का निर्णय इसलिए नहीं लिया कि मैं, तुम्हारी इस बेवकूफाना फैंटसी को झेलूं और इस पर डिसकशन करूं? मेरी रीढ़ में दर्द है। मैं लेटकर, फोन और टैब पर काम करूंगी।”
“ डिसकशन? मैं निर्णय ले चुका हूं। “
“ शटअप। तुम ऐसा कुछ नहीं कर रहे हो। मुझे ऐसी रिस्क के साथ बच्चा नहीं चाहिए।”
“ वह मेरा बच्चा होगा।मैं पालूँगा ”
“ मैं तुम्हें छोड़ दूंगी।”
“यह ब्लैकमेल है। तुम समझती क्यूं नहीं?”
“ मेरे गले नहीं उतरती यह बात।”
“ क्योंकि तुम्हारी कंडीशनिंग इस तरह हो चुकी है न! या तुम्हें लगता है, तुम्हारा महत्व ख़त्म हो जाएगा, मेरे प्रेगनेंट होने से? बिन तुम्हारे रोल के बच्चा! बच्चा जन्मना तो मां का पर्याय! तुम डर रही हो न कि एक यही दाँव तो है, खेलने का और जीतने का – तुम औरतें सोचती हो कि – तुम्हारी प्रॉजिनी ( संतति) हमारे होने से आगे बढ़ाती हैं। कि अब ऐसे उदाहरण बढ़े तो तुम लोग हार जाओगी? “
“ हट! महत्व ही की बात होती तो बच्चा गोद लेना होल्ड पर क्यों रखती मैं? अब यूट्रस भी ट्रांसप्लांट होने लगे हैं। लेकिन जब ईश्वर ने जो चीज़ छीन ली, उसे उससे वापस लूं ऐसी मेरी चाह नहीं।”
“होल्ड ही तो, वही तो न कि वह मेरी इच्छा मैं करूं न करूं, जब जी चाहे करूं, जिससे चाहे करूं। चाहे तुम बूढ़े होकर मर जाओ।”
“ तुमसे बहस नहीं कर सकती मैं। तुम नाश्ता कर लो। बस! यह सब नाटक बंद करो यार मेरा बॉस ऑनलाईन है।”
“ तो तुम काम करो, चिंता मत करो मेरी, मैं अपनी यह इच्छा डोनर से ओवम (अंडाणु) लेकर भी कर सकता हूँ। तुम छोड़कर जाना चाहो चली जाना।”
“ तुम जानते हो, यह सुसाइडल है। मैं तुम्हें कोर्ट ले जा सकती हूं, तुम ज़िद पर अड़े रहे तो। “
“ रौद्रा मुझे पता हैं संसार भर से लड़ने से पहले, मेरा पहला युद्ध तुमसे होगा।”
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वायव के इस अजीबोग़रीब निर्णय की गंध मीडिया तक पहुंची और तमाम चैनलों को एक नया शिगूफ़ा मिल गया। टीवी पर बहस चल पड़ी।
एक लोकप्रिय टीवी चैनल पर एंकर पूछ रहा था वायव से, “आपको यह ज़रूरत क्यों आ पड़ी जबकि लीगल सरोगेसी उपलब्ध है, बच्चा गोद भी लिया जा सकता है।या यह कोई प्रसिद्धि पाने का नया तरीका है? सुना आपकी पत्नी इस निर्णय में आपके साथ नहीं। “
रौद्रा ने टीवी का वॉल्यूम कम किया, इस फ्लैट की दीवारें काग़ज़ सी पतली हैं। कोई सुन न ले, अगले पल उसके मन का प्यूज बल्ब कौंधा कि वह पड़ोसी की चिंता कर रही है, यह तो नेशनली टेलेकास्ट हो रहा होगा।
“ओ बाप रे! ये वायव कर क्या रहा है? अभी फोन आने लगेंगे।” उसने अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया। वायव दाढ़ी बढ़ाए, पीला कुर्ता और जीन्स पहने एंकर के आगे बैठा बोल रहा था।
“ इस निर्णय में मेरे साथ केवल मैं हूं। देखिए मेरी पत्नी एक्सीडेंट में अपना यूट्रस खो चुकी हैं। आज विज्ञान ने तरक़्क़ी कर ली है, कि पुरुष भ्रूण को अपने पेट की बाहरी वॉल पर धारण कर सकता है तो क्यूं नहीं? “
“ हमारे बीच इस समाज के गणमान्य कलाकार, वैज्ञानिक, आधुनिक युवा, जागरुक महिलाएं उपस्थित हैं मेरा सवाल सीधे – सीधे सबसे है कि – क्या पुरुष प्रेगनेन्सी इस समाज को स्वीकृत……
“ वागीश जी, आप सवाल ही ग़लत पूछ रहे हैं, इसे यूं पूछें। अगर आसन्न संकट उपस्थित हो और संसार भर की स्त्रियां मना कर दें माँ बनने से या किसी आपदा के चलते वे बच्चा गर्भ में धारण करने की क्षमता खो बैठें, और तो कितने पुरुषों में साहस होगा कृत्रिम तरीके से एब्डॉमिनल वॉल पर चिपकवा कर भ्रूण को विकसित करने, जन्म देने की? या वे अपनी समस्त मनुष्य प्रजाति विलुप्त होते देखते रहेंगे। “ रौद्रा को अपने नाखून चबाते हुए अब यह यकीन होने लगा कि वायव के दिमाग़ में कोई लोचा आ चुका है। या वायव को अब शिगूफों का चस्का लग गया है और बस वह किसी भी तरह लाइमलाइट में रहना चाहता है। पहले वह एन जी ओ और वह गीत, अब ये? उसने उकता कर टीवी ऑफ कर दिया। लाईट जली छोड़ कर चेहरे पर हाथ रख कर सोने की कोशिश की। मगर मन न माना, फिर ऑन कर दिया, कम आवाज़ करके।
“सच बताइएगा प्लीज़। इधर उधर की हांके बिना। यह कोई स्त्रीवादी बहस नहीं है, एक छोटा सा सर्वे है अपने तईं। क्योंकि कृत्रिम गर्भाशय ट्रांसप्लांट अगले दस सालों में संभव होने जा रहा है। एक ट्रांसजेंडर पुरुष को हो चुका है। महिलाओं से महिलाओं को तो कई बार। एक्सीडेंट में एक गर्भवती के मरने पर पिता द्वारा सात माह तक भ्रूण पेट की दीवार पर पोषित करने का मामला ऑस्ट्रेलिया में सामने आ चुका है।” उधर एंकर वागीश ने फिर छिनी हुई बागडोर हाथ में ली और चटपट बहस आरंभ की।
“ मेरा उत्तर नहीं होगा। मुझमें स्त्रियों जितना धैर्य और साहस नहीं।“
एक लेखक ने संक्षिप्त में इस अटपटे सवाल का उत्तर दे खुद को बरी कर लिया।
“मनुष्य जाति को तो ख़त्म होना ही है और वह खुद भी तो इस प्रक्रिया को तेज करने में जुटा है। हम सब को भी इसकी चिन्ता छोड़ देनी चाहिए। “ एक वरिष्ठ कलाकार बोले।
“ मेरा मानना है कि पुरुष चाहे बच्चे को स्वयं के कोख से जन्म नही दे सकता है किंतु वो सन्तति की उतना ही लालसा रखता है जितना की स्त्री। अगर उस भयावह स्थिति की कल्पना इसमें शामिल है कि अगर इस धरा पर कोई स्त्री नही होगी, या गर्भधारण करने में अक्षम कृत्रिम तरीके से ही सही हर पुरुष इस सन्तति जनन को जारी रखेगा। “ एक एलीट किस्म के समाजशास्त्री ने व्याख्या प्रस्तुत की ।
“यदि ऐसा होता है तो सारे नहीं पर कुछ पुरूष ऐसा करेंगे।” एक स्मार्ट युवक बोला।
“ बच्चे पैदा करने की ललक नैसर्गिक है, जेंडर से उसका क्या लेना यार? तुम्हारी उमर में यह वेग से आती है। अपने जीनपूल को अविनाशान बनाने जब हर जीवधारी तरह तरह के एडॉप्शन करता है तो क्यों नही पुरुष?” एक वरिष्ठ डॉक्टर ने कहा।
“आज थोडा ही सही पर मानसिकता बदली है बहुत से पुरूष स्त्री को समान रूप से और सम्मान से देखते हैं, स्वीकार करते हैं कि स्त्री हर तरह से श्रेष्ठ है सशक्त है और इसलिए नहीं कि सिर्फ़ वंश बढाना है, यह काम स्त्रियों के सम्मान में भी हम कर सकते हैं। हालाँकि एक स्त्री बनना किसी पुरुष के बस की बात ना होगी ।
नाईस क्वेश्चन …….एक थियेटर एक्ट्रेस ने मुस्कुरा कर बस यही कहा।
“ ये बात कभी आई ही नहीं दिमाग में ..अभी तो दिमाग बिल्कुल तैयार नहीं है इसके लिए।शरीर से तो बाद में पूछा जायेगा ।” एक जनाब ईमानदारी से बोले।
“कोई भी ईमानदार पुरुष स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि असल में उसके दिमाग में कहीं है ही नहीं यह बात और ना ही उसने इस पर कभी सोचा होगा. लेकिन जब यह स्थिति आ ही जाएगी तो इन्हीं में से कई/कुछ पुरुष सृष्टि को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठा लें शायद. बहुत बार तात्कालिक परिस्थितियाँ बताती हैं कि हम क्या कर सकते हैं.
जैसे कई अकेली स्त्रियाँ बच्चा अडॉप्ट करती हैं लेकिन कोई सिंगल पुरुष ऐसा नहीं करता फिर भी कभी-कभी 24-25 साल की नवविवाहिता पत्नी की प्रसव के समय मृत्यु के साथ अचानक उसमें ममत्व जगता है और उस बच्चे को माँ की तरह वही पुरुष पालता है. “ एक लेखिका ने अपनी बात कही।
“22 का होता तो मैं भी करवा लेता….” एक प्ले राईटर ने उत्तर दिया।
“ वागीश जी, वायव जी , आपके सवाल से कुछ और सवाल पैदा हो रहे हैं । क्या स्त्रियॉं गर्भ धारण से ऊब गई हैं ? अगर हां तो इसका मतलब है कि वे नारी होने से असंतुष्ट हैं और पुरुष होने की लालसा से भरी हुई हैं ।स्त्री अगर पुरुष होना चाहे तो यह नारी शक्ति से अपरिचित होने के कारण ही संभव है ।कोई पुरुष नुमा स्त्री ही गर्भ धारण से भागना चाहेगी और कोई स्त्री नुमा पुरुष ही गर्भ धारण करना चाहेगा ।” एक धार्मिक किस्म के पॉलिटिकल प्रवक्ता ने भड़भड़ा कर कहा।
रौद्रा ने चैनल बदला, इधर भी एक फेमिनिस्ट एंकर अपने शो में इसी विषय पर बोल रही थी –
“हजार पुरुषों में अगर एक पुरुष भी प्रेगनेंन्ट होना स्वीकार करता है तो यह कल्पना सार्थक है कि यह दुनिया बराबरी पर टिकी है। इस दुनिया की खूबसूरती इसमें है कि यहाँ हर जीव अपनी संतति बढ़ाने के लिए हर तरह के स्टंट करता है। कोई मछली किसी मॉलस्क को नकली इनक्यूबेटर की तरह इस्तेमाल करती है, तो कोई मछली पिता मुंह में अपने अंडे ढोता है, केंचुआ एक ही साथ माता और पिता दोनों होते हैं। तो क्यूं नहीं मनुष्य संतति के संकट में …….लोग इतना शोर क्यों मचा रहे हैं वायव जी की पिता बन गर्भधारण की इच्छा को लेकर? क्या बात कंडीशनिंग, शिक्षा और मानसिकता की है? हमारे समाज में कितने पुरुष इस बात से सहमत होंगे? आप क्या कहेंगी लक्ष्मी जी?
“ दरअसल वायव गलत देश में पैदा हुआ, और तुम ने सवाल गलत देश के लोगों से पूछा है। यही सवाल इस देश की आम जनता की निगाह में तथाकथित ‘बेशर्म’ पश्चिमी देशों के मर्दों से पूछती तो हां का रेशो बहुत ज्यादा आता।” नॉवलिस्ट लक्ष्मी जी ने गंभीर चेहरा बना कर व्यंग्य किया।
“सवाल तो महान पुरुष बौद्धिकों से भी करना चाहिए पता नहीं ये तकलीफ़ से डर गए, या अपने भीतर किसी जीव की उपस्थिति से। पुरुषों की ख़ामोशी क्या कह रही है? डॉ. साहब? मिलिंद जी?”एंकर ने मुस्कुरा कर पूछा।
“मौन का कारण इंकार से अधिक (सम्भवत: ) जैविक अनुभूति/स्मृति का अभाव है। आपके द्वारा कल्पित अवस्था अगर सम्भव हुई तो प्रकृति स्वयं रास्ता निकल देगी। वैसे, मेरा उत्तर हाँ है। हाँ इसलिए भी कि जिस प्रकृति ने मुझे रचा उसके संकट में उसका साथ देना ही है।”
डॉ. शर्मा जो मनोश्चिकित्सक थे वायव के, और कार्यक्रम में मौजूद थे। उसके पक्ष में बोले।
“ देखिए आसन्न संकट में पुरुष कुछ भी कर सकता है …!
चाहे वो किसी भी स्तर का समझौता हो या युद्ध…परंतु प्रकृति से वह निर्माण से ज्यादा भोग,विनाश और सेवक (maintainer) स्वभाव का है, अर्थात वह शिव और विष्णु है किंतु ब्रह्मा नहीं हो सकता है ।” एक युवा वकील मिलिंद ने कहा।
ब्रह्म होना पिता होना भी है। केवल बीज धरती में डालना अपना कर्तव्य समझने वालों से समुद्री वे नर मछलियाँ बेहतर होती हैं जो अंडे को फर्टिलाईज़ कर मुंह में रखे रहती हैं, और जब तक वे हैच नहीं होते भूखे रहती हैं पिता मछलियाँ। ” एक महिला जीवशास्त्री ने पुरुषों की तरफ जुमला उछाला।
एक चैनल पर अलग ही बहस चल पड़ी थी। यहां भी एंकर एक प्रसिद्ध फेमिनिस्ट पत्रकार थी। उसका सवाल था कि भविष्य में महिलाएं फेमिनिज्म की वो राह पकड़ें कि हड़ताल पर चली जाएं और बच्चा जन्मने से मना कर दें तो क्या करेगा पुरुष? क्या कृत्रिम ढंग से संतति को जन्म देने की जिम्मेदारी उठाएगा?
“हड़ताल और कृत्रिमता, दोनों प्रकृति के विलोम हैं । जैसे आधुनिकता और अंधेपन में गहरा अप्राकृतिक संबंध है ।” एक प्रसिद्ध युवा पेंटर एंकर से बहस में बोल रहा था।
“ मेरा मानना है प्रकृति में विलोम कुछ नहीं मित्र सब पूरक हैं। और हमारे करंट विषय के हीरो वायव का कहना हैं प्रकृति में समुद्री घोड़ा गर्भ धारण करता है, जन्म की पीड़ा भी सहता है तो हम पुरुष क्यों नहीं? ”
“कोई प्राकृतिक हडताल होती हो तो बताओ?”
“होती है, बरसातें बंद हो जाती हैं। पारिस्थितिकी का तंत्र बदलता है। माना लाखों बरसों में। तुम तो स्वयं भूगर्भशास्त्री हो! पेंटर के साथ साथ,एक वैज्ञानिकता है तुम्हारे चित्रों में।” एंकर बोली।
“पारिस्थितिकी का तंत्र कैसे बदलता है?” पेंटर ने आँखें छोटी करके पूछा।
“सक्सेशन जब होता है, समुद्र रेगिस्तानों में, रेगिस्तान दलदलों में और दलदल बरखा वन में बदलते हैं।”
“ यह क्या हड़ताल हुई? यह सब प्राकृतिक प्रक्रियाएँ हैं। यह मुद्दा ही अप्राकृतिक और अव्यवहारिक है। “
“ हाँ अव्यवहारिकता के चलते किसी रोज धरती घूमने से मना कर सकती है, औरत बच्चा जनने से। तब? “
“ तब तो सब थिर हो ही जाएगा न! सॉरी ! मुझमें नही … ना कोई ललक, ना कोई इच्छा । ना, बिलकुल नहीं” युवा पेंटर ने हाथ उठा दिए।
“बिना स्त्री के पुरुष का अस्तित्व अकाल्पनिक है। अगर स्त्री हड़ताल पर जाती हैं तो धरती पर उथल पुथल मच जाएगी। मुझे लगता है कि मुझ समेत 99 फीसदी से अधिक पुरुष कृत्रिम गर्भधारण नहीं कर सकते। न यह प्रकृति के अनुकूल है न पुरुष स्वभाव के।” एक छात्र ने कहा।
“नर और मादा मिल कर ही जिंदगी को पूर्ण करते हैं, दोनों की अपनी अपनी अहमियत !ट्रांसजेंडर वाली फीलिंग करोडो में किसी एक को ही उत्पन्न हो सकती है ! मुझमें तो किसी भी सूरत में नहीं ! मैं मरना पसंद करूंगा। पुरुष को इस झमेले में क्यूं डालना भाई? “
“झमेला तो आपको स्त्रियों की छाया तक से दूर रहना चाहिए।” एक मोटी महिला दर्शक बोली।
“वह तो रह नहीं सकते विवाहित हैं। हा हा। “
“पिता होना आपको झमेला लगता है?” एंकर बोला
“पुरुष का गर्भधारण झमेला है। मेरे बस की बात नहीं।”
“दर्द विहीन हो तब भी नहीं?”
“नहीं प्राकृतिक तौर पर मन ही नहीं मान सकता।”
“ किसी संकट की अवस्था में? मसलन आप धरती के अंतिम कुछ पुरुषों में हों और दारोमदार हो आप पर कि मनुष्य को बचाना है, धरा पर तब?
“अँ, तब शायद दायित्वबोध के वशीभूत कर सकता हूं। “
एंकर मुस्कुरायी।
रौद्रा ने उत्सुकता में और चैनल बदल – बदल कर देख ज्यादातर मुख्य चैनलों पर यही बहस जारी थी और उसकी हैरानी के लिए दस में से छ: मातृत्व को झमेला मानने वाले बंदे अंत में यह मान रहे थे अगर मेरे सर पर मनुष्य संतति बचाने का दायित्व हो तो शायद हाँ। दस में से दो ने तो कहा – आई वुड लव इट!
वह रज़ाई फेंक कर उठ बैठी। उसने वही चैनल लगा दिया जिसमें वायव उपस्थित था।
“ हाँ, जब सी हॉर्स (समुद्रीघोड़े) जैसा डेढ़ इंच का जीव यह ज़िम्मेदारी उठा सकता है कि निषेचित अंडों को जन्म लेने तक धारण करे, समय आने पर जन्म दे तो मैं क्यों नहीं?”
उसकी आवाज़ की दृढ़ता पर रौद्रा चकित थी और ऐसी वैज्ञानिक संभावना पर वह सोच में पड़ गई उसने अपना आईपैड निकाला और मेप्रेग यानी मेल प्रेगनेंसी पर गूगल करने लगी! सूचनाओं को पढ़ उसकी आँख के गहरे भूरे गोलक और और और फैलने लगे।
मनीषा कुलश्रेष्ठ
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( फेसबुक पर इस कहानी की भूमिका में मैंने दोस्तों को बताए बिना उठाई थी एक बहस और उस पर आई रोचक टिप्पणियों को मैंने इस कहानी में लिया है, इसके लिए मैं आभारी हूं – डॉ विनय, अखिलेश, मनीष पुष्कले, डॉ दिक्षित, पुनीत बिसारिया, मुकेश कुमार सिन्हा, संकल्प मिश्रा, पुनीत मोद्गिल, कंचन सिंह चौहान, शैलजा पाठक, शिखा वार्ष्णेय, लक्ष्मी शर्मा परितोष मालवीय, गौतम राजरिशी, करन निम्बार्क, पराग मांदले, अनघ शर्मा, लक्ष्मण पार्वती पटेल, अतुल्य कीर्ति व्यास, मुकेश नेमा, सुभाष चंद्र कुशवाहा, मटुक नाथ, सुरेश वर्मा व अन्य मित्रों की कुछ नाम लेने से रह गए हों तो माफ़ी!)
धन्यवाद लेखिका जी ऐसी कहानी हम पाठको को पढ़ने हेतु मिली
कल्पना को विज्ञान के नए आयामों से जोड़ कर कहानी को काफी रोचक बना दिया है कहानी पढ़ते समय पाठक को चारो तरफ कहानी की तार खींच जाते है
और अंत को न दुखांत किया न सुखांत, पाठक को जिज्ञासु बना कर छोड़ दिया
पुनः धन्यवाद मनीषा कुलश्रेष्ठ
मैं आपका पाठक फेसबुक से
विज्ञान को इतनी रोचकता से लिखा है आपने कि कहीं भी भारी महसूस नहीं होती।
बहुत ही अच्छी कहानी लगी।