मैं हडबडा कर जाग गया। जाग गया या चौंक कर उठ बैठा, कुछ समझ में नहीं आया। वैसे भी कई दिनों से मन पर अपना वश नहीं था, कभी लगता सपना देखा है तो कभी लगता किसी ओर लोक में मैं होकर आया हूँ। कितने कितने दृश्य आंखों के सामने आकर ठहर जाते हैं, जैसे सैकडों गोचें चिपक गई हों आंखों में। लाईट बन्द थी और आधी खुली खिडक़ी से बादलों के बीच ठहरा हुआ चांद अपने जार्दुई सम्मोहन को फैलाए मेरी तरफ झांक रहा था। मैं मिचमिचाती आंखों से एकटक उसकी तरफ देखने लगा इतनी दूर से वह मुझे घूर रहा था निर्विकार भाव से अपनी आभा मेरी आंखों पर छिडक़ रहा था। सन्नाटे में डूबे ब्रह्माण्ड की लय को थामे यह रात्रि कहीं मेरी जान न ले ले लेकिन यह क्या चन्द्रमा अदृश्य हो गया और उसकी जगह आ गया उनका चेहरा।
शान्त उदास भावविहीन चेहरा। रोने से थकीं सूजी बोझिल आंखें। वे आंखें मेरी तरफ देख रही थीं। कुछ पूछ रहीं थींमैं सिहर उठा। अपने पूरे बदन को झटक कर खडा हो गया मैं। मैं ने झट से खिडक़ी बन्द की और बाहर बरामदे में आ गया। नीचे पेडों के पास गाय बैठी थी और आस पास के मकान रात्रि की निस्तब्धता में तमाम जीवन रागों को छुपाए बाहर से सोये हुए लग रहे थे। सिगरेट सुलगा कर मैं जोर जोर से कश लेने लगा। पूरा शरीर दुख रहा था। पांव पसार कर वहीं बैठ गया मैं। पेडों के पार छनती रोशनी में फिर वही चेहरा आ गया। मैं भय से कांप उठा – मेरे प्रिय दोस्त, तुमको यूं ही जाना था क्या? अब इनका क्या होगा? मृत्यु के पास जीवन की सारी हलचलें समाप्त हो जाती हैं। मगर यहां, जीवन पिघलता और जमता रहता है रिश्तों की धारा में! छाती में उठता गोला जोर जोर से घूमने लगा। मैं ने आंखें मूंद लींमगरदृश्य, फिर भी आकर ठहर गया। सबके बीच सामने की कतार में बैठी हैं वे। रिश्तेदार तथा करीबी लोग उन्हें घेर कर बैठे हैं। कोई पानी पिला रहा है तो कोई ग्लूकोज मगर वे हैं कि हिलती तक नहीं हैं, देह में कम्पन नहीं- उत्तेजना नहींविलाप का तूफान नहींरुदन के घात प्रतिघात नहीं- छाती पीट पीट कर रोने का अभिनय भी नहीं- सारे शोर, सारे चीत्कार उनके हृदय में जा समाये हैं।
” सदमा लग गया है।” कोई कहता है।
” अब क्या होगा? इतनी जवान! सारी उम्र पडी है! बच्चे का क्या होगा?”
ऐसे ही सवाल और शब्द जबान पर आकर हवा में ठहर जाते हैं। लोगों का आना जाना जारी है लगातार। मैं सब कुछ देख कर भी कामों में लगा हूँ। पोस्टमार्टम होने के बाद शव का अन्तिम संस्कार किया जाना है। मित्र के भाई, पिता, मां, चाचा कोई भी नहीं हैं। सिर्फ मैं हूँ और वह छोटा सा बच्चा…मात्र चार बरस का। इस दुनियादारी से अलग वह – इस रुदन और सदमे से स्तब्ध।
” बेचारा बिना बाप का हो गया है।”
कोई फुसफुसा कर कहता है और मैंने देखा – सहानुभूति से भरे उन हाथों ने उसे उठा कर छाती से चिपका लिया।
श्मशान से लौटे तो सूर्यास्त हो चुका था। अंधकार और विषाद घुल कर उस घर में फैल गये थे। जिनको अभी खबर लगी थी वो लोग आकर बैठे थे, मगर वे तब भी वैसी ही बैठीं थीं अचल निस्पन्द…मूक। गले में सिर्फ मोतियों की माला पडी थी।
” अब क्या होगा?” मेरा मन हाहाकार करने लगा। बीस साल से साथ रहने वाले मित्र को हमेशा के लिये देहमुक्त करके आया था। सिर चकरा रहा था और आंखों के सामने जलती हुई चिता की लपटें धधक रही थीं। उसका वो चेहरा नहीं, वो चेहरा अब स्मृतियों की कोख में जा पडा था और यह चेहरा सामने था।
” उठिये, अंकू को संभालिये।” मैं ने धीमे से कहा। कई दिनों की लगातार भागदौडऔर अब मृत्यु के संत्रास से उनकी देहबुरी तरह से टूट रही थी। इस बीच डॉक्टर आ गया था और उन्हें नींद का इंजेक्शन लगा रहा था। हालांकि उन्होंने हाथ झटक कर विरोध भी किया था – क्यों? क्यों, हम हर दुख से, हर भयानक स्थिति से भागना चाहते हैं। तपने दो। महसूस होने दो सबकुछ। इतने बडे सच को कितने दिन तक नींद के इंजेक्शन देकर दूर धकेलते रहोगे।
मैं चाय पीकर वहीं कुर्सी पर बैठ गया। वे मेरे सामने निस्पन्द पडी थीं और अंकू सुस्त रुआंसा सा मेरी गोद में चिपका बैठा था। मुझे सैकडों प्रकार की चिन्ताओं ने घेरना शुरु कर दिया। पता नहीं कब मेरी नींद लग गई। जागा तो देखा वे वहां नहीं थीं,
” अंकू, तुम्हारी मां कहां हैं? ”
” अन्दर।”
मैं उठ कर अन्दर चला आया देखा वे पलंग के किनारे बैठी सडक़ की ओर देख रही हैं, जैसे प्रतीक्षा कर रही हों कि वे आएंगेया आने वाले हैं। मैं उनके लिये चाय बना कर ले गया। मेरी तरफ क्षण भर के लिये देखा उन्होंने। वही नाक पर एक बिजली की तरंग चमकी और नाक को लाल करती हुई आंखों में समा गई। कई कई आंसू चाय के प्याले में टपक उठे।
” चाचा, मम्मी फिर रोने लगीं। मेरे पापा को सबने मिल कर आग में जला दिया। मैं किसी से बात नहीं करुंगा।”
अंकू ने मेरे हाथ को झटक कर कहा। मैं सन्न सा उसका रोष से भरा चेहरा देखता रह गया।
धूप फैल कर पलंग पर बिखर गई थी और पेडों पर चिडियां कलरव कर रहीं थीं। उन्होंने बिना पिये ही चाय का प्याला खिसका दिया और बांह ऊपर रख कर बैठ गईं। मुझे याद आया वे प्रेगनेन्ट हैं और इन दिनों उनके पांव में सूजन आ गयी है। मुझे उनकी इस अवस्था की चिन्ता होने लगी। लेडी डॉक्टर को बुलाने की बात एकाएक मेरे मन में आयी…मगर उनसे पूछना भी तो पडेग़ा। कितनी बातें थीं करने को कि किस किस को खबर भेजनी हैकि तेरहवीं करनी हैकि इलाहबाद जाना हैकि उनके तथा अंकू के भविष्य के बारे में सोचना हैकि वे स्वयं क्या चाहती हैंयहीं रहेंगी या मम्मी पापा के पास जाएंगी, मगर वे हैं कि होंठ बन्द किये बैठी हैं और मेरे भीतर कोई पक्षी फडफ़डा कर प्राण छोड रहा है। इतना बडा घर है…खुला बिखरा…टूटा घायल…अस्तव्यस्त घर…इसे उन्हें संभालना है।
” चलिये…बाहर।”
वे बिना कुछ कहे बाहर आ बैठीं, लोग उन्हें देख कर लम्बी आहें भरने लगते हैं। किसी की हिम्मत नहीं पडती है उनसे बात करने की।
” मम्मी पापा कब आएंगे? ”
” शाम तक आ जाएंगे।” वे भर्राये कण्ठ को ठीक करते हुए कहती हैं।
और जब शाम को मम्मी पापा आए तो घर में कुहराम मच गया। उनकी मम्मी बिलख बिलख कर रो रही हैं। पापा लगातार बहते आंसुओं को पौंछ रहे हैं। बहन उन्हें गले लगा कर रो रही है…बच्चे भयभीत तथा डरे हुए से…सिसक रहे हैं…लेकिन वे तब भी…चुप पत्थर की तरह..बैठी रहीं जैसे हृदयाकाश ने सारे आंसुओं को सोख लिया हो या अन्दर किसी अदृश्य शक्ति ने थाम लिया हो।
” अब यहां अकेला नहीं छोडेंग़े।”
” वहीं ले जाएंगे।” वे लोग परस्पर बातें करने लगे।
” जो करना है कर लेते हैं। इतने बडे घर में वह अकेली नहीं रह पाएगी। अकेला बच्चा…कैसे रह पाएगा…अगर ज्यादा महीने ना हुए हों तो….दूसरे बच्चे की क्या जरूरत है?”
मैं अपने व्यथित मन को लेकर कहीं गुम हो जाना चाहता था, जहां सिर्फ मित्र की अदृश्य उपस्थिति हो..उसकी यादें उसकी बातें उसकी हंसी…उसकी मुस्कुराहटें हों मगर यहां तो कोई दूसरा ही आ बैठा है….और मित्र गायब होता जा रहा है, उसके जुडे रिश्ते फैलते जा रहे हैं। मैं बाहर निकल आया। अवसाद का कोहरा इतना घना था कि मेरी सांसे रुकने लगीं। कितने ही दिनों से मैं संचिता से नहीं मिला था कि मैं कहां हूं कैसा हूँ और किन तूफानों के बीच फंसा हुआ हूँ। मित्र की एक्सीडेन्ट में मृत्यु हो गयी थी। रात को डयूटी से लौट रहा था। दो दिन कोमा में पडा रहा। दिमाग के क्षत विक्षत हो जाने पर तीसरे दिन वह बिना देखे, बिना कुछ कहे महाप्रस्थान पर चला गया था और हम सब अवसन्न से अन्तहीन यातना के समुन्दर में डूब गये थे।
” मैं घर हो कर आता हूँ। ” मैं ने कहा।
” यहाँ कोई भी तो नहीं है।”
उन्होंने पपडाए होंठों से कांपते हुए शब्द बोले जो कि अधूरे रह गये थे। क्योंकि एक छोटी सी बदली उनकी आंखों में उमडी थी और नाक पर बिजली की रेखा कौंध गयी थी। मैं जाऊं या नहीं, इसी उहापोह में डूबा मैं बाहर टहलने लगा।
” चाचा, नानी हमें अपने घर ले जा रही है।”
” क्या तुम जाओगे? ”
” नहीं, मैं नहीं जाऊंगायहां मेरा घर है। दोस्त हैंवहां तो कोई भी नहीं है।पर मम्मी ।”
मैं ने उधर देखा, वे अलमारी में से कुछ निकाल रही थीं। उनके कटे हुए बाल खुल कर गर्दन पर बिखर गये थे। रंगीन साडियों से भरी अलमारी देख कर मैं सिहर गया। क्या वे इनको नहीं पहनेंगी अब। मेरा मन कराह उठा। नहीं, रंगों का यह रूप उनके जीवन से नहीं जाना चाहिये। उन्होने कुछ पेपर्स मेरे सामने लाकर रख दिये।
” क्या है?”
” मेरी मार्कशीट्स और सर्टिफिकेट्स।”
” किसलिये?”
” अनुकम्पा नियुक्ति के लिये आवेदन कर दीजिये।”
इतने दिनों के बाद वह पहली बार पूरा वाक्य बोलीं थीं। समुन्दर का पानी स्थिर था याउसने लहरों को पी लिया था। मैं स्तब्ध सा उनका चेहरा देखता रह गया जिस पर सफेद कुम्हलाए फूलों की रंगत बिछी थी। मैं ने आस पास देखा कोई सुन तो नहीं रहा है वरना कहेंगे कि पति की मृत्यु को बारह दिन मात्र हुए हैं और वे अपने बारे में सोचने लगीं मगर मैं जानता था उनके भीतर कितना भीषण झंझावात चल सा रहा होगा कि उन्हें इस शोक में भी पेपर्स ढूंढने पडे। उनके माता पिता जाने की तैयारी कर रहे थे।
”मकान बन्द करके जाएंगे। बाद में बेचने का सोचेंगे।” उनकी मां कह रहीं थीं।
” आप यह काम जल्दी से करवा दीजिये।” उन्होंने फिर दोहराया
मैं ने देखा उन्होंने नीचे से अपने पेट को पकड रखा है…कहीं उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं है….या बच्चा….अन्दर हलचल कर रहा है।
” उनको नौकरी मिल जाएगी।” मैं ने उनकी मां से कहा।
” लेकिन वह यहाँ किस के भरोसे रहेगी? ”
मैं असहाय सा उनको देखता रहा। आखिर मित्र के परिवार को मैं कितना संभाल सकता हूँ। छटपटाहट और दुश्चिन्ता के कारण मेरे पांव डगमगा गये। मैं टकराता गिरता पडता बरामदे तक आया और ऑटो में बैठ कर घर आ गया। मुझे लगा मैं तेज बुखार में तप रहा हूँ – तडप रहा हूँ। संचिता को फोन करके मैं ने बुलाया….पता नहीं क्या फैसला लिया होगा उन्होंने? क्या वे चली जाएंगी? जाएंगी तो क्या करेंगी? मैं जल्द जल्द तैयार होने लगा। फाईल में रखे पेपर सामने रखे थे। जब मैं वहाँ पहुंचा तो देखा वे बरामदे में बैठी सामान व्यवस्थित कर रहीं थीं।
” देखा मैं कितना समझा रही हूँ इसको, मगर यह कुछ बोलती ही नहीं।”
मैं ने उनके झुके हुए चेहरे की तरफ देखा, जिस पर धूप के छायाकण झिलमिला रहे थे। इस दौरान उनका चेहरा एकदम दुबला तथा चपटा सा हो गया था।
” अंकू के स्कूल फोन कर दीजिये।”
” मैं बता दूंगा।” मैं मन ही मन छटपटा रहा था कि क्या वे इस शहर से जा रही हैं।
” वहाँ एप्लाई करना है।” उन्होंने दोहराया।
उनके पापा मेरे करीब खिसक आए और कंधे पर हाथ रख कर बोले,
” तुम्हीं सोचो बेटा, यहाँ अकेली रह सकेगी? अपना कोई भी तो नहीं है। वहाँ हम भी चिन्ता में घुलते रहेंगे।”
इस बार उन्होने सिर उठा कर गुस्से में देखा और बोलीं, ” हमेशा कौन किसका साथ देता है? किसका साथ रहता है? सबको अकेले ही जीना पडता है। क्या आपको अब भी यह बात समझ में नहीं आ रही है? पापा प्लीज, पेड तो कट कर गिर ही गया है। उसकी जडों को तो मत उखाडो।”
मैं अवाक् सा उनका चेहरा देखता रह गयाजिस पर बिजली की कौंध आकर ठहर गई थी। मुझे लगा, समुन्दर की उत्ताल लहरों को उन्होने अपने भीतर समेट लिया है। मैं उठा और फाईल लेकर बाहर निकल आया।