आज गहरी उमस है, शायद बरसात हो। मैने रिक्शे से उतरते हुए सोचा –

” कितने हुए?”
” बीस रुपये।” वह अपना पसीना पोछने लगा।

मैने उसका चेहरा देखा – काला, अधेड, सूखा चेहरा मृत आंखेसबकुछ देख कर भी कुछ न दिखती हुई हाथ-पैरों की उभरी हुई नसें। लम्बी-पुरानी खाकी पैंट और मटमैली शर्ट। मैने झट से उसे रुपये दिये और सामने वाले पी सी ओ  बूथ मे घुस गई।

पांच लोग पहले ही इंतजार कर रहे थे। मैं अपने चेहरे का पसीना पोछते हुए अपनी बारी आने का इंतजार करने लगी। कुछ लाइन्स नहीं मिल रही थी और उन पांच को निपटते-निपटते एक घंटा लग गया। पहले सोचा, कही और जाऊं, पर कहां? यह पांचवा बूथ था, जहां मैं आई थी। इसके पहले जो चार बूथ थे, उनमें यहां से ज्यादा भीड थी। कहीं और जाते-जाते आधा घंटा और बीत जाएगा। मैने कुर्सी पर बैठे-बैठे उस दिन के सारे अकबार पढ डाले अपनी बारी आने तक।

मेरी बारी आई और मै फौरन केबिन में घुस गई। नंबर मिलाया और पूछा। उधर से जवाब आया –

” साहब तो बाथरूम में है जी।”
” कितना वक्त लगेगा।” मेरा दिल बैठने लगा।
” जल्दी आयेगे जी।”
” थैंक्स।” मैंने रिसीवर रख दिया।

पन्द्रह मिनट बाद फिर फोन मिलाया – ” साहब तो अभी निकले नहीं है जी।”

मैने ठंडी सांस भरते हुए रिसीवर रख दिया।

उमस बढती जा रही है। छोटा सा पी सी ओ है। लोग आ रहे है, जा रहे है। मै बैठी हुई हूं। पंखा फर्र-फर्र की आवाज क़े साथ चल रहा है। मै कांच के दरवाजे से बाहर देखती हूं। आते-जाते लोग, पैदल-वाहनों पर। ये हजारों लोग एक जगह से दूसरी जगह पर क्या ढूंढने जाते होगे? कोई अंदर आता है या बाहर जाता है तो दरवाजा खुलते ही बाहर का शोर अंदर आ घुसता है। पहले जोर से फिर धीरे-धीरे कम होता हुआ कोनो में जा धंसता है। मैं उस शोर को तटस्थ निगाहों से देख रही हूं।अंदर इतनी जगह नहीं है कि कोई दूसरा समा सके।

पन्द्रह मिनट बाद फिर फोन मिलाती हूं –

” साहब तो ब्रेकफास्ट कर रहे है जी।”
” बताया नहीं मेरा फोन था।” मैं खीज उठती हूं।
” आपने नाम तो बताया नहीं था जी। नंबर भी नहीं था।”
” कहना बेक्रफास्ट के बाद फोन के पास बैठे।”
” अच्छा जी।”

मैं रिसीवर पटक देती हूं।

मैने पहली बार मेज के पीछे बैठी उस लडक़ी का चेहरा देखा, जो लोगो को नंबर मिला कर दे रही है सांवला-दुबला सा चेहरारूखे अस्त-व्यस्त बाल।वह अपनी पतली-पतली उंगलियों से मशीनी ढंग से नंबर घुमा रही है।

” सारी उमर नंबर मिलाते रहो, वह कभी नहीं मिलता, जिससे हम मिलना चाहते र्है।”

मैने उसकी ओर देखते हुए सोचा। उसने मेरे लिए पानी मंगवाया और सहृदयता से मुस्कायी। उसके जवाब में मैं भी वैसी ही मुस्कान देना चाहती थी पर मेरे पास कुछ भी नहीं था सिवाय सूखे छिलकों के। मैने उसकी तरफ से दृष्टि फेर ली और दीवार पर बनी तस्वीर देखने लगी – खूबसूरत तस्वीर – एक छोटे से खूबसूरत घर के सामने बगीचे में दो कुर्सियों पर बैठे एक लडक़ा और एक लडक़ी और उनके चारो ओर फूलों के घेरेवृक्षों के घेरे और उन पर हल्के-हल्के गिर रही ओस।

ये ओस यूं ही अनंत काल तक गिरती रहे तो भी ये दोनो इसमें दबेगे नहीं, यूं तो एक-दूसरे के सामने बैठे, एक दूसरे की चाहत में डूबे मुस्कराते रहेगें। एक-दूसरे को देखकर। मैने सोचना चाहा पर सोच आगे नहीं बढ पाई शायद वहां कुछ और भी हो। मैने अपने आप को सिकोडा और तस्वीर के अंदर आ गई। अंदर सब कुछ फ्रीज थाघर जैसे जमीन पर पडा हुआ था – उसमें कुछ भी नहीं था – न लालसा, न कामना, न चाहना, कुछ भी नहीं। न फूलो मे महक थी, न चिडियों मे चहक।मुर्दा कुर्सियो पर बैठे दो मुर्दा जिस्म…नहीं, यहां कुछ नहीं है। मैं वापस आ गई।

लडक़ी मेरी तरफ देखे जा रही है। मैने मेज पर रखा पानी का गिलास पिया और बिना केबिन में गये वहीं से नंबर मिलाने लगी –

” साहब तो ऑफिस चले गये जी।” उधर से जवाब मिला।
” तुमने कहा नहीं।” मै चिल्लाई दबी आवाज में।
” कहा था जी। कहने लगे, जल्दी है। वहीं फोन कर लें आप।”

अगर मेरे हाथ में उसका गला होता, मै जरूर दबा देती। रिसीवर उसी अंदाज में मैंने पटका और निढाल कुर्सी पर बैठ गयी। मैंने गहरी-उत्तेजना से कांपते अपने हाथ देखे। वहां कुछ भी नहीं था सिवाय कुछ रेखायें जो कहीं नहीं मिलती – कभी नही मिलती।

उसे पता है, मेरा ही फोन है, फिर? रुक नहीं सकता था थोडी देर? यहां से वहां तक फैला हुआ उसका कारोबार और उस सबके बीच अपनी जगह ढूंढती मैं। बाहर बारिश हो रही है। हल्की-हल्की रिमझिम। लोग इधर-उधर भग रहे है। इसके पहले कि बारिश तेज हो, वे सुरक्षित स्थानों पर पहुंच जाना चाहते है। एक अजीब सी भागमभाग व्याप्त हो गई है कुछ लोग पी सी ओ  में घुस आये हैं – हल्के भीगे हुए। फोन मिलाने की छिली सी उत्सुकता लिए। कुछ लोगो को लाइन नहीं मिलती और वे दीवार से लगकर खडे हो गये है। उनकी आंखो की रेंगती हुई उत्सुकता मरी हुई छिपकली की तरह उलट गई है। जो उस रोशनी में हल्के-हल्के चमक रही है।

एक लडक़ी फोन पर किस से बाते कर रही है – बडी तसल्ली से – हंसते हुए उसकी हंसी के टुकडे बरसाती मेढक़ से उस छोटे से कमरे में इधर-उधर फुदकते है और ज्यों ही कोई कांच का दरवाजा खोलता है – वे बाहर पानी में भीग जाते है। लोग इधर-उधर देखने का बहाना करते हुए उसकी बातें सुन रहे हैं। वह इस दुनिया में खडी र्है उस दुनिया से जुडी हुई। मेरी दुनिया ये नहीं है, जहां मैं खडी हूं। हम हमेशा उस छोटे से रास्ते पर मिलते है, जो दो दुनियाओं को अलग करता हैआज वह रास्ता भी नहीं मिल रहा।

वह चली गई है। उसकी हंसी की स्मृति अभी भी बूथ की दीवारों से चिपकी हुई है। बहुत जल्द यह सूख कर मर जायेगी और कोई उसे बुहारकर बाहर फेंक देगा। मैं कांच के दरवाजे से बाहर देखती हुई नंबर मिला रही हूं। बारिश अचानक बहुत तेज हो गई। कांच के दरवाजे पर बूंदे नहीं गिर रही पानी की धार गिर रही है। सडक़ पर इक्का-दुक्का आदमी या कभी कोई रिक्शा वाला भागता हुआ दिख जाता है। अपने आपको हर संभव उस बारिश से बचाते हुए। नंबर मिल गया है –

” हैलो, मैं बोल रही हूं ”
गला रूंध रहा है। अंदर कुछ वेग से बाहर आना चाहता है। मै बरसना चाहती हूं। इतने रोडे है कि मुझे बहने नहीं दे रहे।
” साहब तो मीटिंग में गये है जी।” वह मुझे पहचान कर कहता है।
” कितनी देर में आयेगे?” मैं अटकते हुये पूछती हूं।
” कह नही सकता जी, आप थोडी देर बाद फोन कर लें।”

दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाला दरवाजा बंद हो जाता है। पानी और तेज हो गया है। सडक़ पर पानी ही पानी है। उस पर कागज और फटे दोनो के टुकडे आइसक्रीम के कप, इस्तेमाल की जा चुकी चीजे तैर रही र्है, जिन्हे इकट्ठा करने की कोई फिक्र नहीं करता। कांच के दरवाजे से एक कीडा अंदर आ गया है। उसे पनाह चाहिए। बारिश से – खुद पर से गुजरते लोगो से।

लंच टाइम हो गया। पूरा कमरा खाली हो गया। सिर्फ मै बैठी हूं और वह लडक़ी। वह लडक़ी न जाने मुझसे क्या कहती है? मैं खाली आंखो से उसकी तरफ देखती हूं। वह मेरे लिए पानी लाती है और फिर देकर कुछ कहती हुई वापस चली जाती है। मै उसके होंठो का कांपना और फिर बाहर जाना देखती हूं। यह अंदर जाकर झोले में रखा अपना टिफिन ले आती है और मुझे दिखाती हुई फिर कुछ बढती है। मेरे होंठ कृतज्ञता और शर्म से फैल जाते है और मैं उठकर खडी हो जाती हूं। वह लपककर मेरे पास आती है। बाहर पानी दिखाते हुए कुछ कहती है और कुर्सी पर बैठा देती है। फिर वापस चली जाती है।

कांच का दरवाजा खुलता है और एकाएक एक अंदर आते आदमी के ऊपर से एक चिडिया एक भीगी हुई चोंच में तिनका दबाये अंदर घुसती है और सीधी ऊपर बल्ब पर जा बैठती है। मै उसे देखती हूं – घबराई हुई, पर चोंच से तिनका नहीं गिरता छोड रही। कहां से आई है मटककर? आसपास तो कोई पेड नहीं दिख रहा है। वह अपने पंख झटकाती है – गीले पंख लेकर कहां जायेगी, रुक जाये जरा सी देर, ताकत बटोर ले अगली उडान के लिए, फिर उड ही जायेगी – बाहर एक मौसम इसकी प्रतीक्षा कर रहा हैयह जायेगी और वह उसे थाम लेगा।

कोई चीज मेरे अंदर से निकलकर बाहर बारिश में गिला गई। अब वह गीले कागज सी बहती जायेगी दूर तक सबसे बेबास्ता सबके लिए बेकार। पानी का वेग एकदम से कम हो गया है लगभग न के बराबर। बस छतों पर रुका हुआ पानी अपनी पूरी रफ्तार से बह रहा है। सडक़ धुल कर साफ हो गई है। फालतू चीजे बहकर दूर चली गई है। सब बह जाये तो कैसा लगता है? एकदम साफ और नंगा।

वह अपनी बरसाती उतार कर लडक़ी से कुछ बात कर रहा है। मैने केबिन में घुसकर आखिरी बार नंबर मिलाया – यह जानते हुए कि लंच टाइम हो गया है और अब कोई मतलब नही है। केबिन संकरा था, वहां मुश्किल से एक आदमी के खडे हो पाने की जगह थी। इतनी सी जगह कि किसी के अंदर हम सिर्फ खडे हो सके। सिर्फ इतनी सी बात और हम सारी उमर मारे-मारे फिरते है। उन सडक़ो पर बरसों आवारागर्दी करते है, जो हमें कहीं नहीं ले जाती – वापस उसी जगह पर छोड देती है। हम तुरन्त दूसरी सडक़ पर चलना शुरू कर देते र्है शायद यहीं सही हो।

उधर से पूछने पर कहा गया –

” हां जी, बैठे है। अभी देता हूं।”

मैने रिसीवर नीचे रख दिया। मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही था जिसके जरिए मैं उस तक पहुंच सकती। जितनी भरी हुई मैं आई थी, उतनी ही खाली अब लौटने को तैयार हूं। मैने बिल देखकर पैसे मेज पर रखे और बाहर की ओर बढी। दरवाजे के अंदर आ रहा वह कीडा जाने कब किसके पैरों की भेंट चढ चुका है और दरवाजे पर उल्टा पडा है – किसी मृत सपने की लाश की तरह। मैने उसकी एक टांग से पकडक़र उठाया और बाहर बह रहे नाले में फेंक दिया। मैं फिर खाली सडक़ पर चलने लगी हूं।

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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