मैं नींद में डूबे कानों के ऊपर से आती हल्की आवाजें सुनने की कोशिश करती हूँ। आवाजें रात भर आतीं होंगी, क्योंकि जब भी मैं नींद की बेहोशी से ऊपर उठती, मुझे वही एक सी आवाजें सुनाई देतीं बेचैन कदमों की चहलकदमी – छत के एक सिर सेदूसरे तक, दूसरे से फिर पहले तक लगातार कोई तारों भरे आसमान को निहारता सुबह की प्रतीक्षा मेंउन घिसटते, थके थके से कदमों की अनवरत आहट।

उन्हें रोका नहीं जा सकता, वे जीवन भर चलते रहे हैं, इधर उधर, बेमतलब, बेमकसद…जब वे बाहर नहीं चल रहे होते, भीतर चलते होते हैं

यूँ ऊपर से सब कुछ दिखाई नहीं देता… जैसे पुराने हारे हुए राजा होते हैं न…किला दिखाई देता है बहुत बडा  राजसी वस्त्रआभूषण गले में झूलती मालाएं कमर से लटकती तलवार भीतर एक बहुत छोटा सा पराजित मन..जिसमें न जीत पाने की क्षमता है न हार स्वीकार करने का साहस। जख्म समय और जिस्म की झुर्रियों के इतने भीतर हैं कि किसी के पास इतनी फुरसत नहीं उन सलवटों को टटोलने की। न किसी के पास वैसी चाहयूं भी इतना सभी जानते हैं कि उन सलवटों के भीतर किसी भूखे पशु की चीत्कार दबी है – वह भूखा है, थका हुआ, दुर्बल, पिंजरे में बंद और जैसे ही पिंजरे का दरवाजा खुलने का स्वर उसे सुनाई देता है, वह दुगुने वेग से बाहर की ओर झपटता है। यूं तो मनुष्य जन्मता-मरता ही इन पिंजरों में है, फिर भी जाने क्यूं वह इनका आदी नहीं हो पाता।

मैं कल रात को आई थी देर से। घर आकर जब मुझे पता चला कि वे सो रहे हैं तो मुझे हैरत हुई। उनकी बेचैनी मुझे ट्रेन में ही परेशान करती रही है। मेरे आने के उत्साह में वे दुगुनी तेजी से चलने लगते हैं।

कुछ देर मैं मां के बिस्तर के पास खडी रहीरजाई के नीचे मुट्ठी भर कपडों की गठरी में फंसी मुठ्ठी भर देहझुर्रियों से अंटी पडीवे सो रही थीं। जागेंगी तो उनकी सफेद आंखों में अपना आप देखना मुझे भयावह लगेगा, जानती हूं। मैं वहां से हटकर ऊपर आई, बाबूजी के कमरे में…खुले दरवाजे क़े भीतर नाईट बल्ब की रोशनी में सिंगल पलंग पर लेटे हुए थे…..दुबला पतला लम्बा शरीर – कंधों तक रजाई में छिपा…बायीं तरफ उनके कपडों की आलमारी…दूसरी दीवाल से सटे एक पुराने शोकेस में पुराना टी वी, उनका पुराना ट्रान्जिस्टर, दो प्लास्टिक की हरी कुर्सियां और एक कत्थई टेबल सब कुछ अदृश्य धूल में लिपटा । बायीं तरफ ही कमरे के दोनों कोनों से बंधी एक रस्सी, जिस पर उनका टॉवेल, उनके नैपकिन और रात को उतारे उनके कपडे उनकी व्यथाओं से पंखे की हवा में फडफ़डा रहे थे।

मैं नीचे आकर सो गई थी। मुझे पता था, सुबह जल्दी उठकर वे मुझे जगाएंगे…उनके भीतर कितना कुछ दबा पडा होगा जिसे वे एक के बाद एक बाहर फेंकेंगे। जैसे जिद्दी बच्चा मां का ध्यान खींचने को एक के बाद एक घर की चीजें बाहर फेंकता जाता है। क्या कोई भी भूख कभी पीछा नहीं छोडती? बच्चों के और अपने बीच उन्होंने हमेशा ही लम्बे रास्ते बना कर रखे जिसके एक छोर पर वे खुद खडे होते  दूसरे छोर पर हम भाई बहन और बीच में कहीं मां, जो पति और बच्चों के बीच जरूरत के मुताबिक आती-जातीं, उनके बीच जरा से सामन्जस्य की असफल कोशिशें करतीं वक्त से बहुत पहले थककर पुरानी इमारत सी ढह गईं। हल्की हल्की सांस लेता मलबा अभी मैं देख कर आई थी। और अब, जीवन के आखिरी बरसों में मैं उन्हें उसी राह पर अकेला आते हुए देखती हूँ, उस छोर की तरफ जिस पर हम भाई बहन खडे थे। वे नहीं जान पाये हैं कि हमने वह छोर भी छोड दिया है। या कि जानते हैं फिर भी चलने को विवश हैं। सिर्फ मैं, उन्हें इस सूने लंबे भयावह रास्ते पर अकेले चलते हुए देखती हूँ और अपनी संभावित नियति खोजती हूँ। मुझे हैरानी होती है कि एक ही रास्ते पर तीनों काल एक साथ कैसे चल सकते हैं ?

सुबह उनकी आवाज सुनकर ही मैं जागी

” बब्बी, उठ। इतनी देर कोई सोता है? आ, बातें करें। सोना है तो अपने घर जाकर सोना। उठ आ जल्दी आ।”

जानती हूं, सिरहाने खडे रहेंगे, जाएंगे नहीं। मैं उठ कर बैठ गई तो वे दरवाजे क़ी ओर बढे

” ब्रश करके बाहर आ तो चाय पियें।”

मैं चाय पीने उनके साथ बैठी तो वे अपेक्षाकृत शांत दिखे। वह दरवाजा बंद था, जिससे वे अपनी पीठ टिका कर खडे थे

” बिस्किट लेगी बब्बी? ” 
” नहीं पापा।”
” तोश ला दूँ? ”
” नहीं मैं चाय के साथ कुछ नहीं लेती।”
” घर में सब ठीक है? ”
” जी।”
” चल तुझे बगीचा घुमा लाऊं, बिही खायेगी?”
” सुबह सुबह नहीं।”
” अच्छा आफिर आ। बैठी मत रह । सुबह सुबह घूमना अच्छा रहता है।”

वे झटके से अपनी कुर्सी छोड क़र उठते हैं। मैं उनके पीछे पीछे। मैं उतनी जल्दी नहीं जाना चाहती थी। मां मेरा इंतजार कर रही होगी कि इसे बाप से छुट्टी मिले तो मेरे पास आए। गठरी में कांपती गठरी – जो मुझे छुते ही क्षण भर थिर होने की कोशिश करती। पर वहां न की कोई गुंजाईश नहीं थी।

” अरे रमईया।” उनकी बुलन्द आवाज बगीचे के एक सिरे से दूसरी तक जाती है रमईया भागा हुआ आता है
” तेरा घाव ठीक है? ” उन्होंने उसके घुटनों की तरफ इशारा किया
” गिर गया था खेत में काम करता हुआ। मैं खुद इसकी पट्टी करता हूँ।”
मेरी आँखों के सामने एक रील सी घूम गई” पट्टी लाओ, डिटॉल लाओ, गरम पानीअरे! इतनी चौडी पट्टी – कैंची कहां है? इस घर में कोई चीज सही जगह पर रहती है या नहीं।” किसी न किसी का मन जरूर हुआ होगा कि रमईया को उठा कर बाहर फेंक दे।
” अरे इसको पहचाना, बब्बी है बब्बी। कोई कहेगा, ये मेरी बेटी है, इसके बाल देखो अरे, खडा क्या है जैरामजी की कर।”
”जैरामजी की।” वह अपने घुटनों तक झुक गया।
” तुम जाओ।” मैं ने सिर हिलाते हुए कहा।
” ये चला जाएगा तो बिही कौन तोडेग़ा? ”
” मैं तोडूम्ग़ी।”

मैं ने रमईया के हाथ से बिही तोडने वाली लाठी ले ली और मेड पर चलने लगी – ऊबड ख़ाबड रास्ता, मिट्टी के ढेले, जगह जगह घास, पानी के चहबच्चे सूखे पत्तों का अम्बार छोटे छोटे अनजाने पौधे जिनकी नियति ही पैरों तले कुचल कर खत्म होना और बार बार उगना है। खेत पानी से लबालब भरेदूर तक हरियाली ही हरियाली एक भला सा अहसास। वे मुझसे आगे निकल कर एक ऊँची मेंड पर खडे हो गये।

” इधर आ देख…देख।” उन्होंने मुझे अपनी बगल में खडा कर अपना बंगलेनुमा नया बना घर दिखाया – जो उतनी दूर से कुछ ज्यादा ही अच्छा दिख रहा था – किसके होते हैं घर? ये क्या सचमुच किसी के होते हैं? हो सकते हैं?
” मैं ने कितनी मेहनत से बनाया है, तुझे क्या लगता है, घर सिर्फ ईंट, सीमेन्ट और गारे से बनता है, इसमें मैं ने अपना खून मिलाया है  पर कोई नहीं मानता। ये सब कहते हैं, आप जाईए यहां से – हमें सुख से रहने दीजिये कहां जाऊं मैं? तेरे घर आकर रहूँ बेटी के घर और मैं चला जाऊंगा तो ये सुख से रहेंगे – एक बूढे की आह इन्हें चैन से रहने देगी? तू समझा इन्हें।”

असंभव की चाह दु:ख है, वे उसे अपने भीतर पालते हैं। न जानना सुख है, मैं जानती हूँ और जानने की तरफ पांव नहीं बढाती। मुझे पता ही नहीं चला, हवा के किस झौंके ने वह दरवाज़ा खोल दिया-

” कहते हैं छोटे के पास जाओ। क्यूं जाऊं मैं उसके पास? तुमने कहा था न कि ये बगीचा हमें दे दो, फिर हम आपको साथ रखेंगे। बगीचा चाहिये, मैं नहीं। मेरा घर चाहिये, मैं नहीं। अरे, वो तो मैं कुछ कहता नहीं, मैं अभी भी अपनी वसीहत बदल दूं तो तुम सब सडक़ पर आ जाओगे।”

वे जोर जोर से बोल रहे हैं उत्तेजित होकरउनकी बुलंद आवाज सारी बाधायें पार कर घर तक पहुंच रही होगी।

” शुरु हो गया फिर। घर में किसी के आने की देर है, ये अपनी रामकहानी शुरु कर देंगे। है किसी में सामर्थ्य जो रख के देखें इन्हें अपने घर में।” मुझे वहीं खडे ख़डे सुनाई देने लगा।

उनकी निजी व्यथाएं और व्यर्थताएं दूसरे की उपस्थिति में इस तरह बाहर आने लगतीं – जैसे किसी ने रुका हुआ बांध का पानी खोल दिया हो। पानी भरभरा कर नीचे की ओर भागने लगता और घर की सारी चीजें भीग जाती। वे बेहद खीजे और झुंझलाए हुए पानी के बंद होने की प्रतीक्षा करते यह खीज फिर क्रोध में बदलती जाती।

सामने रमईया एक बडा सा गङ्ढा खोद रहा है। वे उसे आवश्यक निर्देश देते हैं बात का एक निहायत अजनबी सिरा पकड लेते हैं उस जमाने की बातें जब मैं नहीं थीजिसे मैं ने कभी नहीं देखा  वे ऐसे बताते रहे  जैसे उस सबकी कोई फिल्म देख रहे हों। गङ्ढा काफी बडा हो गया है – मिट्टी के साथ जो भी था वह बाहर पडा है। खाद बनाने के लिये सूखे पत्ते, गोबर और जितनी निर्रथक चीजें हैं, सब भीतर भरकर गङ्ढे का मुंह ढंक दिया जाएगा। बदली जा सकती है क्या सारी चीजों की उपयोगिता?

” घर चलें। ” मैं ने मुडते हुए कहा।

वे अभी भी कुछ कह रहे हैं – कभी मुझसे, कभी रमईया से  कभी अपने आप से। रात भर वे सूखे पत्ते बटोरते और सुबह की पहली हवा में वे फिर सडक़ों पर बिखर जाते। उनके पैरों के नीचे की सडक़ कभी खाली नहीं हो पाती। पत्ते चरमराते, एक अजीब स्वर में शोर मचाते। कभी कभी यह तय करना मुश्किल हो जाता कि उनके मुंह से जो आवाज निकल रही है, उनकी अपनी है या उनके भीतर की आंधी में घूमते पत्तों का शोर। वह आवाज एक अथक गति से आती लगती, फिर किसी व्यवधान के चलते उसकी गति मंद हो जातीबाहर के संसार की परछांई अपने नियमों से बंधी कभी आगे होती कभी पीछे।

” अरे, मैं क्या करता हूँ? तंग करता हूँ तुम लोगों को? सेवा करवाता हूँ अपनी? कुछ मांगता हूँ मैं ? बस दो वक्त का खाना देते हो रूखा सूखा। कमाता बाप सबको अच्छा लगता है। खाली बोझ होता है। दिन भर खेत में खडा रहता हूँ छाता लिये। ये जो अनाज बोरियों में भरा पडा है तुम्हारे गोदामों में किसकी मेहनत है? तुम साल में एक बार भी झांकने आते हो क्या कि क्या हुआ, क्या नहीं ? ये मेहनत नहीं है? दुकान में कुर्सी पर बैठना मेहनत है बस? मेरे मरने के बाद देखना बब्बी, उजड ज़ाएंगे ये खेत। मैं तो कहता हूँ बेच दो। बेचते भी नहीं। प्रॉपर्टी है, रहने दो काम आएगी। सिर्फ बूढा बाप काम नहीं आएगा। इसे फेंक आओ कहीं। और वह तेराफूफा पार्टीशन करवा गयादे गया दोनों बेटों को सब और मुझे मुझे क्या मिला? किया क्या मेरा प्रबंध? मेरे हाथ में क्या है? ”

” आपने तो कहा था, आपको कुछ नहीं चाहिये। जो है दोनों बेटों में बांट दो।”

” तब मुझे क्या मालूम था, सारी संपत्ती दबा कर एक दिन मुझे ये रोटी के लिये भी मोहताज कर देंगे। दो हजार मांगता हूँ तो पूछते हैं – क्या करोगे? मैं तो नहीं पूछता था तुमसे, जब तुम अलमारी खोलकर रुपये निकाल कर ले जाते थे।”

हम अनार और नींबू के पौधों के बीच से गुजर रहे हैं – कुछ अनार पक कर फट गये हैं। गुलाबी सुन्दर दाने बाहर झांक रहे हैं। कुछ पक कर फटते हैं – कुछ बिना पके मनुष्य और प्रकृति की असमानता। नीबू कच्चे हैं – हरे – एक प्यारी सी महक पूरे पौधे के रोंये रोयें से फूटती ।

” मुझे याद है – मुझे सब याद है – हमारे बच्चे नहीं होते थे। मैं हर पीर पैगम्बर के पास जा जा कर थक गया था। फिर एक साधू बाबा मिले थे हरिद्वार में उन्होंने कहा तेरे बेटे तो होंगे, पर तेरी कोई बात नहीं मानेंगे। मैं ने कहा मंजूर है। हों तो सही। न माने बात। मुझे अपनी चिंता नहीं । ये जो इतनी बडी प्रापर्टी है, इसे कौन भोगेगा? और बब्बी वही हुआ। वे लोग रह रहे हैं। कभी कभी सोचता हूँ  मैं ने अपने लिये कुछ नहीं मांगा। मुझे क्या चाहिये बब्बी? हम क्यूं गलत चीजें मांगने में अपना जीवन खर्च कर देते हैं? ”

हवा बडी ज़ाेर से चली। अचानक वे चुप हो गये तो मुझे भागते पत्तों का शोर सुनाई दिया हवा का शोर उनके अकेलेपन का पत्तों और सूखे चारे को अपने साथ दूर दूर तक फैलाताउधर बायीं तरफ पशुओं का बाडा है, गोबर और पेशाब से सना फर्श, पशुओं के फर्श पर बजते हुए खुरएक अजीब सी गंध जंजीरों की खनखनाहटसींगों के टकराने की आवाज, क़भी किसी के गले में बंधी घंटी की। हम उधर नहीं जाते थे, पर हमने उन्हें उस आधे दरवाजे के पास बहुत बहुत देर खडे देखा था अब भी वे वहीं ठिठक गये मंत्रबिध्द सेमैं ने उनकी आँखों में देखा कि आखिर क्या देखते थे वे भीतर? किसके भीतर? पशुओं की आँखे क्यूं चमकती हैं शीशे की तरह? क्यूं उनकी आंखों में आखें डालो तो हटाया नहीं जाता। अपने अपने भीतर एक दूसरे की परछांई दिखती है क्या?

इतने में छोटा भतीजा बुलाने आ गया

” बुआ, मम्मी नाश्ते के लिये बुला रही हैं।” कहकर वह भागने लगा, उन्होंने एक बार पकडने की कोशिश की उसे, पर वह पहले से ही सावधान था – एक दूरी पर खडा, सतर्क।
” अरे, तूने केक खाया? ” मैं ने झट से उसकी बांह पकडी।
” क़हां से आया? ” उसने पहले शर्माते, फिर सोचते हुए पूछा।
” मैं लाई थी चॉकलेट केक। मम्मी ने दिया नहीं। मैं ने कह दिया था, इसको कोई नहीं खायेगा, सिर्फ निक्कू खायेगा।”

मैंने उसे प्यार से खींचते हुए उनके करीब कर दिया। उन्होंने उसके छोटे से हाथ को अपने हाथ में लिया और मुस्कुरा पडे। हवा रुक गयी थी, सब शांत था।

” अच्छा तू दादाजी को खिलायेगा या नहीं? ” मैं ने उसके सर पर हाथ फेरा।
” दादाजी नहीं खाते। कहते हैं, इसमें अण्डा होता है।”

उसने हाथ छुडाया और फिर भाग गया। वे टक लगा कर उसे भागता देख रहे हैं। मुस्कान की खिली पत्तियां अगले ही क्षण सूख गईं

” चलें।” मैंने हल्के से उन्हें छुआ तो वे सूखी पत्तियां झर सी गईं।
” अभी तू छोटे के पास जाएगी, तो पूछना, आखिर कहां जाऊं मैं?” हवा फिर चलने लगी सूखे पत्ते फिर उडने लगे थे
” मेरे लिये क्या किसी के पास कुछ नहीं? मैं ने तो नहीं सोचा था कभी ऐसा। मैं ने सोचा था, पूरी जवानी में यह सब बना लूं, आखिर में काम आएगाकुछ काम नहीं आया। परपर बब्बी मैं अभी भी इस सब को बेच सकता हूँ। तू समझा देना अपने भाईयों को।”
” कितनी फालतू बात करते हैं। क्यूं बेचेंगे? ”
” फिर मैं अपना खर्च कहां से लाऊं? ”
” बेटों से लो।”
” फिर वही बात।” वे उत्तेजित हो गये – तुझसे कह तो चुका हूं कि एक हजार भी मांगता हूँ तो पूछते हैं – क्या करोगे? उस दिन चप्पल खरीद कर लाया तो बोले – डेढ सौ की चप्पल! मैं ने चप्पल वापस कर दी। मेरी औकात नहीं डेढ सौ की चप्पल पहनने की। तुम पहनो। मैं तो गरीब हूँ। एक करोड क़ी प्रॉपर्टी है बब्बी मेरी…और मुझे एक हज़ार का हिसाब देना पडता है। मैं ने लिया कभी किसी से हिसाब। सब कुछ खुला पडा था जिसकी जितनी मर्जी हो ले जाओ। तू कुछ बोल न, चुप क्यूं है ?” उनका चेहरा लाल होता जा रहा है।
” आप पापा, चिल्लाते बहुत हैं। किसी भी समस्या का समाधान शांति से भी निकाला जा सकता है। आजकल सुनना क्या अच्छा लगता है किसी को? कहेंगे – चिल्ला रहा है, चिल्लाने दो।”
” तुम इडियट राईटर लोग, जब सीमा पर जंग छिडी हो, बंद कमरे में बैठ कर कविताई करोगे और कहोगे, क्रान्ति हो रही है।” वे मुझ पर भडक़ गये – ” मैं चिल्लाता हूँ, इसको चिल्लाना कहते हैं? मैं किससे बात करुं? घर करता है कोई बात मुझसे? कुछ नहीं बताया जाता मुझे, न कोई कुछ पूछता है। किससे मैं अपने दिल का हाल कहूँ।”

घर नजदीक आ गया, फिर भी वे चुप नहीं हुए तो मैं लपक कर भीतर घुस गई। बाहर आई तो वे अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे – नाश्ते के इंतजार में – उतने ही तनाव में होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाते..मैं ने कटोरा उनके सामने रख दिया।

” यह क्या है? ”
” दलिया।”
” वाह।”

वे खुश हो गये। फिर मुझ उठती हुई को उन्होंने हाथ पकड क़र बिठा लिया

” ये देख, एक भी दांत नहीं हैं ना। कैसे खाऊं रोटी? मसूढे दर्द करते हैं।”

मैं ने उनका खुला मुंह देखा  लाल लाल मसूडे, क़ुछ टूटे फूटे दांत और जीभ के परे अंधेरा। मैं ने आंखें परे कर लीं। वे दलिया खाने लगे।

” मेरा काम खत्म हो गया है। मैं मुफ्त की खा रहा हूँ।” दलिया खाते खाते उन्होंने कहा, आत्मलीन क्षणों में अपने आप से।

अपने भीतर कुछ भी संभाल कर रखने की सामर्थ्य नहीं थी, वह हर चीज बाहर फेंक देता है, उससे दुगुनी तेजी से, जिससे वे उनके अन्दर गईं थीं

” बब्बी। मेरे साथ व्यास चलेगी? ” अचानक उन्होंने पूछा।
” मैं किसके साथ जाऊं? कोई मुझे साथ लेकर ही नहीं चलता। सबके पास अपने काम हैं। तू भी तो। तुझे नहीं लगता कभी, एक बूढा बाप है।”
” हां चलूंगी। कब चलना है?” आत्मग्लानि में डूबी मैं सहर्ष तैयार हो गई।
” दस अक्टूबर को। पर तू घबरा मत। कुछकुछ नहीं लूंगा मैं। अपना खर्च मैं खुद करुंगा।”
” मैं जानती हूँ।” मैं हंस दी।
” मैं तो रोज पुकारता हूँ, सांई, अब मैं थक गया हूँ। अपना दरवाजा खोल मेरे लिये, वह सुनता ही नहीं, मुझे आज तक उसके दीदार नहीं हुए। पर वह कहता है, जो मेरी शरण में आता है, अंत समय में मैं उसके साथ होता हूँ। क्या यह सच है?”

मैं उनकी प्राईवेसी में दखल नहीं देती, वे अपने आप से पूछ रहे थे।

” जो जीवन भर नहीं आया, वह आखिरी समय में आया भी तो क्या बचा लेगा? बब्बी, है तो मन का धोखा… पर धोखा क्या नहीं है? सब धोखा है?”

ह्नउन्होंने फिर किसी पुरानी बात का सूत्र पकड लियामैं उन्हें सुन नहीं देख रही थी  कभी कभी स्मृति की हवा अत्यन्त तेज चलती तो बगीचे में फैले सूखे पत्ते घर के भीतर आ घुसते।सारे घर में घूमने सेपैर बचा कर रखने का खयाल तक न आता किसी को – वे कुचले जाते लगातार फिर कसी वक्त की गोल आंधी में वे जमीन से उठ एक वृत्त में वे लगातार घूमते – बैरंग, धूमिल, सूखे – फटे पत्तों का वह वृत्त कुछ ही पलों में फिर जमीन पर ढेर हो जाता। स्मृति की गहरी सांस फिर उन्हें अपने उदर में अंधेरे में वापस खींच लेती। वे तुरन्त शान्त हो जाते। विगत ऐसे ही आता है क्यातडित रेखा सासिर्फ एक पल को जब तक आंखें घुमाओ आसमान पर फिर अंधेरा।

” बाबू कुछ बच्चे बिही तोड रहे हैं, मैं मना करता हूँ तो सुनते नहीं।” थोडी ही देर में रमईया ने आकर शिकायत की। वे फुरती से उठ खडे हुए-
” चल जल्दी। अभी बताता हूँ सालों को। चल बब्बी।”

वे आगे आगे, मैं पीछे पीछे। बगीचे की बाऊंड्री वॉल टूट गई है बारिश में, कुछ स्कूली बच्चे पेडों पर चढे न सिर्फ खुद खा रहे हैं बिही तोड तोड क़र…झाडी से पेडों पर निर्ममता से वार कर गिरा भी रहे हैं, जिन्हें नीचे खडे क़ुछ बच्चे अपने जेबों और स्कूल के बस्तों में भर भी रहे हैं। उन्हें रोकने उनका सीधा हाथ उठा और हवा में उठा रह गयाउनके मुंह से आवाज नहीं निकली, होंठ बुदबुदा कर रह गये। वे ऊपर चढे लडक़ों को मंत्रमुग्ध देखते रह गये…उनकी हंसी, जैसे वे न होकर सुन रहे हों। एक खास किस्म की बचपन की हंसी से दमकता चेहरा ह्न वह खिलखिलाहट – सालों पहले किसी स्कूल की रिसेस में जो दिन भर अपना हाथ पकडे रही हो और फिर बरसों बाद उदासी के मरुस्थल में एकाएक अपनी छोटी सी निकर पहने इस तरह आपके सामने आ खडी हुई हो कि आप अविश्वास से उसे देखते रह जाएं।

” भगाऊं? ” मैं ने उनकी तरफ देखते हुए पूछा।
” रहने दो। क्या ले जाएंगे तोड क़र, जो पहले से ही इतना ज्यादा है। ले जाने दे, बोझ हल्का कर जाएंगे।”

उन्होंने बिना मेरी ओर देखे कहा, क्षण भर बाद फिर बुदबुदाये- ” सभी की जिन्दगी में आती है ऐसी सुबहकाश, कुछ बांध कर रखा जा सकता।”

लडक़ों ने हम दोनों को देख लिया एक दूसरे की तरफ सीटीयां बजाईं । झटपट कूदे और जितना समेट सकते थे, समेट कर टूटी दीवार फलांग कर भाग गये। हम दोनों वहां अकेले खडे रह गये।

बिना कुछ कहे वे मुडे और वापस लौटने लगे। मैं पीछे खडी उनकी जाती हुई पीठ और लडख़डाते कदम देख रही हूँ। उनके बेचैन कदमों की आहट अब शांति में बदल गई है। अतीत की किसी गली में से वे चुपचाप गुजर रहे हैं बिना शोर मचाए बिना छुए किसी को अंधेरे उजाले की लाम्बी सलवटों भरी चादर को चीरते हुए और मुझे जाने क्यूं लगा कि अब वे बहुत देर तक पीछे मुडक़र नहीं देखेंगे मेरी ओर। एक अजब सी निराशा से मैं वहीं ठिठकी रह गई।

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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