टीम क़ुतुब रोड
‘सबसे पहली बात यह कि भारत में भांग बैन नहीं है और दूसरी बात यह है कि भांग को ड्रग्स की कैटेगरी में नहीं रखा जाता है। और तो और दिल्ली में भी भांग के सरकारी ठेके हैं… जहां से कोई भी भांग ख़रीद सकता है, खा सकता है…’
उस रात डिनर के बाद गंभीर चर्च चल रही थी- हॉस्टल में होली पर भांग पार्टी होनी चाहिये या नहीं। हम हिंदू कॉलेज हॉस्टल में रहने वाले लड़के तक ख़ुद को बहुत महत्वपूर्ण समझते थे। हमें लगता जैसे हिंदू कॉलेज में पढ़ना, हॉस्टल में रहना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है। यह कि हमारी एक महान परंपरा रही है हमें उसकी रक्षा करनी है, वग़ैरह, वग़ैरह…
लेकिन उस रात इस गंभीर चर्चा के अपने कारण थे। कुछ दिन पहले ही दिल्ली के एक अंग्रेज़ी अख़बार में खबर छपी थी कि हिंदू कॉलेज हॉस्टल में रहने वाले छात्र ड्रग्स का सेवन करते थे। खबर के साथ हॉस्टल के पीछे झाड़ियों की फ़ोटो छपी थी जिसमें जंगली भांग के पौधे को गाँजे का पौधा बताया गया था। कोई ड्रग्स का सेवन करता था या नहीं लेकिन हमारे हॉस्टल की छवि धूमिल हो गई थी। ज़ाहिर है कोई यह नहीं चाहता था कि फिर कुछ ऐसा हो जिससे हमारी महान परंपरा पर आँच न आ जाये!
वह दौर ही ऐसा था। हम सामूहिकता में जीते थे। इंटरनेट नहीं आया था न हम भीड़ के बीच अकेले हुए थे।
मुझे अच्छे से याद है साल 1990 का था। पिछले कुछ सालों से हिंदू कॉलेज हॉस्टल में गाँव-देहातों से भी लोग आने लगे थे और हॉस्टल का माहौल बदल रहा था। मैं ‘डायरेक्ट’ था यानी सीधा गाँव से हिंदू कॉलेज पढ़ने आया था। ज्यादातर लोग बोर्डिंग स्कूल से आते थे या शहरों के अच्छे अच्छे स्कूलों से पढ़कर। लेकिन सब चाहते थे कि होली में ‘फन’ हो और कुछ एक्जोटिक हो। लेकिन कितना एक्जोटिक- यह सवाल था।
मेरे भाषण से पीकू जोश में आ गया। बोला, ‘भांग और होली का साथ चोली दामन का होता है। तुम चोली लेकर आओ हम दामन फैलाने को तैयार हैं। लेकिन दिल्ली में भांगरूपी चोली कहाँ मिलेगी?‘
‘क़ुतुब रोड पर एक दुकान है जिसके ऊपर लिखा हुआ है ‘भांग का सरकारी ठेका’। मैंने लाख सफ़ाई दी कि क़ुतुब रोड स्टेशन से हॉस्टल आने के रास्ते में पड़ता है और अनायास मेरी नज़र उस ठेके पर पड़ गई थी लेकिन सबके मन में संदेह का बीज पड़ चुका था- ये जो अक्सर शाम को प्रभात ग़ायब हो जाता है। यह क़ुतुब रोड ही जाता होगा। यह ज़रूर भांग खाता होगा। नहीं तो भांग का ठेका भी होता है इसके बारे में इसको कैसे पता। भांग और मुझे लेकर बनने वाले क़िस्सों की यह शुरुआत भर थी…
ज्यादा सोचने का समय नहीं था। दो दिन बाद ही होली थी। वहीं उसी रात्रि चर्चा में ‘टीम कुतुब रोड’ का गठन हो गया। मेरे साथ पीकू, अरुण, महाशय मुख्य भूमिका में थे। बाक़ी सारे सहायक थे। शुभस्य शीघ्रम! पीकू बोला और उसी समय चंदा इकट्ठा किया जाने लगा। सुबह नाश्ते तक हम लोगों ने जोड़ा तो दो हज़ार से ऊपर इकट्ठा हो चुका था। ब्रेकफास्ट के बाद ही टीम क़ुतुब रोड अपने काम पर निकल गई।
मज़ेदार बात यह थी कि हम चारों में से किसी ने पहले भांग खाई थी या नहीं इसके बारे में तो निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था। लेकिन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता था कि हम लोगों में से किसी को पता नहीं था कि भांग तैयार कैसे किया जाता है। भांग की पत्तियों को खाने या पीने लायक़ कैसे बनाया जाता है- यह हम लोगों को बिलकुल पता नहीं था। लेकिन अब इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी हम लोग उठा चुके थे तो उससे पीछे नहीं हटना था।
‘हिंदुआइट्स आर डायनामाइट्स’ पीकू ने याद दिलाया। पीछे नहीं हटना है!
टीम क़ुतुब रोड ने हॉस्टल का इतिहास बदलने की ठान ली थी!
भांग हमारे लिए एक कहानी थी। एक ऐसी कहानी जिसमें जो जो होता था वह वह नहीं रह जाता था। उसके बारे में हमने जो जो सुन रखा था वह सब किए जा रहे थे।
जैसे गाँव में सुनते थे कि भांग में पीसते समय बादाम डालना चाहिये, काली मिर्च डालना चाहिये और बाद में खूब सारे दूध और चीनी के साथ घोल देना चाहिये। अरुण ने याद दिलाया कि भांग खाने के बाद भूख बहुत लगती है इसलिए खाने का पूरा इंतज़ाम रखना है। पैसों की कमी तो है नहीं। हमने खूब सारे केले ख़रीदे। महाशय ने कहा कि होली के दिन मेस बंद रहता है सो खाने का पूरा इंतज़ाम रखना है। हम लोगों ने ब्रेड के खूब सारे पैकेट, जैम और बटर ख़रीद लिए।
महाशय ने याद दिलाया कि उसके गाँव में जब किसी को भांग का नशा बहुत चढ़ जाता तो उतारने के लिए खट्टा खिलाया जाता था। हम लोगों ने अचार का मर्तबान ख़रीद लिया। हम कोई कमी नहीं रखना चाहते थे। इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी जो हमें दी गई थी।
होली की पूर्व संध्या ने टीम क़ुतुब रोड ने अपने कोर मेम्बर्स के साथ सोचा कि क्यों न रिहर्सल कर लिया जाये! भांग पीसने बनाने के जितने भी सीन हमारी कल्पना में थे सबको आज़माते हुए हम लोगों ने घोल तैयार किया और पी गये। उसके बाद टीम क़ुतुब रोड के सदस्य धीरे धीरे चोला बदलने जैसी अवस्था में आने लगे। अरुण कुछ नहीं कर रहा था बस केले खाये जा रहा था।
महाशय बस बोले जा रहा था- अचार खाने से भांग का नशा उतर जाता है। वह अचार का मर्तबान ख़ाली करने में लगा था। ठाकुर कोने में बैठा ब्रेड जैम खा रहा था और बोलता जा रहा था- ‘काया ही हमारी सबसे बड़ी माया है! ब्रह्म हमारे अंदर ही होता है। और आज मुझे ब्रह्म ज्ञान हो गया है!’ इसके बाद उसने योगियों की अलग अलग मुद्राओं वाली जितनी तस्वीरें देख रही थीं सबको आज़माने की कोशिश करने लगता। फिर ठहरकर ब्रेड में पहले मक्खन लगाता और उसके ऊपर जैम, और खाने लगता।
अरुण को अचानक याद आया कि उसको अपनी प्रेमिका को हैप्पी होली बोलना है और जब तक हम कुछ समझते वह कमरे से बाहर, हॉस्टल से बाहर और फिर न जाने कहाँ चला गया। वैसे उसकी प्रेमिका कौन थी, कहाँ रहती थी, कोई थी भी या नहीं- हम कभी नहीं जान पाये! लेकिन वह निकल चुका था!
पिकु अख़बार के अंबार पर बैठकर फ़ैज़ को गाये जा रहा था- ‘बीमारे-शब और अक्से रूखे यार सामने/ फिर दिल के आईने से लहू फूटने लगा…’
मैं स्थितप्रज्ञ अवस्था में था। टीम क़ुतुब रोड का लीडर था मैं। मुझे कल का कार्यक्रम सफलतापूर्वक अंजाम देना था। इसलिए बीच बीच में केला खाता और रोने लगता। बस एक इमती था जो समझाये जा रहा था- प्रभात जी, अगर कल का प्रोग्राम नहीं हुआ तो चंदे का पैसा कहाँ से लौटायेंगे। होली आज नहीं कल है! कीप योर कूल। मैं रोये जा रहा था और केला खाये जा रहा था। इमती ने एहतियात के लिए टीम क़ुतुब रोड के सभी सदस्यों को मेरे कमरे में बंद कर दिया। जिससे जो हुआ कम से कम कल सुबह तक हॉस्टल में किसी को न पता चले।
अगली सुबह जब हम उठे तो मेरे कमरे में केले के छिलकों का अंबार लगा हुआ था। मैं, पिकु और महाशय उसके बीच सोये हुए थे। जब इमती कमरा खोलने आया तो कमरे के बाहर अरुण न जाने कब आकर सो गया था। वह कहाँ गया था, किससे मिला था, कहाँ से लौट कर आया था यह हम लोगों के लिए आज तक रहस्य है।
होली का दिन यानी हमारे नाटक के मंचन का दिन। उस दिन को याद करता हूँ तो टुकड़ों टुकड़ों में कुछ दृश्य याद आते हैं।
गौरव हॉस्टल के आँगन में बैठकर बोले जा रहा था- भांग विषैली थी। अरेस्ट टीम क़ुतुब रोड। शैलू लगातार पैदल चले जा रहा था। जब दोपहर के दो बज गये और उसका चलना नहीं रुका तो वार्डन को सूचित किया गया। वार्डन ने उसको डॉक्टर के पास ले जाने के लिए गाड़ी निकाली तो वह गाड़ी में नहीं बैठा। बस बोले जा रहा था, ‘सर, आज अगर मैं बैठ गया तो मर जाऊँगा।‘ वार्डन की गाड़ी आगे आगे चल रही थी वह गाड़ी के पीछे पीछे दौड़ रहा था।
पिकु अखंड समाधि की अवस्था में बैठ गया था। बीच बीच में अचानक उसका ध्यान टूटता तो गाने लगता- ‘तू किसी और की जागीर है ऐ जाने ग़ज़ल/ लोग तूफ़ान उठा लेंगे मेरे साथ न चल, ओ मेरी जाने ग़ज़ल।‘
महाशय की ज़िद थी कि अगर वह आज प्रिया के साथ होली नहीं खेलेगा तो उसका वादा टूट जाएगा। कल ही उसने वादा किया था कि चाहे कुछ हो जाये होली पर वे कभी जुदा नहीं होंगे। किसी भी होली पर कभी नहीं और कमबख़्त पहली ही होली जुदाई में मन रही थी। हम कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि प्रिया मिरांडा हाउस कॉलेज के हॉस्टल में रहती थी। वहाँ हम जा नहीं सकते थे। वह चुप हो नहीं रहा था। हम कभी उसको अचार खिलाते, कभी पूड़ी खिलाते और दिलासा देते- ‘होली एक दिन की थोड़े होती है। मेरे गाँव में तो होली तीन दिन तक मनाई जाती है। चुप हो जाओ महाशय चुप हो जाओ!’
गौरव को कुछ ही दिन पहले कॉलेज के पास रिज़ पर एक बंदर ने पकड़कर हालचाल पूछ लिया था। इसलिए उस दिन दिन भर उसको जो मिलता उससे कहता- ‘जब बंदर सामने आये तो अपनी हथेलियों को बिलकुल सीधा रखते हुए चलना चाहिए। उसको बंद मुट्ठी से समस्या होती है। और हाँ, आपके पास कोई सामान नहीं होना चाहिए।‘ उसके बाद वह अपनी हथेलियों को नीचे की तरफ़ सीधा चलते हुए डेमो करके दिखाने लगता। पता नहीं शाम तक उसने कितने लोगों को यह डेमो दिखाया कि उसका नाम ही पड़ गया- गौरव बंदर!
कुल मिलाकर उस होली की यही याद है कि शाम तक चार लड़कों को अस्पताल जाना पड़ा था। टीम क़ुतुब रोड हॉस्टल से अंतर्धान हो गई थी। ग़ायब होने का बड़ा कारण यह था कि चंदे के पैसे से खाने का जितना सामान लाये थे हम सारा खा गये थे। किसी को खिलाने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। मेस तो बंद था ही।
हम लोग मलकागंज में एक दोस्त के कमरे बैठे हुए थे। सोच रहे थे अब हॉस्टल जाएँगे तो क्या होगा? इमती दिलासा दे रहा था- अगर चंदे के बारे में किसी ने कुछ बोला तो बोल दूँगा मेरी जेब से गिर गये। आप टेंशन मत लो प्रभात जी- होली थी हो ली!
अगले दिन हॉस्टल के वार्डन ने भांग कांड के दोषियों की शिनाख्त के लिए जीबीएम बुलाई।
‘‘सबसे पहली बात यह कि भारत में भांग बैन नहीं है और दूसरी बात यह है कि भांग को ड्रग्स की कैटेगरी में नहीं रखा जाता है। और तो और दिल्ली में भी भांग के सरकारी ठेके हैं… जहां से कोई भी भांग ख़रीद सकता है, खा सकता है…’ मैं जीबीएम में बोल रहा था।
होली थी हो गई।
आज भी जब उस दौर के हॉस्टल संघाती मिलते हैं तो उस ऐतिहासिक होली को अवश्य याद करते हैं जिसमें हॉस्टल में भांग का प्रवेश हुआ था।