ठगिनी
मरूस्थल के आठ गांवों में वह इकलौता ताल था, थे तो जेठ के गरम दिन, लेकिन रात ठंडी थी और चांदनी रात थी। ताल चांदी के तारों की कढ़ी हरी नीली चूनरी सा चमक रहा था। बगल से जाती आठ कोस की कच्ची – पक्की सड़क पर उसे अकेले जाना था।
ताल के एक किनारे पर सोता हुआ सा राणी सती का मंदिर था, कोई सती जो अट्ठारह सौ निन्यानवे में अंग्रेजों के जमाने में सती हुई। गांव के लोगों से जेल भर गई थी, जोधपुर की, पर गवाही किसी से नहीं दी। सब छूट के आए और पीले रंग के पत्थर की नक्काशी करवा कर यह मंदिर वनवाया था। जिसके किनारे एक खेजड़ली थी, जिसपर न जाने कितनेक लाल लीरे लटके थे, कुंवारियों और सुहागणों के बाँधे हुए। मंदिर के एन सामने ताल की तरफ मुंह किए पीले पत्थर का कारीगरी का नमूना सा चौंतरा ( चबूतरा) बना था । सावन मास में यहाँ इस कच्चे पक्के प्रांगण में खचाखच मेला भरा रहता था।
क्या अभी भी कोई बैठा था? एक आदमी था वो तो चुपचाप चला गया पर वो वहाँ कौन है अब भी? वो भी रात ढले ? वहाँ तो कोई औरत बैठी थी। औरत है कि कोई डाकण? लंबी, भरी – पूरी। छींट की ओढ़नी, पीली मगर चांदनी में जिसका रंग सफेद ही दिख रहा था। फर फर हवा में चोटी खोल कर निकल आए बालों की मोटी जुल्फ ने चेहरा ढांप दिया था। सरवण मन ही मन कांप रहा था, पर आवाज कड़क कर के बोला – कौन है वहाँ।
जुल्फ घूंघट की ओट चली गई। औरत सिकुड़ कर बैठ गई। मायाविनी है क्या कोई? या कोई डाकू? कहते हैं, लंबी मूंछ वाला लहरी डाकू घाघरा – लूगड़ी पहन कर व्यापारियों को रास्ते में मिलता, बैलगाड़ी रुकवाता और फिर घाघरे से अपनी तलवार निकालता, नगदी – जेवर लूटता और मरूस्थल के धोंरों में अपनी ऊंटनी पर सवार गायब हो जाता। सरवण की पेंट की खुफिया जेब और डबल पहने सलेटी मोजों में एक नई भैंस बेचने के बाद साठ हजार रुपए कसमसा रहे थे। सरवण ने एहतियातन चाकू निकाला, ” कौन है? बोल!”
औरत डर कर खड़ी हो गई, घूंघट पलट कर धूजने ( कांपने) लगी। इशारे से छाती पर हाथ रख कर फुसफुसाहट सी निकाली ।
” अम्म !”
“कौन मैं?”
अट्ठारा – बीस साल की लड़की – सी औरत। जल्दी – जल्दी एक सांस में सरवण ने उससे ढाणी, गांव और जाति, पंचायत सब पूछ डाली । लड़की चुप, बड़ी – बड़ी आँखों से चुपचाप ताकती रही। सरवण अजीब पशोपेश में। सरवण उससे माथापच्ची किए बिना आगे बढ़ लिया। आदतन मुड़ कर देखा तो, हाथ में मोजड़ियां लिए वह नंगे पैर पीछे – पीछे आ रही थी। धूप में तपा – सुनहरा गेंहुअा रंग, तीखी नाक, भिंचे – भिंचे होंठ। सूनी सी बड़ी आँखें। हवाइयां उड़ी – उड़ी। सरवण ने टाल दिया – जा रही होगी कहीं, साथ का सहारा खोज रही है। आगे मुड़ जाएगी किसी ढाणी में, ससुराल से रार कर, रीस कर निकल गई होगी, अब डर लग रहा होगा। पेंट के नेफे पर हाथ फेरा, पहली गड्डी सलामत। ठिठक कर एक पैर से दूसरे पैर के मोजे को टटोला दूसरी गड्डी सलामत, तीसरी भी। पेट पर बँधी नए गढ़ाए गहनों की पोटली तो गड़ कर लगातार पता दे ही रही थी।
दोनों आधा मील चल लिए, सरवण मुड़ा तो देखा कि हथलेवे में बंधी लाड़ी के नाईं वो पीछे पीछे आ रही थी। चेहरे पर वही थकान जो देर रात के कारण नवेली के मुख पर हो। हूक – सी उठी चालीस साल के सरवण के। अजीब से समय पर मिली इस ठगिनी – मायाविनी के भय के चलते, उसने ज्यादा बात नहीं की। वरना अपने सुंदर डील – डौल, बातों और अाखिर में चांदी – गिलट के जेवर और रोकड़े के लालच से बाहर गांव में वह कई औरतों को अपने निकट लाता रहा है। यह परिस्थिति कितनी विचित्र है, एकांत है, स्त्री है साथ चलती हुई लेकिन उसकी आगे बात करने की हिम्मत नहीं हो रही। उसका कुतुहल बढ़ा, वह उससे बोलने और उसे परखने के लिए बेचैन हो गया। पगडंडी खत्म हो गई थी, टूटी – फूटी सड़क आ गई थी।
“ससुराल से रीस कर आई हो क्या?”
वह चुप।
“मायरा किस गांव में है?”
वह चुप।
“ब्याव हुआ है कि नाते – वाते।”
वह चुप।
” चुप रहना है, तो मेरे लारै आणे की जरूर्त तो है नी। ” कहकर सरवण जल्दी जल्दी चल कर आगे पहुंच गया। वह चुप थी मगर जेठ की बौराई धूल भरी हवा चीख कर पूरे परिदृश्य पर झपट पड़ी। चांदनी धूल – धूसरित आस – पास उगी करील की झाड़ियों में छिपी बटपड़ों के चूज़ों ने पर फड़फड़ाए। मोर प्याओ प्याओ करने लगे। एक लोमड़ी सरपट भागी।
वह दौड़ कर पास आ गई। उसका कुर्ता पकड़ कर आँखों से भीख मांगने लगी। बच्ची – सी है ये तो, उसकी भतीजी केशरां की उमर की। गेहुंअन सुनहरा रंग, बड़ी और भोली आँखे, अच्छे घरों की सी सुघड़ नाक, चेहरे पर बालकों जैसी लुनाई कि बस अभी मां का आंचल छूटा और ताड़ पर चढ़ गई काचरी की बेल सी लंबी मगर कच्ची बेल। देवकन्या सी।
“ये क्या जबरदस्ती लारै चिपकणा? कुछ पूछो तो चुप्प।” सरवण बड़बड़ाया।
“मेरी मां, मेरे पीछे आने की जरूरत नहीं है। मैं कोई काका हूँ तेरा? ” सरवण चीख कर हाथ उठा कर, डपट कर बोला।
हताशा में लड़की वहीं रुक गई। कुछ कदम चल कर, वह सड़क के किनारे घुटने मोड़ कर बैठ गई। सिहरती देह से लगा रो रही है। दूर दूर तक सन्नाटा, सूखे मैदान में करील के झाड़, बेर – आकड़े। टूटी फूटी, नागिन की केंचुली – सी, रेत में लहराती – खो जाती सड़क। बीच – बीच में एकाध ट्रक आजाता। कहीं आत्महत्या न कर ले छोरी। जिस तरह से अकेली चल पड़ी है, कुछ भी अनहोनी हो सकती है। जीने की आशा खो दी हो ऐसा भी नहीं दिखता। जीना नहीं चाहती तो पीछे क्यों चलती? राणी सती के ताल में नाक बंद करके कूद लेती। सरवण का कुतुहल बढ़ा।
– ” देख रो तो मत। बात बताएगी तब तो समझूंगा न? दुख हर इंसान को होता है। पेड़ – पत्थरों को तो होता नहीं। तू अकेली लड़की की जात तुझे यहाँ छोड़ कर जाना मुझसे हो नहीं रहा। साथ तू चल ही रही है। पर ठिकाणा तो बताना पड़ेगा न! “
उसने गुरु जी के सुने प्रवचनों की दो बातें दोहरा दीं, इतने पर भी वह चुप। वह पूछ पूछ कर थक गया। फिर चल पड़ा, लड़की को मुड़ कर देखा, उसने पगरखियां हाथ में लीं और पीछे आने लगी।
सुना है चार पग साथ चल कर लोग अपने दुख बांट कर निश्चिंत हो जाते हैं। रात भर साथ चल कर, लगभग तीन कोस साथ चल कर दोनों में से कोई एक दूसरे के मन की थाह न पा सका। दोनों के बीच एक विचित्र मूकबंधन बंध गया। युवती अपना मन नहीं खोलना चाहती, वह कुछ कहना भी चाहे तो इसको कोई दिलचस्पी होगी लगता नहीं।
“देख बस सबेरा होने को है, एक कोस और चल कर मेरा गांव ‘पीतल्या’ आजाएगा। तू अब भी बता दे कि तेरे को जाणा कहाँ है? आधे कोस पर से मेरा खेत शुरू हो जाएगा। जहां मेरे बेटे हल जोतते मिल जाएंगे।”
युवती चुप थी, सलेटी सुबह उसके गेहुंआ चेहरे पर राख सी उड़ा गई। वह बुरी तरह क्लांत थी। डबडब आँखें, हमेशा गीली – गीली, मछली जैसी लंबी, कान तक चिरी हुई।
” मेरे गांव थोड़ी देर ठहरना हो तो ठहर जाना। अपने गांव और लोगों के बारे में बता दोगी तो, अपने लड़के को अपने खर्चे से भेज दूंगा। या अपनी बैलगाड़ी से। खो गई हो तो कोई निसानदेही उस जगह की कर दो, मैंने कितने ही तालाबों का पानी पिया है, बहुत जगह घूमा हूं। पहुंचा दूंगा। तुम आस – पास के सात गांवों की औरत नहीं हो, यह मुझे मालूम है। ” वह गर्व और संशय मिला कर बोला और आगे – आगे सीना तान कर चलने लगा। वह छाया की तरह पीछे चलने लगी। सूरज की लाली पूरब को केसरिया कर गई। तो युवती का रंग सुनहरा चमकने लगा। सरवण को लगा उसके होंठ पर भीनी मुस्कान आई। सरवण गुनगुनाने लगा –
खड़ी नीम के नीचे खड़ी मैं तो ऐकली
उसकी सुरीली गुनगुनाहट सुन लड़की को पीछे छूटा ठिकाणा याद आने लगा। पीछे छूटी एक मिनकी बिल्ली, मुनक्यो बकरी और उसके दो मेमने लीलू – सीलू याद आ गये। कल दोपहर जब दादी के घर से निकली तब से लेकर अब तक जो भी बातें हुईं, जो समझाइश दादी और मनोहर काकासा ने की वह सब कुछ याद आने लगे।
” गोगा पीर भला करना, मेले में मनोहर माट्साब ने सही आदमी की तरफ़ ही इशारा किया हो। ये आदमी वैसा तो नहीं लग रहा। भगवान ही जाने कि वही है यह कि कोई और! इस अनिश्चितता में भी शांति मिल रही थी उसे उसके पीछे चलने में, मगर पीछे छूटे हुए की याद में उसका दुख उमड़ पड़ा। बूढ़ी दादी के साथ बचपन से खेतीबाड़ी का काम, या फिर बकरियां संभालने का काम करती रही। मनोहर माट्साब लड़कों की प्राथमिक पाठशाला के मास्टर थे, दादी के रिश्ते के देवर। वह उनसे पढ़ना – लिखना सीखती रही। जैसे – तैसे आठवीं पास कर गई। बूढ़ी दादी ही उसकी सबकुछ थी। वह कभी पूछ न सकी कि वह किसकी संतान है, बूढ़ी के चार बेटे थे, उसी गांव में उनके घर – बार। फिर वह बूढ़ी दादी की किस औलाद की औलाद है? सबकी बेरुखी से उसने जान लिया वह कोई अनाथ अभागण है।
एक रोज़ अचानक, बूढ़ी दादी ने उसे समझाया कि उसके दिन अब यहाँ पूरे हुए। यह सुन कर वह तो घबरा ही गई ! वह ना – ना करती रही, बूढ़ी दादी रोती रही वास्ता देती रही। पिछली रात भर वह सो न सकी। मुर्गा जिसे उसने पाला उसने बांग दी तो वह रो पड़ी – ये भी पराया निकला। दादी ने पुरानी पेटी से निकाल कर मुड़े – तुड़े एक सौ आठ रुपए दिए। सुबह के दस बजते – बजते बूढ़ी दादी, वह और मनोहर माट्साब बस में साथ बैठ कर पास की तहसील में ले गए। वहां पशुमेला लगा था। धूल ही धूल उड़ रही थी। बैलों, गायों, ऊंटों, बकरियों और गधों के झुंड। बेचने वाले और खरीदने वालों के गुलाबी – पीले – नीले – सतरंगी पग्गड़ भी धूसर दिख रहे थे।
मनोहर माट्साब “फलां गांव के फलां मनख ” सरवण को खोजते थे। दादी हर आदमी का मुंह ताकती और मना कर देती। ऐसे ही दोपहर बीत गई, शाम होने आई। मनोहर काका ने पच्चीस रुपए देकर एक छोरे को काम पर लगाया, तब जाकर वह खबर लाया। पीतल्या गांव के उपसरपंच श्रवण भाटी आया था, नई ब्याई भैंस और पाड़ी का मोलभाव तो दोपहर ही हो गया फिर वो सर्राफे की तरफ़ निकला, घर में किसी का शादी – ब्याह है, लाड़ी के लिए सोने का मांदल्या और चांदी के कड़े खरीदे हैं। अभी रमेश कुमावत के ढाबे पर खाना खा रहा है फिर निकलेगा राणी सती के दरसन के बाद पैदल ही। उसके गांव की तरफ बसें जाती नहीं, जीपें तो टूटी सड़कों की रेत में फंस जाती हैं। ऊंटगाड़ियां शाम के बाद चलती नहीं। बस ट्रेक्टर ट्रॉली चलते हैं, वो भी फसल के समय।
इतनी जानकारी मिलने पर बूढ़ी दादी ने उसे गले लगाकर, छाती पर पत्थर रख कर विदा ले ली। गले में अपनी चांदी की मोटी हंसुली डाल दी। कान में अपनी सोने की आठाने भर की बालियां। वह ना – ना करती रही। बूढ़ी ने कसम खिला दी। ” कांचणी, तेरे आसरे मैं जी गई इतना, मेरे आसरे तू बेटा कितना रहेगी? मेरी और मसाण की दूरी अब कितनी? तू अब लौट जा अपने ठिकाणे। गोगा पीर भली करेंगे, तुझे तेरा ठिया मिल जाएगा। तू छोटे घर की नहीं है, कि भोट्ये खटीक्ये जैसे मजदूर तेरा रिश्ता मांगने आ जाएं। तेरे खेत में काम करते हैं बावली भोट्ये जैसे दसेक। “
एक शाम के वक्त पिछवाड़े उस भोट्ये मजदूर से बात क्या करली उसने। दादी के बेटे उसे उससे ही मोल लेकर ब्याहने पर तुल गए थे । वह भी तुरंत हजार रुपए गिनने लगा, दादी के बेटों के आगे। जबकि उसका उसकी किसी बात पर हंस देने के सिवा कोई अपराध न था। ऐसे मे दादी ने उसे वापस जाने कहाँ और कौनसे ठिकाने भेजने की ठान ली। जैसे वह कोई वनवासिनी राजकुमारी सियाकुमारी ही हो ! उस रात संक्षेप में दादी ने कोई भयानक कहानी सुनाई । जो उसने यूं सुनी कि किसी और की कहानी हो। जबकि यह उसकी अपनी असलियत थी यह समझने में उसे बहुत समय लग गया। फिर जो उसका रोना शुरू हुआ थमा ही नहीं । वह तो कह भी नहीं सकी, ” दादी मेरी ज़िंदगी तेरा अहसान है, मैं तुझे क्या दूं लौटाकर? ” मंदिर में पहुंच कर भी बस रोती रही मुड़ मुड़ कर, दादी को खोजती सी उसकी आँखें बह बह कर सूज गईं।
मनोहर माट्साब उसे राणी सती के ताल के किनारे एक चौंतरे पर बिठा कर दूर बैठ गए। पीली और धानी पाग में एक लंबा सा सतर आदमी मंदिर के अहाते में घुसा। मूंछ की अकड़ और पाग के तुर्रे की अकड़ कोई ढीली न थी। तप कर गोरे से तांबई लाल हुई रंगत। छोटी तीखी बाज सी आंखें। घमंड दिखाती नाक। मोटे होंठ। खेजड़ी के नीचे मुंह पर गमछा रखे हुए काका ने उसी की तरफ़ तर्जनी का इशारा किया। वह उस आदमी को एकटक देखती ही रह गई। पहले वह ताल की तरफ ही बढ़ा, वह धोती खोलने लगा तो वह , वह पलट कर बैठ गई। आवाज़ों ने पता दिया कि उसने स्नान पूरा कर लिया था। थैले से पूजा का सामान निकाल कर घंटे भर तक राणी सती के मंदिर में कर्मकांड करता रहा। कुछ देर पेड़ के नीचे एक घंटे नींद ली। मनोहर माट्साब उसे हाथ हिलाकर निश्चिंत होकर जा चुके थे। शाम ढल गई थी, रात करवट बदल रही थी। यह चौंतरे पर स्थिर बैठी थक चुकी थी और रात की पहली ठंडी बयार चलने पर बालों की लट चेहरे पर छा गई थी और इसने क्षीण, सिमटी – सी अंगड़ाई लेकर पहलू बदला था। यही समय था जब सरवण ने इसको देखा था। चौंका था।
जमीन, जंगल सब बदलने लगा था। टूटी सड़क भी खत्म हो गई। पगडंडी जिस पर वह चल रहा था उसके दोनों तरफ़ लंबे – लंबे थूर के अनवरत जंगल शुरू हो गए। उसने कांटों के डर से पैर में पगरखियां डाल लीं। थूर का जंगल जहां खत्म हुआ, एक ओर फसल कटे खेत आने लगे। दूसरी तरफ़ सूखी घास का मैदान। इक्का – दुक्का गाँए चराने वाले कच – कच करते मिलने लगे।
“वहां से हमारे खेत चालू होंगे।” सरवण ने पीछे मुड़कर उसे बताया। उसके होंठ सूख रहे थे। मशक से उसने उसे पानी पीने को दिया , आखिरी ओक के पानी से उसने मुंह पखार लिया। धूसरित चेहरे से धूल धुलते ही, सुनहरी रंगत निखर आई, मांसल होंठ नम हो गए। आँखें पूरी खुल गई। सरवण कितनी बार ठिठका उसके रूप को देख कर, फिर उसके बालकों जैसे मुंह को देख कर उसकी अनजानी बदकिस्मती पर आह भर कर आगे चल पड़ा।
इस छोटी उमर की औरत को लेकर सरवण जब गांव में घुसा उसके पीछे कुछ लड़के चलने लगे। उनके गांव पहुचने से पहले ही एक सायकिल सवार स्कूली छोरे ने गांव लौट कर सरवण के किसी सुंदर, कम उमर की औरत के साथ आने की बात फैला दी थी। पंद्रह मिनट लगे होंगे कि सारे गाँव में खबर फैल गई।
“मेले में भैंस बेचने के बाद उन पैसों से ब्याह कर लिया। छि: छि: बेटे का ब्याह सर पर है, पहले खुद ही ब्याह कर लिया!”
” एक औरत रखैल खरीदी है, सरवण काका ने। उपसरपंची गई उसकी। “
यह ख़बर जब सरवण के घर पहुंची तो उसकी लुगाई छाती कूट – कूट कर रोने लगी। मां को तड़पता देख जल्दी ही ब्याहने वाला लड़का ताव में आ गया। लाठी उठा ली।
” मेरा पूत है तो मत चढ़ने देना उस बाजारू औरत को मेरी मेड़ी में।”
इस सारे तमाशे से कुछ आशंकित, कुछ अनजान सरवण एक भीड़ को धकेलता घर में घुसा। बेटा सामने आया तो उसने उसे धकिया दिया। युवती को तो तमाशा समझ एक भीड़ ने बाहर ही घेर लिया था। सरवण भीतर आंगन में खंभे के आसरे सिर पर हाथ धर कर खड़ा हो गया।
“क्या भीड़ जमा कर रखी है बावलों? यह छोरी मेरी कोई नहीं है। बिना पैचाण राणी सती के मंदिर से ही पीछे लग गई। “
लोग ऐसी बेसिर पैर की बात पर क्यों विश्वास करने लगे? घर की औरत तो बिलकुल नहीं।
” इनके लक्खण कब सीधे थे। कभी वो रूपसिंह की रांड से चक्कर, कभी बूढ़े सरपंच की पतोहू से लाग लपेट। किसलिए कोई औरत लारै लगेगी? लालच दिया होगा चांदी की पायजब का। ” कह कर सरवण की पत्नी मोगरा रोने लगी।
“सच कह रहा हूं, सोहन की मां। ये कुजात औरत मेरी कोई नहीं। खुद ही कोई पूछ लो जो ये बोले। रास्ते भर ये बोली ही नहीं। मैं तो पूछ – पूछ कर मर गया, न साथ छोड़े न कुछ बोले।” भूखे सरवण को न खाना मिला न खाट। वह लकड़ी के खंभे से टिक कर, साफा उतार कर पसर गया और कुघड़ी को कोसने लगा। उसकी लुगाई ने खपरैल वाली कोठरी बंद कर बेसुरा लयबद्ध विलाप शुरू कर दिया।
सोहन और सुगम मां के लाड़ले, बाप के खिलाफ़ पंचायत बैठाने चले। बड़े लड़के की बहू मैना ने सुध ली भीड़ में फंसी तानों की मार झेलती, धक्का खाती उस अनजान युवती की। खुद घूंघट काढ़ा, लड़की के लुगड़े को भी ठीक करके घूंघट करा दिया और आगे बढ़ कर कंधे से थाम कर उसे सुरक्षित औसारे में ले आई । पानी पिला कर कोने में बिठा दिया। कुछ देर में भीड़ लौट गई, घर के लोग एक तनाव में बंद चाय सुड़क रहे थे। चाय के बाद सरवण की लुगाई ने बहू को हुक्म दिया कि इसे बाहर निकाल दे। जहां समझ आए इसे वहां जाए। लड़की के आंसू टप-टप बिन आवाज़।
“तू कौन है अभागी, बोल तो! अब मैं कुछ कर नहीं सकती, भगवान का ही आसरा है। सच ही तू कोई ठगिनी है क्या? “
उत्तर में लंबी मछली आँखों में वो कातरता ले आई कि रास्ते भर और कुछ पूछ ही न सकी मैना । बस उसे मंदिर के आगे छोड़ गई। वह धीरे से दीवार से सटते हुए, पांच सीढ़ी छाया की तरह सरकती, खंभे से लगी भीतर जा बैठी। पूरी रात की जागी क्लांत आत्मा ठंडे फर्श पर सो गई। जीर्ण मंदिर के पुजारी एकाकी वृद्ध थे। श्रवण कुमार भाटी की कथा छोरों ने उन तक पहुंचा दी थी। श्री राधा – माधव को जगा कर भोग लगा कर उठे, तो ठंडे फर्श पर सिकुड़ कर लेटी आकृति का केवल मैला गुलाबी ओढ़ना और मैल की चिरंतन दरारों से फटी एड़ियां ही दिखीं।
उस म्लान – क्लांत आकृति से कोई प्रभामंडल फूटा या भरम हुआ पुजारी को! उन्होंने सूजी के हलवे का प्रसाद दोने में भर, एक सकोरा दूध के साथ बगल में रख दिया। ज़रा सी आहट से जागने वाले बिन मां के मेमने सी वह उठ बैठी।
“खाले! पहले। फिर सुनें मरम कथा तेरी भी।”
गाँव के बाहर पालीवालों के कुँएं के सामने फैले पांच बरगदों वाले छायादार हिस्से में गाँव की पंचायतें होती थी। दोपहर ढली तो एक नई तरह की समस्या पर आपातकालीन पंचायत बैठी। सरवण अपनी पर अड़ा था कि यह कम उमर की लड़की मेरी कोई नहीं है। यह बिन बोले मेरे पीछे आगई है। उसकी इस बात पर किसी को यकीन न था। लड़की का रूप ही माया है। फंस गया सरवण। झूठ पर झूठ बोल रहा है। खेतों – ढोर – डंगरों का काम छोटे लड़कों पर डाल कर बड़े पंचायत में शामिल हुए। मगर छोटे लड़के पंचायत में आने के लालच में काम भुला बैठे। कुछ बड़ों ने उन्हें गालियां दीं। अपराधिनी -सी पुजारी काका के पास बैठी उस युवती का लावण्य था ही ऐसा कि हर कोई रास्ता भूल जाए। गांव के लड़के मंडरा रहे थे, उसके आस- पास। फब्तियां कस रहे थे अश्लील।
आदमियों की पंचायत में औरतें अमूमन नहीं आतीं, पर यह मसला तो लुगाई और सौत का था। सो आज बात बदल गई। आस – पास के पेड़ों की आड़ में घूंघट काढ़े गांव की तमाम औरतें आ बैठीं।
सरवण की मूंछ आज कड़क नहीं थी, पाग का तुर्रा भी ढीला था। वह आज उपसरपंच की हैसियत खोकर सामने हाथ बांध कर बैठा था, लड़की को खा जाने वाली निगाह से देख रहा था। लड़की पुजारी काका के पीछे कहीं विलीन हो जाना चाहती थी।
सरवण को पंचों की आज्ञा हुई कि राणी सती की सौगंध खाकर सच बता दे। उसने रात राणी सती के ताल के पास बैठी इस अकेली अपरिचित युवती से सामना होने से लेकर सुबह तक की सारी बात विस्तार से बता दी। “इन बातों में राई रत्ती झूठ नहीं। राणी सती, गोगा पीर मेरी रक्षा करो। यह कोई डाकण ही है कि मायाविनी, इसके चलते हमारे ब्याह वाले घर में इतना कलेश हुआ। मैं जवान लड़कों का बाप, इसे क्यों खरीद कर घर लाऊंगा? रखैल ही रखना था तो वहीं तहसील में रख छोड़ता, वहां मेरा महीने के महीने आना जाना, यहां किसलिए लाता? सच कहता हूं पंचो यह मेरी कोई नहीं। इसी से पूछ लो, ये बोले तो न बोले तो लगाओ जूते, या रखो अंगारा इसकी हथेलियों पर। “
कह कर सरवण उठ गया और भीड़ में लौटकर आगे ही आगे सर पकड़ कर बैठ गया। सभा का शोरगुल रोकने के लिए अस्सी साल का सरपंच दहाड़ा। लोग चुप हुए। उसने लड़की को बुलाया। सामने सभा के बिठा दिया। लड़की सिर झुकाए, फटा गुलाबी लुगड़ा माथे पर लिए। सर घुटनों पर टिका कर बैठ गई। लीपा हुआ अहाता पैर के अंगूठे से कुरेदने लगी।
“देखो बेटी सच बताना। सरवण ने जो बताया क्या सच है?”
लड़की ने हां में गरदन हिला दी। शोर एकदम थम गया।
“तुम किस गांव की हो?”
लड़की ने बरगदों के नीचे की तरफ़ जमीन की तरफ अपनी ऊंगली सीधी कर दी।
“मतलब?”
लड़की ने गांव की बस्ती की तरफ इशारा किया।
“पीतल्या की हो तुम?”
लड़की ने हाँ में सर हिलाया।
“बोलती क्यूं नहीं बेटी, तू गूंगी है क्या?”
लड़की ने चेहरा ऊपर उठाया, आंसुओं से तर, और जल्दी जल्दी तीन बार हां में गरदन हिला दी।
कच कच कच कच करके सहानुभूति की सिटकारियां बरगदों की आड़ में बैठी औरतों की तरफ से आईं। आदमी सन्नाटे में बैठे रहे।
“यहां क्या सासरा है तेरा? किस घर में ब्याव हुआ तेरा? ” एक पंच ने पूछा, आशंका यह ठहरी कि बालविवाह की कोई परित्यक्ता है। गूंगी निकलने पर गौना नहीं हुआ, सो सरवण के पीछे गांव चली आई।
लड़की ने ना में सर हिला दिया है। अब तो खुसुर – पुसुर बहुत बढ़ गई।
” बावली तो यहाँ तेरा मायरा है क्या?”
लड़की हामी में गरदन हिलाती चली गई। लोग सन्न!
” कौन है तेरा पिता?”
लड़की ने सरवण की तरफ इशारा कर दिया। सरवण की लुगाई फिर एक आग में जली, कि किस सौतन की बेटी है यह?
“और मां तेरी कहां रहती है बेटी?”
लड़की ने सरवण की लुगाई की तरफ़ हाथ उठा दिया।
” पंचों गुहार! गैली है यह छोरी, कोई ठगिनी है। ” सरवण की लुगाई घूंघट के अंदर से चीखी।
अस्सी साला सरपंच गोपाल भाटी दादा उठे। सतर लंबे। सफेद लंबी फहरती दाढ़ी । वे कंचन के सर पर हाथ फेरने लगे फिर भीड़ की तरफ़ मुंह करके बूढ़ी हुंकार लगाई। वे बूढ़े बरगद से हिल रहे थे। सिर झूम रहा था बूढे दादा का। जैसे भाव आए हों कुलदेवी के। भीड़ की गुनगुन गुबार – सी उठी वो बोले तो गुबार बैठ गया।
” मैं बूढ़ा हो चला हूं, पर मेरी दीठ अब भी सच देख लेती है। मेरा पड़ाव अब मसाण है सो कोई लोभ मुझे है नहीं। इसे ले आने मे सरवण का दोष मुझे नहीं लग रहा साथ ही यह गूंगी कन्या मुझे तो निर्दोष लगती है। बेटी बता तेरे साथ अन्याय क्या हुआ? तू सरवण के पीछे क्यों और कैसे आई?इशारों में सही सच बता, यह तो हमें जानना होगा। “
बेज़बान लड़की गों गों कर ऐसा गूंगा विलाप करने लगी। भीड़ में बैठी औरतों की छातियां दरक गईं। कैसी तो उदासीन सज्जा, फटी ओढ़नी, रेत भरे बिखरे बाल, मैली एड़ियां! लेकिन उसकी सृष्टी तो मलिन सज्जा में ही खिलने के लिए हुई थी मानो। पर उसकी गोंगो कौन समझता?
“पंचों इस लड़की से सत्य कहलवाना होगा चाहे इशारों में, चाहे जैसे। फिर जो सच सामने आए। यह अब गांव की बेटी है, ठौर पाने तक मंदिर इसका घर। मैं दोनों पक्षों को सात दिन देता हूं। इस लड़की का बाल भी बांका न हो, पंचों मंदिर के आस – पास नज़र रहे। ” कह सरपंच गोपाल दादा, पुजारी और लड़की के आगे कांपते हुए हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। पुजारी ने गूंगी लड़की की तरफ आश्वस्ति से सर हिलाया और झुकी बूढ़ी पीठ लिए चल पड़े, वह उनके पीछे। भीड़ तमाशा मजेदार न होने की निराशा में धूल उड़ाती पलट चली। अश्लील फब्तियां कसते लड़के खुद की निगाह में शर्मिंदा से होकर विलुप्त हो गए।
ये सात दिन, गाँव के इन्हीं चर्चाओं – कुचर्चाओं में बीतने थे। यही गाँव नहीं बात गाँव के बाहर चली गई थी। गाँव में ब्याह की सायतें भी चल रही थीं, बाहर गांव के लोगों का आना – जाना लगा था। इस सब सगुन – सायतों के बीच कभी गूंगी लड़की लोगों को याद – रहती, कभी भूल जाते। लेकिन गांव के मर्म एक काँटा तो बिंधा ही था। इधर …..सरवण आग पर लोट रहा था। दो पंच उसके पक्ष में जमे थे, दो पंच सरपंची के दावेदार गोपाल काका की तरफ झुके थे। एक शाम सरवण ने बुला भेजे बाकि के दो भी – इंगलिश रम की बोतल रख कर बोला – “पंचो ये ज्यादती है, न जाने किस की औलाद मेरे माथे डाल रहे हो. इसने गूंगी ने कह दिया, आँख के थोड़े आँधरे पुजारी ने बताया कि लड़की निर्दोष और सच्ची है और आप सब मान कैसे सकते हो? ऐसी – वैसी कोई बात तो हमारे जमीन पर गिरती परछाइयों ने कभी कुबूल नहीं की। फिर सबूत क्या? “
पंचायत क्यूं मानेगी भई गूंगी की बात? पंचों के मगज में यह बात अटकी थी कि ऐसे बरसों बरस बाद लौटने लगीं, सर पर चक्की के पाट जैसे बोझ सी, पाग के तुर्रे और मूंछ की ऐंठ में ढील डालती ये छोरियां तो हो गयी गाँव की प्रमुख जात की गत! बात फैली नहीं होती, अब भी उतना मुश्किल नहीं होता लड़की वो भी गूंगी को…
“सरपंच जी ने बोला न….निपटाने की बात तो सोचना भी मत। बात गाँव के बाहर तक पहुंच गई है। ” एक पंच ने डराया। इतनी बड़ी बात तहसील – जिले तक न फैले इसलिए सब एहतियात बरतना चाहते थे। लड़की को सात दिन अपने पक्ष में फैसले के बाद वापस वहीं, जहाँ से आई है फेरना ही होगा।
वह भादू था, पढ़ा – लिखा कुम्हार युवक जो अपने स्कूल पढ़ाने जाता सुबह सुबह। तब जाते हुए देखता मंदिर के धुंएं – धुंधलके में गूंगी लड़की की देहाकृति को। वह सुबह – सुबह बुहार रही होती मंदिर का लिपा अहाता। एक गूंगी का साहस उसे अचरज में डालता।
वह इस गाँव का नहीं था, न इस तहसील का। वह पंचायत समीति एक अध्यापक वाले स्कूल में तैनात था। स्कूल का पीर – भिश्ती, खर – बावर्ची सब कुछ। गाँव के बच्चे उसे बहुत पसंद करते थे। बड़े एक ठंडी निगाह से ज्यादा कुछ न देते। वह इस गाँव में लड़कियों की संख्या पर हैरान था। जितनी बड़ी जाति, बड़ा घर उतनी कम लड़कियाँ। वह एक बार घर – घर गया, लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए जागरुक करने। अगले दिन ही धमकियों के मौखिक परवाने आगए। वह चुप बैठ गया भुनभुना कर – दुनियां कहां की कहां जा रही है, इनका हाल आज भी यही।
तीसरे दिन वह हिम्मत करके नास्तिक होते हुए भी पंचाग पूछने के बहाने मंदिर के सीढ़ी चढ़ गया। पुजारी सुबह की पूजा समाप्त करके बैठे थे चौकी पर, गूंगी लड़की उनको नाश्ता परोस रही थी। जो शायद उसने ही बनाया था। सांकेतिक मूक संवाद में कोई आत्मीय संवाद चल रहा था। पुजारी भोजन के स्वाद की प्रशंसा कर रहे थे। वह हंस रही थी, उसकी आँखें हँस रही थी। भादू ने प्रणाम किया पहले पुजारी को, फिर लड़की को, वह संकोच में बस सर हिला कर रह गई।
“आजा भादू बेटा। चल तू रस्ता तो भूला। नहीं तो तू और तेरी पाठशाला। बैठ, जा बेटा इसके लिए भी राबड़ी घाल ला। बहुत दिन बाद ऐसा स्वाद लिया मेरी रसना ने।”
“मैं तो भोजन करके ही निकला, किंतु आप स्वाद की बात कह रहे हैं तो देखें…”
वह तुरंत एक पीतल के कटोरे में राबड़ी ले आई। पुजारी को यह उचित अवसर लगा, वे उठे और उन्होंने अपनी आरती और मंत्रों की तेल – सिंदूर रची कॉपी के फटे पन्ने पर ! लिखा और भादू को से बोले।
“आज एक पुण्य का काम कर जा भादू, इसकी रामकहानी तो तूने सुनी होगी। इसका अभागी का नाम कंचन है, इससे तू इसका पूरा बयान लिखवा, इशारों में थोड़ा जो मैं समझा वो बता देता हूं, बाकि तू पूछ कर लिख इस कागज पर, ये भी लिखना जानती है। फिर तू सलाह देना कि फैसला सही हो इसके लिए क्या करें? “
दोनों दोपहर होने तक मंदिर की चौड़ी सीढ़ी पर बैठे। भादू ने जो भी लड़की से इशारों में निकलवाया था या कोयला दे कर सीढ़ी के फर्श पर लिखवाया था। फिर खुद हाथ से कागज पर लिख कर, दो बार इसके आगे पढ़ कर पक्का किया था। आज स्कूल छूट गया, वह कंचन के आग्रह पर दोपहर के भोजन के लिए रुक गया।
कहते हैं चोर बार- बार गुनाह की परछाइयां टटोलता है। सरवण मुंह पर फेंटा बांध कर मंदिर के आगे से गुजरा। गली से निकलते ही चौड़ी, मोड़ पर से देख लिया उसने लाल पत्थर की सीढ़ी पर गाल पर हाथ टिका कर, ठीक उसकी अपनी पत्नी मोगरा के मोहक अंदाज में कंचन किसी आदमी की बातें गौर से सुन रही थी। उस आदमी की पीठ थी। छोरी की तीखी नाक और शहद के रंग की आँखें, गोरे माथे के तीन सल उसे अपना आईना लगे। ऐसी लंबी काठी की छोरी तो किसी और …. जल्दी – जल्दी चल कर उसने इस सोच से पीछा छुड़ाया तो दूसरी सोच साथ लग गई। वह मंदिर के सामने था।
” ये इस भादूड़े की क्या बात सुन रही है? क्या सिखा – पढ़ा रहा है ये छोकरे जैसा मास्टर? कहीं लड़की को शीशे में तो नहीं उतार रहा? इतनी हिम्मत इसकी कि मेरी……हंह मेरी क्यों? मेरी होती तो इस तरह खुलेआम इस भादूड़े से…” सर झटक कर, नाली में थूकने को हुआ कि उसके चेहरे पर लपेटा फेंटा खुल के गले तक आ गिरा, ठीक उनके आगे। दोनों की नज़रे नीचे रास्ते पर ठिठके सरवण पर पड़ीं। भादू झेंप गया, उठने लगा। सरवण की चोर नजर कंचन की कातर नजर से मिली ।
” करियो थारो काईं मैं कसूर?” ( मैंने क्या कसूर कर डाला तुम्हारा )
भटक कर घर लौटा सरवण तो कुलदेवी की पूजा के गीत गाए जा रहे थे। जाजम पर इकट्ठी लुगाइयां मंगलगीत गा रहीं थीं। पत्नी मोगरा का चेहरा जो कल तक जगर – मगर था, छोटके के ब्याह के उत्साह में, आज बुझा हुआ था। गोरे रंग पर राख। उसके कान बस विदा गीत सुन रहे थे – छोटी सी उमर ……..करयो थारो काईं मैं कसूर ? सरवण भी अनमना हो गया। कल लड़के का तिलक है। पूरी बिरादरी का जीमण होगा। लड़की के पैरों की बिवाईयां, फटा लुगड़ा और सुंदर मगर उदास मुखमुद्रा उसके आगे कौंध गईं। उसे झुंझलाहट हुई, उसने खीज कर अपनी पगरखियां जोर से पैर से उतार फेंकी और गहमागहमी से अलग भीतर कमरों की तरफ बढ़ गया। उसके आगे खाना लगाती बड़े की बींदणी को मना कर दिया।
“अभी नहीं।”
छोटे के तिलक की रस्म हो गई। कंचन दोनों पति – पत्नी की सोच में गोखरू की तरह अटकी रही। दोनों झुंझलाते रहे। सातवें दिन फैसले का इंतज़ार दोनों पक्षों को था। इस पक्ष के आगे बचाव के सवाल थे। सबूत दो ! गवाह लाओ !
उस पक्ष के पास मुकम्मल जवाब थे, पर जब ज़बान ही नहीं तो? सातवां दिन आया, दोपहर ढले तक ठीक वैसे ही गाँव के बाहर पालीवालों के कुँएं के सामने फैले पांच बरगदों वाले छायादार हिस्से में पंचायत जमी। लोग – लुगाई पहले से आ जुटे। पुजारी के साथ, अपना आंसुओं से धुला चेहरा लिए कंचन सर उठाए, फटे लुगड़े को तरतीब से जमाए आरही थी। उसके पीछे गाँव के वही छोरे भादू के साथ शांत चले आ रहे थे। इस बार दो पत्रकार भी आगए। चार पंच और एक नया नियुक्त युवा उपसरपंच और सरपंच गोपाल काका धीरे – धीरे आगे बिछी जाजम पर जा बैठे। गोपाल काका सा ढले हुए से दिख रहे थे, चिरपरिचित हुंकार को विश्राम दिए ।
उपसरपंच उठा – हाँ सरवण काका, आप पहले रखें अपना पक्ष।
सरवण अपने कुनबे के बीच बैठा था। उसकी पत्नी मोगरा घूंघट में से पुजारे के पीछे छिपी रुआंसू लड़की को देखे जा रही थी। दोनों बेटे शादी वाले घर में रुक गए थे। सरवण के दो भाई और जीजा साथ थे। बड़े वाले की बहू अपनी सास का कुछ ढीला स्वास्थ्य देख साथ चली आई।
सरवण उठा, पंचों को नमस्कार किया। बहुत विनम्र शब्दों में बोला – ” घणी खम्मा! पंचों। मुझे क्या पक्ष रखना है, सारा गांव जानता है पूरी बात कि कैसे सात दिन पहले इसी तहसील के एक गांव से यह अनजान, बालिग गूंगी लड़की पशु मेले के बाद मेरे साथ चली आई है और इसका कहना है यह मेरी संतान है। मैं खुद उपसरपंच रहा हूं, इस पंचायत का, जिसे सबूत और गवाहों की दरकार रहती है हर फैसले में। मैं इनकार करता हूं कि यह मेरी संतान है, है तो यह सबूत दे।”
उपसरपंच ने कंचन को उठाया – लड़की, सुन तो तुम लेती हो। सरवण काका ने जो कहा वह सुना होगा। क्या तुम अब भी यही कहोगी कि तुम सरवण की संतान हो? सबूत क्या है तुम्हारे पास?
पुजारी के इशारे पर कंचन उठ कर ने अपना लिखित बयान पंचों के आगे कर दिया। जिसे युवा सरपंच ने पढ़ा
“ईसवर समान पंचों,
कंचन कुमारी भाटी का खम्माघणी । मैं जन्म की गूंगी नहीं हूं। न मैं अनाथ हूं। यह मेरी दादी ने बताया। मेरे हिस्से में मेरे पिता श्रवण कुमार भाटी की वल्दियत है। मेरी माता मोगरा देवी है। मैं इन दोनों की पहली संतान हूं, जिसे दाई भूरी दरोगा ने जन्म दिलवाया था। कन्या होने के कारण, मुझे एक थैली नमक के साथ भूरी को सौंप दिया गया। भूरी दाई ने, मेरे कंठ में नमक भर कर थूर के जंगलों में पटक दिया था। दूसरे दिन भूरी दाई अपनी विधवा ननद कौसल्या के साथ मुझे देखने आई, यह मेरा दुर्भाग्य था कि मैं तब तलक जीवित थी। अब तक मेरा लालन – पालन कौसल्या दरोगा ने किया है। जिनको मैं अपनी दादी समझती रही। अब वे अशक्त हैं मेरा पालन पोषण नहीं कर सकती, इसलिए उन्होंने मुझे पशुमेले में आए मेरे पिता को खोज कर, मुझे उनके पीछे भेजा था। मैं माता पिता होते भी अनाथ क्यों रही। अब फैसला पंच करें कि मेरा ठिकाना कहां है? पिता का घर मेरा है कि नहीं? “कह कर कंचन के गालों पर आंसू ढलकने लगे।
पुजारी से रहा नहीं गया वे उठे और अपने मंद्र गंभीर मगर डपटते स्वर में गाँव वालों से बोले –
” कितना ही मूंछों पर ताव दे लो निपूतों! पता नहीं बीते कई बरसों तक उन थूरों के जंगल से गुज़रते तुममें से कितनों के पैर उन छोटे – छोटे नरमुंडों पर नहीं पड़े होंगे? पता नहीं, तब तुममें से कितनों की छाती दरकी होगी! कितनी बार पुलिस आई होगी और कितनी बार हम सब ने जबान पर जानते – बूझते ताले लगाए होंगे, क्योंकि भाटियों तो भाटियों, दूसरे किसानों – कुम्हारों का भी कोई – कोई ही घर ऐसा था जिसमें भूरी दाई के कदम न पड़े हों।”
जो भीड़ सन्न थी अब पुजारी की डपट पर भीड़ में से एक भीगी, सहमी बेजार सहमति की हम्म हम्म की गुनगुन उठी। सरवण के बेटे सुगम की बहू मैना का मन हुआ घूंघट काढे दौड़ पड़े कंचन की तरफ। सरवण की लुगाई उस रूपसी बेटी को सन्निपात के मरीज़ की तरह देख रही थी। जिसे पहले सौत, फिर सौत की बेटी, ठगिनी क्या – क्या समझा वो बहुत पहले गोद से छीन ली गई पहली संतान है? जिसके वियोग में कांचली बरस भर तर रही थी दूध से। उसे समझ ही नहीं आया कि वह करे तो क्या करे? वह फुसफुसाई – कितनी बेर तो सपनों में आई थी अभागी, मैं पैचाणी कैसे नी? नाक तो एक दम अपने बापू जैसी है। ऐसा भाव उमगा कि कोमल काकड़ी सी, मतीरे की सुगंध वाली इस लड़की को अभी कांचली खोल कर दूध पिला दे। सन्निपात में ही डकराती वो उठी, घूंघटा फेंक के और खूंटा छुड़ा कर भागने को हुई नई ब्याही गाय जैसे, अपनी बछड़ी की तरफ। लेकिन उसके देवरों ने रोक लिया।
सरवण फिर उठा – “जोहार! यह लिखित एक तरफा बयान मानेंगे उपसरपंच जी? पंचों कुछ तो बोलो। यह सरासर झूठ है। “
सरवण की तरफ़ का एक पंच बोला – यह बयान तो एक तरफ़ा ही है, उपसरपंच जी। इससे कुछ साबित नहीं होता। मेरी मानें इस लड़की को वहीं भिजवा दें जहाँ से आई है। न तो अब भूरी दाई जीवित है, उसकी ननद कौशल्या सच में है तो सामने आई क्यों नहीं?”
एक पत्रकार आगे आकर प्रेस लिखा टटपूंजिया कैमरा लेकर कंचन के फोटू खींचने लगा। हर बार की तरह गाँव के छोरों ने न जाने क्यूं उसको खदेड़ा नहीं।
तभी भादू उठा, उसने उपसरपंच को तीन और कागज पकड़ाए, उनमें एक दादी का अंगूठा लगा लिखित बयान था, दूसरे सरकारी अस्पताल के कागज जहाँ नवजात बच्ची कंचन का इलाज चला था। तीसरा जन्म प्रमाणपत्र जो भूरी दाई के हस्ताक्षर से बना था, जिसमें पिता का नाम दर्ज था – श्रवण कुमार भाटी
“पंचो, कौशल्या दादी सच में हैं, वह बूढ़ी खाट से लगी है। तहसील से ग्यारह कोस आगे जोतसर ढाणी में रहती है। पुजारी जी ने मुझे भेजा, मैं खुद कल जाकर उनका अंगूठा लगा बयान लाया हूं। ये दो कागज भी बूढ़ी ने दिए हैं। चाहें तो पंच उस बूढ़ी के बयान और तहसील में इन कागजों की किसी को भेज के तसदीक कर लें। “
अब बात सर पर से पानी की तरह गुज़र रही थी। सरपंच गोपाल काका उठे, उनकी हुंकार में दम लौट आया था – ” देख रे सरवण, इस गाँव में तोरण न बँधे, बारात न आए, भाटी मर्दों के सिर न झुकें ऐसी कोशिश करने वाला तू एकला तो नहीं ही है। हम सब दोषी हैं। सरवण बेटी तेरी है, इसमें कोई दुविधा की बात ही नहीं अब तो । इसे तो तुझे रखना होगा ही, उस पर जुरमाने के तौर पर दस हजार रुपया पंचायत के लिए और पचास हजार रुपया कंचन के नाम पर तहसील पोस्टऑफिस में जमा कराने होंगे। तुझे समझ आता हो तो बता। मैं तो कहता हूं आगे अब ऐसे न्याय पंचायत नहीं पुलिस करेगी। लेकिन अब पुलिस आई तो पहला बयान मैं दूंगा, दूसरा पुजारी काका। यह पंचायत और बाकि पंच। बोलो मंजूर! “
भीड़ ने फिर हुंकारा दिया, सहमत – असहमति के बीच का नपुंसक असमंजस में डूबा। सरपंच का संभावित फैसला मानने न मानने का सवाल ही कहाँ? दसेक बरसों में तहसील में कानून कैसे तो कड़े हो गए थे कि उनकी सोच में जेल की सलाखें भी घूम गईं।
सरवण सिर हिलाता हुआ, अब तक सूखे – पत्ते सा कांप रहा था। अपने हाथ जोड़े उन्हें लगातार मल रहा था। सौर से लड़की छीन कर दाई को देने वाले यही हाथ थे। नमक की थैली के साथ, सौ के सात नोट गिनने वाले यही हाथ। ये मन और आँखें जो तब भी नवजात से आंख चुरा रहे थे, जब वह पूरी मुट्ठी मुख में डाल चुस – चुस कर, पैर चला – चला कर माँ का दूध मांग रही थी और वह गला भर नमक उसके नाम कर रहा था। पिछली रात रास्ते भर भी तो वह उसके रूप और अपने मन के चोर के आगे आँख चुराता रहा।
वह अब भी आँख ही चुरा रहा था ……….बहू मैना और सास मोगरा एक साथ उठे और धीरे – धीरे कंचन की तरफ बढ़े, वह अकेला खड़ा रहा। भीड़ शोर मचाती, उसे धूल के गुबारों में छोड़ बरगदों से दूर होती गई। सब जानते थे अस्सी साला सरपंच दूध में से पानी निथारू फैसला दे चुके हैं। अब पंचों के इस निर्णय की अवज्ञा कौन कर सकता है? भीड़ छंट गई तो भादू ने पुजारी के पास खड़ी कंचन को देखा, उसकी आँखों में उजागर फड़फड़ाते कृतज्ञ मौन पर अपनी प्रेम और आश्वस्ति भरी मुस्कान रख दी। भादूराम मास्टर की चाल में आज दर्प था, वह चला तो उसके पीछे गुनगुन करते लड़के चले। तहसील के दो पन्ने के सांध्य अखबार वाले पत्रकार ने कागज़ पर बुरी हस्तलिपी में लिखा, ‘एक अनोखा फैसला’ और सायकल पर चढ़ धूसर में वह भी गायब हो गया। पुजारी जी, आज अपने राधा – माधव को सुलाना भूल गए थे। जब वे मंदिर की तरफ़ बढ़े, पहली बार उनके रीते जीवन में एक खुशी की छांव उनके पीछे – पीछे चली।
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“इनके लक्खण कब सीधे थे। कभी वो रूपसिंह की रांड से चक्कर, कभी बूढ़े सरपंच की पतोहू से लाग लपेट।”
मारवाड़ के शब्दों का छौक लगती कहानी की पंक्तिया ।
कहानी पढ़ते समय शब्द दृश्य बनकर आखों में तैरने लगे।
राणी सती, गोगा पीर मेरी रक्षा करो। यह कोई डाकण ही है कि मायाविनी।
उपरोक्त पंक्तियों ने कुछ दंतकथाओं की याद दिला दी। जहां स्त्री के सुंदर होने पर उसे जादूगरनी मान लेते हैं।
कहानी अंत में समाप्ति की ओर बढ़ती है और मस्तिष्क की पढ़ाकू भूख को शांत करती है।