ठीक बाईस साल बाद मिल रहे थे हम। फोन पर उसकी आवाज पहचानते देर न लगी। वही खनक। वही रुतबा। वही हंसी। वही बात करने का अन्दाज और वही दूसरों को अपने व्यंग्यात्मक शब्दजाल से क्षत विक्षत करने की शैली।

” क्या तुम मुझसे मिलने होटल में नहीं आओगी? असोका लेक व्यू में रुके हैं हम। कल शताब्दी से वापस जाना है। कहाँ कहाँ से पता करके लिया तुम्हारा फोन नम्बर।”
” घर के होते हुए होटल में क्यों रुकी हुई हो ? ”
”हमें भरोसा थोडी न था कि तुमसे बात हो जाएगी।” वह शिकायती लहजे में बोली।
” देखो इतने साल बाद मिल रहे हैं तो बैठेंगे। गप्पें लगाएँगे। पुरानी यादें ताजा करेंगे। सच कितना मजा आएगा।” मैं ने उत्फुल्ल होकर कहा।
” इनको नहीं जमेगा। अपना क्या, अपन तो फिर भी रह लेंगे।”
” तुम मेरे पास ही रुक जाना। जीजाजी को मैं राजी कर लूंगी।”
” अच्छा देखेंगे, अब तुम जल्दी से आ जाओ या इनकी गाडी ज़ल्दी आ जाती है तो मैं आ जाँऊगी।”

उसके आने की खबर सुन कर मैं बहुत खुश थी। इतनी खुशी कि जैसे किसी अलभ्य वस्तु को प्राप्त करके होती है। अपनी पुरानी सहेली को देखने का लोभ था। मिलने का हुलास था। अपने जीवन की, उसके जीवन की एक एक बात जानने की तीव्र उत्कंठा कुलाँचे भरने लगी। कितनी खुश होगी वो मुझे यूं देखकर। मैं जानती हूँ वह मुझे उतना ही प्यार करती होगी जितना पहले करती थी। बाईस साल पुराना चेहरा सामने आ खडा हुआ। थोडा सा स्थूल शरीर। गरदन अन्दर को धंसी हुई। सीपाकार आंखों में लगा काजल। ऊपर को बंधी दो चोटियां। चौडी प्लेट वाला स्कर्ट और शर्ट, कैसी लगती थी तब! मैं मुस्कुरा दी। अब भी वैसी ही लगती है या बदल गई है। स्कूल के दिन, स्कूल की सैकडों शरारतें, हंसी ठहाके, और भी जाने कितनी रहस्यमयी…बेवकूफी भरी…हृदय की गहराईयों में समायी बातें, कितनी जगहें और वे तमाम चेहरे याद करके मैं रोमांचित हो उठी थी। जिस सुन्दर सुरम्य निश्छल भावनाओं से भरी दुनिया से मैं कोसों दूर चली आई थी, वही थिरकती हुई दुनिया अचानक मेरे सामने आ खडी थी। वह एकाकी नहीं आ रही थी अपितु साथ ला रही थी पूरे कालखण्ड को। सशरीर! ताज्जुब कि अपना ही बीता हुआ जीवन मैं क्यों और कैसे विस्मृत कर बैठी थी? क्या मैं तेज भागती रही या समय मुझसे आगे निकल गया। मैं ने घर को ठीक ठाक किया। परदे, चादरें बदलीं।

” माँ, आज आपको क्या हो गया है? क्यों कर रही हो इतना सब?
 इतना तो आप किसी के लिये नहीं करतीं! ”
” मेरी सहेली आ रही है न। तुम नहीं समझ सकोगे। तुम तो जल्दी से ये सामान ला दो।”

मैं ने उसकी पसन्द की एक एक चीज मंगवाई। वह कितनी खुश होगी यह जानकर कि मुझे आज भी उसकी एक एक पसन्द याद है। मेरे साथ उसकी एक बहुत पुरानी फोटो थी। पता नहीं किस एलबम में थीकाफी देर तक ढूंढने के बाद मिली। उसको अच्छा लगेगा ये सोचकर, तुरन्त फोटो फ्रेम में लगा दीइस फोटो में हमारी उम्र की मोहक छवि झलक रही थी।

” ये आप हो माँ! ” बच्चे जोर जोर से हंसे जा रहे थे।

घर में पैसा है या नहीं यह मैं ने देखा। हो सकता है होटल जाना पडे सबको लेकर। क्या करुं किससे उधार मांगूं? अच्छा भी तो नहीं लगता है मांगना। मम्मी को फोन लगाया, ” मम्मी दो हजार रुपये दे दोगी? मेरी सहेली आ रही हैहाँ वहीवैसे तो पैसे हैं मेरे पास मगरउसके सामने कम नहीं पडने चाहिये।” मैं ने सकुचाते हुए कहा। छुट्टी की एप्लीकेशन भिजवा दी। बहुत जरूरी काम थे ऑफिस में मगर मेरी सहेली का आना इन सबसे ज्यादा मायने रखता था। बेचैनी के साथ तैयार होकर मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगी। मेरे घर का एक एक पत्ताहवा में लहराते परदेफूलसभी कुछ उसका स्वागत करने को उतावले लग रहे थे।

” माँ, आज आपको क्या हो गया है? चार्ली चैपलिन की तरह काम कर रही हो।” बच्चे मुझे चिढा रहे थे मगर इस समय मैं कुछ भी नहीं सुन रही थी। मेरा मन उड रहा था और निगाहें सडक़ की ओर लगी हुईं थीं एकदम दूर तक। सरकारी जीप से उसे उतरते देखा तो भाग कर नीचे जा पहुंची मैं सडक़ के उस पार। गले लग कर लगाजैसे बहुत ऊंची चोटी से गिरते ऊष्म, निनादित झरने को छुआ हो वही ऊष्मा, वही ध्वनि मैं ने महसूस की आंखों से बहते आंसू थम नहीं रहे थे। जब कभी हम नाराज हो जाते थे तो अपने छोटे भाई बहन के हाथों खूब लम्बे लम्बे खत लिख कर अपने हृदय की बातें, शिकायतें प्यार वफा जीवन भर न भूलने के वायदे और नाराजग़ी व्यक्त किया करते थे और सामने मिलने पर यूं ही रोया करते थे। बेशब्द मुस्कुराते हुए। कैसी अद्भुत दुनिया थी वोआकाश की तरह अनन्त। नक्षत्रों की तरह प्रकाशवान। हवाओं की तरह वेगवान।

मैं ने देखा उसकी सीपाकार आंखों में आंसू सूख चुके हैं और वो हल्के से मुस्कुरा कर बोली, ” अरे तुम तो वैसी की वैसी हो। हमीं मोटे हो गये हैं। क्या बहुत काम करती हो या डायटिंग कर रही हो या नौकर वगैरह नहीं रखे हैं।” क्षण भर के लिये मैं सकपका गई। बच्चे उत्सुकता तथा विस्मय के साथ देख रहे थे। सुनेंगे तो क्या कहेंगे कि जिस सहेली के बारे मैं सुबह से उन्हें बताए जा रही थी, तारीफ किये जा रही थी, उसने आते ही ऐसे सवाल पूछना शुरू कर दिये। ऊपर आकर उसने चारों तरफ गहरी बींधती लम्बी खोजती दृष्टि से देखा। वह दृष्टि खाली नहीं थी बल्कि भरी हुई थी तमाम प्रश्नों, जिज्ञासाओं और शंकाओं से। मैं बार बार उस फोटो की तरफ देख रही थी ताकि वह उसे देख सके मगर उसने उडती हुई नजर से उस तरफ देखा, जैसे कोई बासी चीज पडी हो।

” अभी तक रखा है इस फोटो को! मैं ने तो फाड दिया, छि: कितनी गन्दी है।”
उसने मुंह बनाते हुए कहा।
” यह हमारे बचपन का स्मृतिफलक है।” मैं ने वापस रखते हुए कहा।
” तुमने तो एकदम सम्बन्ध ही तोड दिये। कभी चिट्ठी तक नहीं लिखी। न शादी की खबर दी। हमीं हैं जो अपने को रोक न सके। क्या करती रहीं इतने सालों तक? तुम्हारे लिये तो दोस्ती बहुत मायने रखती थी मगर तुम्हीं दोस्ती के नाम पर कलंक निकलीं।”

वह अपने लाल होंठों को गोल घुमा कर बोली। उसके होंठों की भाषा मेरे मन पर खुदती जा रही थी। उसके पूछने पर मैं संभल गई। उसको हक था शिकायत करने का, मेरे बाईस वर्षों की जिन्दगी की परतें उधेडने का क्योंकि पुरानी सहेली जो थी। तब हम बच्चे थे बल्कि यौवन की दहलीज पर कदम रखते हुए अपनी देह और आत्मा से बेफिक्र। अल्हड। अपनी ही मौज में डूबे हुए। घर गृहस्थी, रूपया पैसा  जाति पांति, छोटा बडा सबकुछ हमारे लिये महत्वहीन था। अपरिचित था। बस पढाई और दोस्ती यही तो था हमारा जीवन। पानी की धारा की तरह बहता हुआ। स्वच्छ। धवल। अबाध। मैं चुपके से उठ कर गई और मामा को फोन लगाया।

” मामा, शाम को दो घण्टे के लिये गाडी मिल जायेगी?”
” क्यों क्या बात है? कोई इमरजेन्सी है क्या?
” नहीं मामा, मेरी सहेली आई है। उसको घुमाना चाहती हूँ अगर गाडी फ़्री हो तो।” मैं न चाहते हुए भी गाडी क़े लिये विवश करने लगी।
” मुझे जाना था बेटे।”
”क्या दो घण्टे के लिये नहीं दे सकते आप?”
” अरे इतनी औपचारिकता क्यों करती हो। सहेली ही तो है कोई गवर्नर तो नहीं, फिर भी मैं कोशिश करुंगा।”
मैं आश्वस्त हो उसके पास बैठ गई।
” जीजाजी क्या करते हैं? सिर्फ तनख्वाह में घर चल जाता है या कमाई का और भी कोई साधन है। बच्चे कौनसे स्कूल में पढते हैं? उन्हें कौन पढाता है? तुमने तो आया रखी होगी।”

बच्चों को सामने बैठा देखकर भी अनदेखा करती हुई बोली वह। उसका गदराया हुआ शरीर पारदर्शी ब्लाउज में से दमकता हुआ दिखाई दे रहा था। मैं पति और बच्चों के बारे में बताने लगी। आखिर उसकी जिज्ञासाओं को शान्त करना मेरा फर्ज था!

” और सुनाओ।” उसने पांव पसार कर बैठते हुए कहा। मेरा मन हल्का सा बेचैन तथा उदास हो गया। उसके आने से पूर्व जो उद्दीपत थिरकती हुई खुशी थी वह मंद होने लगी। उसकी उपस्थिति ने घर के माहौल में अजीब सी हलचल पैदा कर दी थी। लग रहा था मेरे घर की हर चीज उसके निशाने पर है।

” तो तुमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि हम लोग कहाँ पर हैं, किस हाल में हैं?” वह रूठते हुए बोली। मैं ने देखा उसने अपने बालों को रंगवाया हुआ है सफेद जडों को छुपाने के लिये बार बार बाल संभाल रही है। मेरा मन हल्का सा व्यथित तथा चिन्तित हो उठा। इसके बाल पक गये हैं? क्यों! क्या कोई तनाव है। पूछूंगी।
” क्या बताऊं पिछले कई वर्षों से इतनी अधिक व्यस्त रही बल्कि घर परिवार में डूबी रही कि बाहर की दुनिया से सम्पर्क ही कट गया था। कौन कहाँ है यह सोचना तो अलग मैं खुद कहाँ हूँ इस बारे में सोचने तक का वक्त नहीं मिला। समय तो अपनी गति से चलता ही है। हमीं पीछे रह जाते हैं। सच तुमने आकर मेरे भावों को जगा दिया, तुमने याद तो किया।” मैं भावुक होकर बोली।
” तो क्या ससुराल वालों से कोई समस्या है? सब साथ में रहते हैं या अलग?” मेरी भावुकता को रूपान्तरित करते हुए बोली वह।
” नहीं, अब तो सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हूँ बस, बच्चों का भविष्य देखना है।”
” बच्चों का क्या भविष्य देखना? वे खुद अपना भविष्य बना लेंगे। हमारा भविष्य किसने बनाया था? कोई पूछता था? देखता था? जो भी हो, तुम बहुत मतलबी निकलीं। इनको देखो हम चुप नहीं बैठे। एक एक के घर जा चुके हैं, पता करते रहते हैं कि कौन कहां पर है? क्या कर रही है? दिशा ने तो बहुत बडा मकान बना लिया है, हस्बैन्ड इन्जीनियर है सो कमाई भी अच्छी है। उमा यहीं पर है, उसके पति का बिजनेस है और माधुरी जिसे लडक़े चिट्ठियां लिखा करते थे चली गई  आर्मीवाले से शादी की है और अनुराधा का तलाक हो गया। नौकरी करके दिन काट रही है।” वह लगातार साथ में पढने वाली लडक़ियों का जीवन परिचय बताए जा रही थी और मैं उचाट मन से सुन रही थी, हालांकि थोडी बहुत जिज्ञासा मेरे मन में भी थी सबके बारे में जानने की।
” चलो कहीं घूमने चलते हैं, बहुत दर्शनीय जगहें हैं यहां। कुछ मौज मस्ती करेंगे।” मैं ने मौसम की सुन्दरता तथा शीतलता देखते हुए कहा।
” क्या रखा है तुम्हारे शहर में? घूमने तो हम कुल्लू मनाली, दार्जिलिंग या साउथ जाते हैं।” उसने एक वाक्य में ही पूरा भारत भ्रमण करवा दिया।
” मैं ने गाडी बुलवाई थी कि तुम जरूर घूमना पसन्द करोगी खैर नहीं जाना चाहती हो तो घर में ही बैठते हैं, तब तक तुम बुक्स देखो।”

मैं ने सारी चीजें पौंछ कर चमका कर रख दी थीं। मैं खाना बनाने की तैयारी करने लगी। बाई को मना कर दिया था। उसकी मनपसन्द चीजें मैं अपने हाथों से बना कर खिलाऊंगी मेरा मन अतिउत्साही था और हाथ मशीन की तरह काम कर रहे थे। वह मेरे पास किचन में आकर बैठ गई। बडे बुजुर्ग़ों की तरह मेरी किचन का मुआयना करने लगी। उसकी तीक्ष्ण निगाहें एक अलमारी में विराजमान मूर्तियों पर आकर टिक गई।

” यह क्यातुम और पूजा?” वह मेरा मजाक उडाते हुए बोली। उसका चेहरा हंसी से खिंचने के कारण थोडा चौडा सा लग रहा था किसी सपाट वस्तु की तरह।
” क्यों! ऐसा क्यों कह रही हो? ” मैं ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा जिनमें उपहास के भाव लहरा रहे थे। ”इसलिये कि तुम्हें तो कभी विश्वास न था भगवान पर, व्रत उपवासों में।”
” वो तो आज भी नहीं है। पर उस परमात्मा पर पूरा अखण्ड विश्वास है। अपने किये का सारा लेखा जोखा वह यहीं इसी जगत् में हमें दिखा देता है। किसी के कहने न कहने से क्या फर्क पडता है? मैं तो अपनी आत्मा को मानती हूँ और सब कुछ उसी पर छोड देती हूँ।”
वह मेरी बात सुनकर जोरोंसे हंस पडी क्योंकि किसी भी बात से सहमत होना उसके स्वभाव में था ही नहीं। ” तो तुम जगत् से परे हो! दार्शनिक हो गयी हो! अगली बार आऊंगी तो पता चलेगा, सन्यासिनी बन गई हो! है न!”
मैं आहत सी उसका चेहरा देखती रह गई।
” तुम इतना काम कैसे कर लेती हो? हमसे नहीं होता। थक जाते हैं। क्या तुम थकती नहीं हो? गुस्सा नहीं आता। हमने तो चार चार नौकर लगा रखे हैं। हमारा बुढऊ (ससुर) जो साथ रहता है। उससे जरा नहीं पटती हमारी। वो तो इनकी वजह से बर्दाश्त कर रहे हैं।” मैं ने बाहर झांक कर देखा कहीं ये वाक्य बच्चों के कान में तो नहीं पड ग़ये, वरना क्या जवाब दूंगी उन्हें?
” मजबूरी में कहो या डयूटी करनी पडती है। मैं नहीं करुंगी तो कौन करेगा? ” मैं ने खाना परोसते हुए कहा, ” पहले खाना खाते हैं फिर आराम से बैठेंगे।”
” हम तो खाएंगे नहीं। सब बन्द कर दिया है। सिर्फ अंकुरित दालें और अनार का रस लेते हैं।”
” मैं ने तो तुम्हारे लिये ही बनाया था सबकुछ। तुम्हारी पसन्द का।”
” मैं ने कब कहा था? हम याद नहीं रहे, हमारी पसन्द याद रही, वाह क्या तरीका है मोहित करने का।” पूर्ण घृष्टता के साथ वह बोली।सब्जियों से उठती भाप में मेरी आंखों की नमी भी उड क़र अदृश्य हो गयी।
” अच्छा तुम ये बताओ तुम खुश हो अपनी जिन्दगी से? इस शादी से। जीजाजी से। तुम्हारी पसन्द से हुई थी शादी या आंख मूंद कर हां कह दी थी ?”

मैं हतप्रभ सी उसका चेहरा देखती रह गई । उसने तो जीवन का सत्व ही निकाल लिया था। वो जीवन जो नितान्त मेरा था। जिसकी संरचना के लिये मैं ने इतनी लम्बी यात्रा की और इस यात्रा के दरम्यान सोचा ही न था कि बच्चों तथा पति से कैसे खुशी का हिसाब किताब करके कैसे खुश व संतुष्ट हुआ जा सकता है? वैसे भी अभी जिन्दगी जी कितनी थी जो परिणाम निकालती। हाँ जिन्दगी को बेहद खूबसूरत और स्वप्नमयी बनाने के लिये निरन्तर संघर्ष चल रहा था। उस संघर्ष के बाद जो कुछ प्राप्त होता था, वही मेरे लिये अमूल्य और सुखद होता था।

” क्या क्या मिला ससुराल से?”
पति से फिसलकर वह उनके परिवार पर आ गई।
” मतलब! हमने तो अपनी गृहस्थी स्वयं बसाई है,
उसकी तरह।” डाल पर बैठी चिडिया की तरफ इशारा करके कहा मैं ने।
” तो क्या गरीब थे तुम्हारे ससुराल वाले?”
” नहीं! हमें लेने की आवश्यकता ही नहीं पडी।”

मेरी सहेली का खिलखिलाता चेहरा बुझ गया। उसकी आंखों में मचलती चंचलता की कौंध लुप्त हो गयी। श्वेत रंग की कीमती साडी में उसका व्यक्तित्व बेहद निखरा हुआ लग रहा था। कितना तो बदला था उसने स्वयं को। कस्बाई संस्कृति बातचीत तथा जीवन शैली से दूर वह एकदम सुसंस्कृत समाज का हिस्सा लग रही थी। उसकी भरी हुई गरदन में मोटी सी चेन, हीरे का लॉकेट ह्नगोल भूरी कलाइयों में कंगन और कानों में हीरे के टॉप्स पहने वह अब भी ताजातरीन फूल की तरह महकती हुई लग रही थी। तीन बच्चे होने के बाद भी उसने अपने स्वास्थ्य तथा फिगर का ख्याल रखा था। झाँई झुर्रियों से साफ चमकता हुआ उसका चेहरा उसके आनन्दपूर्ण जीवन को प्रदर्शित कर रहा था। उसको यूं हंसती मुस्कुराती मुक्त निर्भय देख कर मुझे अपार प्रसन्नता हुई अन्यथा जहाँ देखो वहाँ लडक़ियां ससुराल से तंग और परेशान रहती हैं। या असमय ही बीमार और बूढी हो जाती हैं।

” और क्या क्या किया? मकान बनाया? प्लॉट तो खरीदा ही होगा। ” अब वह व्यक्तिगत बातों से निकल कर परिवार की व्यवस्था को टटोल रही थी। उसके भीतर अनुभव का समुन्दर जो समाया हुआ था।
” नहीं, दोनों में से कुछ भी नहीं है मेरे पास।”
” तब क्या किया तुमने?” वह तुनक कर बोली, ” दोनों कमाते हो फिर भी अब तक मकान नहीं बना सकीं। क्या तुम्हें घिन नहीं लगती इस पुराने खंडहर होते मकान में रहते हुए? देखो तो कितना गन्दा है चिपचिपाता हुआ। छि: तुम सांस भी कैसे ले पाती होगी।” वह आश्चर्यमिश्रित विराग भाव से बोली। मैं ने परदे हटा दिये। उजाले का टुकडा कमरे को जगमग करने लगा। मैं तो सोच रही थी कि वह मेरा कलात्मक ढंग से सजा हरा भरा फूलों से खिला घर देखकर मुग्ध हो जाएगी मगर।
” बैंक बैलेन्स तो होगा कितना जमा कर लेती हो साल भर में? ”
” अभी तक हिसाब नहीं लगाया। कुछ एल आई सी की पॉलिसी हैं उसीके बहाने जमा हो जाता है।”
” झूठ बोल रही हो या बताना नहीं चाहती हो, कितने करोड क़ी पॉलिसी ले रखी है।” उसने तीखे व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।

मैं हताश सी बाहर देखने लगी। जहाँ चिडिया गेहूँ के दाने चुग रही थी।

” और गोल्ड कितने तोला मिला था? जो पहना हुआ है असली है या नकली?

मैं एक सवाल का जवाब देती तब तक वह दूसरा सवाल दन्न से दाग देती। उसके पास सवालों का खजाना था और वह खजाना फूलों से नहीं वाणों से भरा था।

” सब असली है।” मैं ने न चाहते हुए भी सहज होकर कहा।
” यह अंगूठी भी?” वह अचरज से बोली जैसे मुझ प्लॉटविहीन, मकानविहीन के पास हीरे की अंगूठी होना अनहोनी बात हो या होनी ही नहीं चाहिये।
” हाँ।”

कह तो दिया मगर मेरा सारा उत्साह ठण्डा पडने लगा। चिडिया वहां से उड चुकी थी। कुछ सूखे पत्ते बरामदे में हवा के संग इधर से उधर उड रहे थे। मैं तो दूसरी ही बातें करना चाहती थी। आज की नहीं…इस जिन्दगी की नहीं, इन सम्बन्धों की नहीं…अपितु उनकी जो छुपी पडी थीं काल की कन्दरा में, जिनमें जीवन का निथरा सौंन्दर्य तथा खुश्बू थी। मगर यहाँ तो उन बातों की उन राग रंगों की झलक तक न थी।

” और हस्बैण्ड के साथ तुम्हारी कैसी बनती है? झगडे होते हैं? पहल कौन करता है?” अब वह पति पत्नी सम्बन्धों पर आकर एक चिन्तक की मुद्रा धारण करके पूछ रही थी।
” यह तो स्वाभाविक बात है। विचारों में तो मतभेद होता ही है जीवन की मूलभूत बातों को लेकर हमारा मतैक्य है। वैसे हमारी रुचियां समान हैं, संगीत सुनना, नाटक देखना पुस्तकें खरीदना। सच हमारे तो प्राण बसते हैं इन सबमें।” मैं बडे उत्साह से बताने लगी।
” ये कोई बात हुई। पुस्तकें खरीद कर क्या करोगी? चाटोगी क्या? कल के दिन कोई मुसीबत आ गई तो क्या करोगी? जमीन जायदाद होगी तो काम आएगी वक्त पर। ये तो कौडी क़े भाव भी नहीं जाएंगी।” वह मेरे क्षणिक उल्लास को मुट्ठी में भींचते हुए निचोडते हुए बोली।

ओह! मैं ने कभी सोचा ही न था न ऐसा गणित बैठाया था उसने जीवन के अंतिम छोर पर खडी मृत्यु से मेरा सामना करवा दिया। जीवन की लहराती नाचती…विराट… आलोकमयी ॠतु में अंधकार…आंधी तथा विपदाएं भी आ सकती हैं, इनका तो हमें अहसास तक न था। अब तक तो जीवन दौड रहा था द्रुत गति से निरापद, निर्द्वन्द्व। पढने पढाने में आनन्द आता था, संगीत से मन की थकान दूर होती थी। समयसमाज तथा सम्पूर्ण संसार से जुडे होने का अहसास करवाती थीं पुस्तकें…बिना कुछ पढे नींद ही नहीं आती थी मगर आज ताम्बई रंग की खूबसूरत दोपहर में मेरी सहेली ने अनिश्चित भविष्य की चिन्ताओं का जाल फैला दिया था। मैं ने देखा वही चिडिया आकर फुदक फुदक कर बारीक तिनके ले जा रही है।

” तुम तो निरी बुध्दू हो, जैसे पहले थीं। यह अलग बात है कि तुम नौकरी में आ गईं और मैं हाउसवाइफ बन कर रह गई। अपने अपने भाग्य की बात है। वैसे भी मेरे हस्बैण्ड को पत्नी का कमाना नहीं अच्छा लगता। उनका ईगो हर्ट होता है।” चोट तथा कटाक्ष मेरे से हट कर अब पति के अस्तित्व तथा व्यक्तित्व पर की जा रही थी। फिर भी मैं सीधे सीधे जवाब देकर उसे मर्माहत नहीं करना चाहती थी सो टाल गई।
” घूमने जाती हो या पूरे साल यूं ही पिसती रहती हो काम में। यह भी कोई जिन्दगी है नीरस बैरंग। कोल्हू के बैल की तरह जुते रहो।” वह सहानुभूति जताते हुए बोली। दोपहर की उजली धूप के तमाम रंग उसके चेहरे को दमका रहे थे।
” कई सालों से जाना नहीं हो पाया। घर की प्राथमिकताएं देखनी होती हैं।”
” घर न हो गया खूंटा हो गया।” उसने तपाक से कहा मुझे लगा कोई वजनदार चीज ग़िरी हो  दिल को प्रकम्पित करने वाली…ध्वनि अन्दर तक उतर गई।
” सर्विस में हो कोई बॉय फ्रेण्ड तो होगा ही या कभी था?” उसने अचानक ही विषयान्तर करते पूछा। अब वह घर से उछलकर बाहर की दुनिया को छू रही थी और देखना चाह रही थी कि मैं उस दुनिया में कहाँ हूँ? कैसी हूँ…क्या कर रही हूँ, उड रही हूँ या एक ही वृत्त पर बैठी विवश आहें भर रही हूँ।
” यह उम्र पुरुष मित्र बनाने की नहीं, परिवार के लिये समर्पित होने के लिये होती है। लेकिन पुरुष कोई दुश्मन या जानवर नहीं होते कि उनके विषय में अलग से सोचा जाए।”
” लगता है तुमने भाषा विज्ञान में पी एचडी की है इसीलिये इतनी घुमावदार बातें करके बात को ही उडा देती हो।” अब वह मेरे बिलकुल पास खिसक आई और कान के पास मुंह ले जाकर बोली,
” अच्छा ये बताओ तुम्हारी हस्बैण्ड के साथ कैसी बनती है, तुम उनसे संतुष्ट हो – मतलब तुम्हारे आन्तरिक सम्बन्ध कैसे हैं? कभी तुम पहल करती हो या नहीं? कौनसी बातें या चीजें ज्यादा लुभाती हैं तुम्हें और उन्हें। हमें तो लगता है इस आपाधापी भरी जिन्दगी में इन बातों के मायने भूल गई हो जबकि ये सम्बन्ध बहुत अहम होते हैं। तुम तो इतनी शर्म और संकोच जता रही हो कि बताओ नकुछ भी नहीं बताना चाहती हो क्यों?” वह एकाएक गंभीर हो गई। उसकी मुखमुद्रा में कई वक्र रेखाएं तिनकों की तरह कांप रही थीं।
” तुम तो बडी बोर निकलीं जबकि हम तो समझते थे कि तुम सर्विस में होने के कारण काफी स्वतन्त्र विचारों वाली हो गई होगी। यहाँ आकर तुम्हें कोई मिला था मतलब प्रेम हुआ था किसी से या इन्हीं के साथ बांध दी गईं? ”

मुझे काटो तो खून नहीं।पूरी देह सिहर गई शर्म की तपिश से। संकोच की आंच से। यकायक इस हमले से। निजी बातों को यूं जगजाहिर किया जाये, यह मेरे लिये अजीब बात थी।

” क्यों नहीं बताओगी? इस तरह की बातें तुम किसी के साथ तो शेयर करती होगी। मुझे तो तब तक चैन नहीं मिलता, जब तक कि मैं आपस में शेयर न कर लूं। वाकई मैं ने क्या सोचा था तुम्हारे बारे में और तुम क्या निकलीं। हमें तो साफ लग रहा है कि तुम पति की पूंछ और बच्चों के साथ चिपकी रहने वाली आया मात्र हो। जीवन का आनन्द लेना नहीं जानतीं। तुम जीवन को नहीं जीवन तुम्हें निचोड रहा है। कभी स्वयं को देखा है आयने में। देखो गौर से। खुली आंखों से। दिन में दिखाई देने वाले चन्द्रमा की तरह हो गई हो रूखी..शुष्क…दूर…अलग थलग।” कह कर वह विद्रूप और व्यंग्य से हँस दी।

उसकी निर्मम उत्ताल लहर सी हंसी मेरी अन्तरात्मा में उतर गई। मुझे अपने हृदय में गुब्बारा सा फूटता लगा, फस्स फस्स। उसके चमकते हुए दांतों को देखकर भी मैं मुस्कुरा न सकी। मुझे लगा जैसे कोई पेड क़ी छाल को बेरहमी से भोंथरी छुरी से छील कर उसका रस निचोड रहा हो। मैं ने आंखें बन्द कर लीं तेज धूप चुभ रही थी।

” तुमने तो अपने आस पास एक खोल बना रखा है। जिसमें से निकलना ही नहीं चाहती हो। तुम क्या समझती हो तुम्हारा हृदय सीपी है जिसमें से मोती निकलेंगे। मोतियों की चमक तो छोडो, तुम्हारी आंखों का सूनापन और वेदना का भाव बताता है कि तुम अपने भीतर कैद हो। कुण्ठित हो। सहज बनो। आम औरतों की तरह।” उसने विश्लेषण कर फैसला देते हुए कहा, ”तुम क्या समझती थीं मैं बहुत प्रभावित हो जाऊंगी यह सब देख कर। नहीं, मैं वो नहीं हूँ। मेरे ऊपर ये बनावटी रंग नहीं चढते।” उसने शरारती बच्चे की तरह चिढाते हुए कहा।

मैं निरुत्तर सी उसकी बातें सुनती जा रही थी। क्या बताती उसे कि जीवन के रंग उसकी गंध उसका पराग…आनन्द और सुख कहाँ…किस रूप में बिखरे पडे हैं। यह तो अव्यक्त अनुभूति है। अन्तरतम में डूबा हुआ जीवनानुभव है और वे परागकणों से बनी हुई दीवारें हैं, जिनमें बाहर – भीतर का निषेध था। वह लगातार जगह जगह से मेरे शरीर को छूकर गुदगुदाकर इशारे करके एकमात्र विषय पर आकर अटक गई थी। उसका अंतिम अस्त्र यहीं से छूटना शेष था। उसके हाथों में मेरा हाथ था। उसकी पकड से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह शर्त बांधकर बैठी हो और उसके लिये ये बातें किसी रहस्यमयी वस्तु से कम चमत्कृत व उत्तेजित करने वाली नहीं होंगी।

” बताओ न क्यों नहीं बताना चाहती हो? दिशा तो एक एक बात बता देती है। तुम क्यों नहीं बताना चाहती हो? क्या तुम अलग हो हमसे? अनोखी हो? मैं ने जितनी भी बातें पूछीं सब का गोल मोल जवाब दिया तुमने। सब ठीक तो है? पति पर निगाह रखती हो या किताबें ही पढती रहती हो।”

आह! मैं न चाहते हुए भी सोचने पर विवश हो गई कि भौतिक सुखों की विपुलता में यदि मानसिक तथा बौध्दिक विकास पूरा न हो तो मनुष्य की सोच सिर्फ बाह्य सुख साधनों तक सिमट कर रह जाती है और दैहिक सुख उसकी कसौटी बन जाते हैं। उसने मेरा हाथ झटका तो मैं चौंक पडी –

” मत बताओ।”
” कुछ हो तो बताऊं। हमारा जीवन एकदम खुला हुआ है। जो है जैसा है उसी में ऊपर वाले का हार्दिक धन्यवाद देते हुए खुश रहते हैं।”
” तो ऊपरवाले ने क्या दिया तुम्हें ? जीवन की उपलब्धियों के नाम पर क्या है तुम्हारे पास? ढेर सी किताबें, जो रद्दी के भाव बिकती हैं। ये सुन्दर शब्द जो खोखले हैं। वे मूल्य जो बासी पड चुके हैं। बेहद गैरजिम्मेदार हो तुम। एकदम अपने में डूबी। बन्द डिब्बी की तरह।”

वह लगातार बोलकर मुझे कम से कमतर आंक रही थी। मुझे काट रही थी। प्याज क़े छिलकों की तरह एक के बाद एक परत उतारती जा रही थी। मैं उसकी नजरों में नाकामयाब मूर्ख तथा सीधी थी जिसने जीवन को नहीं समझा था, जीवन का सत्य नहीं पहचाना।

” तुमने तो मकान बनाया है, पर रहती हो क्या उसमें? जहां तुम्हारे हस्बैण्ड की पोस्टिंग होगी वहीं तो रहोगी।” मैं ने समझाना चाहा उसे ताकि वह मेरी ओर से पूर्ण निराश होकर न जाये।
” पर बना तो लिया है। चिन्ता तो नहीं रहेगी। कभी भी जाकर रह सकते हैं। किराये का पैसा मिल जाता है। मकान मालिकी का रुतबा रहता है सो अलग। भई हम तो परमात्मा को नहीं पति की कमाई को धन्यवाद देते हैं।”

वह अपनी सफलता पर गर्व से भर कर बोली। उसके चेहरे पर टमाटर का रंग उतर आया था।

मुझे चारों तरफ सघन सन्नाटा तथा उस सन्नाटे में घुले अवसाद की अनुभूति होने लगी। चिडियाँ जा चुकी थीं और वह जगह खाली पडी बेरौनक लग रही थी। मैं चुप हो गई। पराजय का बोध मेरे हृदय को स्पर्श करने लगा। अफसोस तो इस बात का हो रहा था कि वर्षों के उपरान्त मिली सखि को मैं खुश नहीं कर पा रही थी। मेरी उपस्थिति…मेरा व्यक्तित्व…मेरे पद की गरिमा  मेरी गृहस्थी  मेरे बच्चे  मेरा शहर किसी ने भी उसे जरा सा भी सुख नहीं दिया था। हमारा मन भी तो कैसा होता है जो खुशियों की खोज में बाहर घूमता है। उडता है तितली की तरह और बाहर हासिल होता है…दु:ख अभीप्साएं असन्तोष! मैं क्या करुं? स्कूल के दिन सिर्फ दिन नहीं थे जीवन के खूबसूरत हिस्से की पूंजी थे जिन्हें समेटकर वह आई थी, लेकिन अब सब धुंधला और उडता हुआ लग रहा था। वह क्यों नहीं समझती कि जीवन एक बहती धारा है, जिसके किनारों पर फूलों की क्यारियां ही नहीं होतीं, बबूल के वृक्ष भी होते हैं लेकिन दुर्भाग्य कि मेरी सखि को मेरा जीवन ठहरे तालाब के पानी के समान लग रहा था जिसमें न कोई उत्तेजित रौरव करती तरंगें थीं न स्वतन्त्र बहाव के रास्ते। निरर्थक था सब। वह ऊब गई थी – बोर हो गई थी मेरे साथ। मेरी बातें मेरा वर्तमान सबकुछ शुष्क तथा अधखिला लग रहा था।

” बहुत ज्यादा बोर कर दिया तुमने तो। मैं वापस होटल जाऊंगी।”
” कहीं घूमने चलो न या किसी होटल में खाना खाने।” फिर भी मैं ने मुस्कुरा कर कहा।

लेकिन वह रुकी नहीं। दूसरे दिन मैं उसको स्टेशन पर मिलने गई।

”तुम कब आओगी? अरे तुम क्यों आने लगीं? तुम्हें मतलब क्या है हमसे? उसने फिर मुझे कचोटा।
” जरूर आऊंगी।यकीन करो। कहीं भी जाने से पहले सब कुछ जमाना पडता है।” मैं इधर उधर देख कर बोली मगर वहतैश में आकर बोली, ” हाँ तुम्हीं अकेली तो नौकरी करती हो”
” अब तुम्हारा आना कब होगा?” मैं ने उसका हाथ छूते हुए कहा।
” जब तक कि तुम्हारा मकान नहीं बन जाता, गाडी नहीं आ जाती तब तक मैं नहीं आऊंगी।” उसने मुझे धमकाते हुए अपनी चिरपरिचत शैली में कहा।
” मकानगाडी! तो क्या तुम मकान और गाडी से मिलने आओगी? चलो इसी बहाने सही इस बारे में सोचूंगी।”

मैं ने हंसते हुए अपने मनोभावों को बल्कि वेदना को छुपाते हुए कहा। जबकि मैं जानती हूँ कि आने वाले कई वर्षों तक मेरे लिये इन चीजों के बारे में सोचना व्यर्थ है क्योंकि मेरे लक्ष्य और सपने कीं और हैं – कुछ और हैं – न मेरे पास ये चीजें होंगी न तुम आओगी। जानती हूँ तुम्हारा स्वभाव ऐसा ही था। दूसरों पर हावी होकर अपनी बात मनवाना। मेरा मन गहरे विषाद में डूब गया। बात दिल की नहीं वस्तुओं की है। तब से लेकर अब तक वह इन्हीं बातों की पगडण्डियों पर चल रही है। आत्मा से निकले दोस्ती के भावों को कुहासे ने ढक लिया था। ट्रेन का समय हो गया था। मैं गले लगी तो मुझे उसके हृदय की वही ध्वनि सुनाई दी जो गहरे कुंए में खाली बाल्टी डालने पर गूंजती है। मैं ने उसका हाथ छोड दिया और पर्स में रखी अपनी किताबें टटोलीं, जो मैं उसे भेंट करना चाहती थी। लेकिन याद आया, किताबों के बारे में तो उसने कहा था,  इन्हें क्या चाटोगी? इतनी किताबों के बदले कुछ और खरीद लेतीं। ये तो दो तीन रूपये किलो के भाव बिकेंगी या दीमक खा जायेगी।

मैं ने जोर से अपना पर्स पकड लिया जैसे कोई हीरे जवाहरात संभालता है। मैं ने देखा उसने सीट पर बैठते ही अनमना सा चेहरा बना लिया। कुछ बोली नहीं। आंखों पर चढाया चश्मा उसकी सुरमई आंखों के भाव छुपा रहा था। पता नहीं क्या देखने या पाने या उडलने या जताने आई थी। ट्रेन के जाते ही मैं भीड से गुजरते हुए लौट पडी अपनी उसी दुनिया में, जहाँ जीवन के सत्य और संघर्ष खडे थे। अनायास ही मैं मुस्कुरा दी, लगा कोई तूफान मेरे ऊपर से गुजर कर गया है।

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