“तमीज़दार होने की बहस दरअसल अपने भीतर के जानवर को छुपाने की ज्ञानी कला है। “
वैसे झ्न ज्ञानी कलाओं का कोई व्यक्तित्व नहीं होता । व्यक्तित्व तो उस स्पर्श का होता है , जो हमारे दिल के स्टोररूम में छुपी हजारों- लाखों कहानियां में टिमटिमाती बच्चु आँखों का एक भोला बादल बचा ले । कोई फ़र्क नहीं पड़ता की आप चालीस के हैं , पचास के हैं या साठ की उम्र के नज़दीक हैं । ता – उम्र आपकी कहानी का हीरो भीतर का बच्चा ही रहना चाहिए बस।

पर इस बच्चे को असावधानी से छूना हर बार फिर । चौंक उठेंगे आप । हर बार एक नया सरप्राइज , बुरांश की तरह खिलेगा आपकी मन- देहरी पर। हां ! …सही तो पढ़ा आपने। पढ़ने में पाइंट ज़रो फाइव परसेंट गलती नहीं की है। मैंने असावधानी ही लिखा है।
देखो जीवन का मज़ा तो बेग्रामर वाली असावधानियों में ही है।
सावधानियों ने तो हमें जीवन का बोरिंग ग्रामर दिया। हमें वहाँ धकेला जहां , पिरियोडिक टेबल के पीछे छुपकर डरते हुए एक बच्चा कविता लिखता है। क्या है ये ? मरा- सुकड़ा जीवन। प्लास्टिक हैप्पीनेस एंड देयर इज … नो विंडोज …नो लाइट …. नो लाइफ । अरे संभलना …थोड़ा बचना…. होशियार रहना …..सावधान रहो। यह सब के सब बकवास शब्द है। पूरे के पूरे बकवास । दरअसल यह बचपन से ही हमारे सेंसेस में उगाए हुए डरावने डेकोरेटिव ज़हर है। जो पूरे जीवन हमें खोंचे मारते हैं …..पूरे जीवन।
विशेष आर्टिकल , हिंदुस्तान टाइम्स
डॉ. आभा निगम
प्रख्यात मनोचिकित्सक

अंतिम शब्द “प्रख्यात मनोचिकित्सक ” शब्द की ध्वनि को आंख में ही पढ़कर , अभिरंजन ने हिंदुस्तान टाइम्स के उस आर्टिकल के टुकड़े का छोटा गोला बनाया। बहुत छोटा सा गोला । उस गोले को अपनी हथेली के बीच में गोल घूमाते -घूमाते , पिछले 15 मिनट से वो उस 20 × 16 के कांच के दरवाजे के पास जाकर फिर से सड़क पर आकर खड़ा हो गया। उसकी पीठ पर अब काँच के दरवाजे की छाती थी। मन के गोशे , न्यूरॉन के आदेश पर उसके पैरों को पिछली जगह लेकर मुड़े और उसी आदेश पर सड़क पर लौटे गए । यह तीसरी बार था । पर इस बार उसकी पीठ पर डॉ. आभा निगम , बड़े नाम के साथ दुनिया भर की डिग्रियां एक बजरी के टीले की शक्ल में चिपककर लौटी। क्यों लौटी पता नहीं । धर् र् र् र् अचानक से बजरी का वो टीला फटा । अभिरंजन के बालों में … आंखों में ….शर्ट के अंदर …. पैरों की अंगुली के बीच में बजरी सर्र सर्र रिपसने लगी। चारों और बजरी के नए – नए ढेर उगने लगे। किसी एक ढेर में उसकी नीली फीते वाली चप्पल कहीं खो गई। सात साल का डरा हुआ अभिरंजन अब घर कैसे जाए … नंगे पैर ….घर कैसे लौटे ? क्या कहेगा … क्या करेगा। कौन सा झूठ बोले … क्या बहाना उठाए।

फिर कहां से उड़कर अचानक बहुत सारे मोमकलर उसकी अंगुलियों में आकर फंस गए। कमरे की सफेद दीवार पर वो हजारों रगीटे मार रहा है। रंगों की घसड़ -पसड़ सफेद चिकनी दीवार पर उड़ रही है । क्यों किये रगीटे … क्यों किए घसड़ – पसड़ । अब कमरे से बाहर कैसे निकले ? कैसे निकले ? छोटा सा “अभि “।
कहां छुपे ? दरवाजे के पीछे … पलंग के नीचे …. अलमारी के अंदर … नहीं – नहीं बाथरूम में …. पर्दे के पीछे। कहां ?… कहां छुपे ?

गंदी दीवार … क्यों की गंदी दीवार … दो लाल आँखें उसकी ओर आई …. बजरी … चप्पल …. नीले फीते …नंगे पाँव … नंगे पाँव । उफ् ! मेरा ये पास्ट । जाओ , जाओ यहां से । छोड़ क्यों नहीं देते मुझे।
ऊपर वाले होठ पर जम आया डर उसने हाथ से साफ किया। अंगुलियों के बीच का पसीना शर्ट के किनारे से पोंछा।

“भैया !…भैया ! …भैया ! …” एक आवाज उसके कान पर तेज -तेज ढेले मारने लगी ।
उस ढेले के डर से नन्हे अभिरंजन का बीता हुआ पास्ट उंगलियां छुड़ाकर भागा। और वर्तमान अठ्ठाइस साल के अभिरंजन की नसों में उतर आया था।

अभी रात के लगभग साढ़े आठ बजे अट्ठाइस साल का अभिरंजन एक क्लीनिक के बाहर, सड़क पर अब उस आवाज़ के ऑपोजिट डायरेक्शन में खड़ा था जो गर्दन की सीढ़ी से चढ़कर उसके कान की सरहद में घुस आई थी।
भैया !… भैया !….अभिरंजन ने बीच की तीन उंगलियों को होंठ के ऊपर से नीचे तक फेरा । फिर दोनों होठो को अंदर की ओर दबाया। वो मुड़ा नहीं नीचे जूतों की ओर झुका । उसने दोनों जांघों के बीच अपना मुंह छुपाने का रोल अदा किया। जूते की लेस नहीं खुली थी। लेकिन उसने दाहीने जूते की लेस को खोला । फिर उसे वापस इतना कसकर बांधा जैसे उस आवाज का गला दबा रहा हो।

“कौन मुझे पहचानता है यहाँ?… क्या किसी ने देखा ?… इतना तो अंधेरा है ? ..इस अंधेरे में कौन होगा ये ?” अंधेरा अपनी मोहब्बत में कोई शर्त नहीं रखता। हम अपनी पीड़ा ,अपने दुख , अपना पास्ट,अपनी राज़दारियां, अंधेरे में उतारकर वहां नंगे हो सकते हैं। अंधेरा हमारी नंगई पर एक काली मोटी चादर डाल देता है , चुपचाप। कोई सवाल नहीं उडेलता हम पर। लेकिन उजाला , उजाला तो हजार शर्ते रखता है एक इश्क़ के बदले में। कितनी गलत परिभाषाएं हमारी चौखटों पर बरसों से टंगी पड़ी हैं। जो देह की अंतिम सांस के साथ फूंक दी जाती है। गलत फिर गलत ही ट्राँसफर होता रहा है सदियों तक। चालीस सैकंड में अस्सी विचार धड़ाधड़ उसके दिमाग के कमरे में उबले फिर चढ़े -उतरे । अंत में किसी रिपीटेड आंसर के थके क्वेश्चन की तरह की तरह वह पीछे मुड़ा ।
– “हाँ बोलो “
-“भैय्या , ये आपका बटुआ है ? वहाँ कीलीनीक के पास पड़ा हुआ था l ” एक चौदह – पंद्रह साल के लड़का फटाक से बोल पड़ा। उसने अपनी पेंट के पीछे की दोनों पॉकेट को थपथपाया। आगे की जेबों से थोड़ी छेड़ा- छूड़ी की। फिर इतना ही कहा – “अं … अं ….. हाँ .. हाँ थैंक्स । मेरा ही है थैंक्स .. थैंक्स। “

“भैय्या ! आज आपका ओपेनटमेंट है ? यह गाड़ी आपकी है ?आप पहले भी आएं हैं ? ” लड़के ने सटासट प्रश्न फोड़े। बाहर तूफान आया हो जैसे और एक खुली खिड़की , दीवार की छाती पर धड़ -धड़ गुम्मे मार रही हो । लड़के के प्रश्न ऐसे ही थे। गुम्मे का दर्द तो सहना ही है । इल्ज़ाम हवा पर है। वो तूफान के साथ आई ही क्यों । खिड़की ने तो साइड हीरोइन का किरदार निभाया है बस। जैसे छोटे लड़के ने निभाया।
उसने छोटे लड़के की ओर नहीं देखा। जाने को मुड़ा। थोड़ा रुका। ” खलील जिब्रान की श्रेष्ठ कहानियां ” उस लड़के के हाथ में दबी किताब की ऒर उसका ध्यान गया। वो पूरा रुका। अब पैर नब्बे डिग्री के एंगल पर लड़के के सामने थे। “खलील जिब्रान ” – उसने लिप्सिंग की ।
” जो ज्ञान आपको रोना और हंसना न सिखाएं वह ज्ञान बेकार है । ” इस बार अभिरंजन के माइंड ने लिप्सिंग की। उसने लड़के को देखा । कुछ सोचा। कहा – “कल का अपॉइंटमेंट है । “
” कल का ओपोनटमेंट है ?”
छोटे लड़के ने “कल” शब्द को आश्चर्य की बड़ी नाप की कमीज़ पहनाकर कहा।
अभिरंजन ने सुना नहीं । उसकी आंखें तो डॉ. आभा निगम ,मनोचिकित्सक लिखे ग्लो साइन बोर्ड पर बैठी हुई थी।
“भैया सच में आपका ओपोनटमेंट कल का है ? “
“क्या तुम्हें खलील जिब्रान की कहानियां पसंद है ?”!
प्रश्न के एवज़ में प्रश्न । पता नहीं दिल की ओर जाने वाली कौन सी झूठी धमनी हमें ये गुर सिखाती है। अंदर न जाने ऐसी कितनी ही धमनियाँ , कैलेंडर की चालाक तारीखों की तरह अपने कॉस्टयूम , डायलॉग और एक्टिंग बदल लेती है झट से। अगर ये नहीं होती ना , तो सच के सैलाब में तीन चौथाई दुनिया कब की मर जाती। कितना उधार है भीतर -बाहर। झूठला समुद्र भी तो वही चप्पल पहनता है जो लहरें सैलानियों से खोसकर लाती हैं। दुनिया का सबसे विशाल भिक्षा पात्र है ये देह -समुद्र ।
“तुम्हें खलील जिब्रान की कहानी पसंद है ?” कार के बोनट पर बैठे अभिरंजन ने फिर पूछा।
“फ्ता नइ… डॉ. मैम ने दी है। नवीं कक्षा की छुट्टियां हैं ना अब । क्या करूंगा ना। तो दी है पढ़ने को। तो पढूँगा। ” बच्चे ने किताब को आगे – पीछे घुमाया। “
“लेखपाल ! ओ लेखपाल !” छत से आवाज दौड़ी।
” मेरे बाबा है । डाकटर मैम के डराइवर । मुझे बुलाते हैं । सरवेंट कवाटर में रेता हूं पीछे। जाता हूं। वो मेरे बिना रोटी नी खातें । ” बच्चे ने ऊपर की ओर देखते- देखते ही चमक से कहा । फिर भागा।

क्या घर लौटने में कोई बच्चा इतना खुश हो सकता है? घर लौटने में?
उस छोटे लड़के के उत्साह में लिथड़ा वजन अब अभिरंजन की छाती को दबाने लगा । एक चट्टान … दूसरी चट्टान …. तीसरी …. चौथी … छाती पर इतना भार । घर लौटना … स्कूल से लौटना … खेल के लौटना …. क्यों लौटना होता है घर। लौटना … लौटना … क्यों ? नहीं लौटना मुझे घर। तो फिर कहां जाएं ? हजारों बच्चों की आँखें चीखती रही। सेम टू सेम सेंटेंस । पर कितने माँ – पिता उन नन्ही आँख की चीख को समझ पाए। घर लौटने के वजन को तौल पाए। सारा खेल जड़ों का है कितने माँ – पिता जान सके ये। फिर क्यों माँगते रहे हरा पेड़ ,अपने आंगन में ?
“भैय्या ,भैय्या ! आपका ओपोनटमेंट सच में कल का है ? “
“कल” शब्द पर स्ट्रेस था। छोटे लड़के का प्रश्न बीस -तीस मीटर की दूरी तय करके अभिरंजन की ओर फिर लौटा । पर वो प्रश्न उसकी बैक लेती कार की गर्र – गर्र की आवाज में मिक्स होकर कहीं दूर अंधेरे में उड़ गया …. बहुत दूर।

****
टेबल पर अभिरंजन की दो ढीली मुठ्ठियां यों रखी हैं। जैसे किसी तूफान से गुथ्थमगुथ्था करते वक्त ,पहाड़ की अर्थव्यवस्था से मिट्टी के दो कमज़ोर ढेले अलग होकर पड़े हों। कि अब बिखरे कि तब बिखरे। टेबल के उस ओर से बावन- तरेपन वर्षों के शालीन सौंदर्य की चरबाँक हवाओं के , उपजाऊ बीज आँखों में समेटे डॉ. आभा निगम उसे देख रही हैं। चावल की रोपाई में धान की सभी लाइन एक अनुशासन को मेंटेन करती हैं। ढेर पानी को अपने अंदर घंघोलकर, अनाज का एक अनुशासित गट्ठर बांध लेती हैं । वैसा ही एक अनुशासन उनके गोल जुड़े के गट्ठर में पीछे बंधा था । कॉटन की साड़ी की प्लीटस के कंधे और कदम ,सही लेफ्ट- राइट वाली फाइल की क्रीज पहने पूरे रुबाब में थे।
“तो तुम्हें एगोराफोबिया है । राइट । आज तक बिना किसी डॉक्टर से बात किए तुमने सेल्फ डिक्लेअर कर दिया कि तुम एगोराफोबिया से ग्रसित हो। क्यों अभिरंजन ? ” यह डॉ. आभा निगम का पहला वाक्य था ।
“मैं जानता हूं कि मुझे एगोराफोबिया है । ” उसने टेबल के साइड में रखे लाफिंग बुद्धा के पीछे रखीं, ख़लील जिब्रान की किताबों को देखते हुए धीरे से कहा ।
उसकी आंखें क्लीनिक में आने के बाद से ही वहीं उन्हीं किताबों पर थी।
” यह सारी की सारी किताबें मेरे पास है – द प्रॉफेट, मेडमेन , रेत और झाग , बोक्रन विंग्स सारी किताबें। ” धीरे से वो फिर बोला ।

– “ओह ! गुड तो क्या तुम ख़लील जिब्रान की किताबों से बहुत प्यार करते हो ?”
– “नहीं मेरे पिता प्यार करते थे। “
– “पर उनको मुझसे प्यार नहीं था। “
इस वाक्य ने एक सिलाई उधेड़ी। जिसका धागा पकड़कर डॉ. आभा ने कहा – “तो इसी बात को तुम एगोराफोबिया का कारण मानते हो। ” उसने अपना वाक्य अभिरंजन की ढीली मुठ्ठियों पर धरकर , उसकी आंखों की ओर देखते हुए कहा । पर उस वक्त अभिरंजन की आंखें तो ,पैर बनकर खिड़की के नीले पर्दों के पास खड़ी थीं, सैकंड में उसकी आंखें , हाथ में बदल गई और धीरे-धीरे नीले रंग को रेशों को सहलाने लगीं।
“नीली दीवार , नीले पर्दे। ” उसने लिपसिंग की।
– “क्या आपको नीले रंग से बहुत प्यार है , डॉ. आभा। “
– “हां बहुत । क्या तुमको भी नीले रंग से प्यार है। “
– “नहीं मेरे पिता को प्यार था । “
– “पर उनको मुझसे प्यार नहीं था। “

किसी कॉफीन पर ठोकी हुई कील की तरह यह वाक्य -“मुझसे प्यार नहीं था। ” पर “गहरे हूँ ” में घुला एक बर्फ का टुकड़ा रखा डॉक्टर ने।
” दुनिया के सारे बचपन का एक जैसा पोस्टर होता है । एक मुस्काता बच्चा। जिसकी एक हथेली में पिता की अंगुली और दूसरी में होती है माँ की अंगुली। लेकिन मेरा बचपन वाला पोस्टर मुड़ा- तुड़ा था। क्रश्ड! मेरी एक हथेली में पिता की खमोशी भी और दूसरी हथेली में माँ का अवसाद। ” अभिरंजन ने आगे बोलना जारी रखा । ” जानती हैं आप , जिन बच्चों के पिता , उनकी माँ से प्यार नहीं करते ,तब माँ का सारा अवसाद छाती के दूध से रिसकर बच्चे में उबाल लेने लगता है। ये उबाल धीरे -धीरे डर का चेहरा विकसित कर लेता है फिर हाथ, पैर, पेट लेकर डर का ये पैरासाइट उस बच्चे के शरीर में पलने लगता है । “
लम्बे फुलस्टाप के बाद अभिरंजन ने फिर बोलना शुरू किया –
” मेरे घर की तीसरी गली में चार गुलमोहर के पेड़ थे। जैसे आपके घर के बाहर हैं । हू-ब-हू उसी शक्ल के लाल फूलों वाले गुलमोहर। हों शायद जुड़वा से । उनके ठीक सामने पुराना सा डाकघर था। पिता अक्सर शाम को मुझे वहां ले जाते। वे गुलमोहर के पेड़ों को देखते। शायद उनसे बात करते थे। फिर बूढ़े पोस्टमैन अंकल से कुल तीस सेंकंड खामोशी से कुछ कहते। कहते कम बस सुनते। उसी खामोशी के साथ हम उस गली की बाँयी दिशा में मुड़ते । रिक्शा में बैठते । हम पिछोला घाट आ जाते। रिक्शा वाला कुल पंद्रह रुपये लेता । घाट पर पिता नाव देखते । शायद वो नावों से भी बात करते थे । वैसे ही जैसे गुलमोहर के पेड़ों से करते । मैं ख़ामोश पिता को देखता। पिछोला की लहरे गिनता। कई सालों।
नदी के उन अश्रुगीतों का जिनका बरसों पहले सागर में विलय हो चुका था। अचानक पीड़ा के नाखून में गिरफ्तार होकर ,उस कमरे में हाज़री लगाने लगे। उपेक्षित से प्रेम पत्र जो शरणार्थी होकर मन – देश की सीमाओं से बाहर बस चुके थे। फटी – गली शक्ल लेकर कमरे में लौटने लगे । पिछोला ..नाव …घाट…. गुलमोहर के पेड़…. नीला रंग ….ख़लील जिब्रान की किताबें… पुराना डाकघर…. लाल रिबिन… दो चोटियाँ … लेडिज साइकिल … लड़का – लड़की ….क्षेत्रफल के सवाल …. गणित की किताब ..पिछोला…. हाथ में हाथ और झील में नाव … ।
डॉ. आभा के भीतर बहती झील का अस्थमा हाँफने लगा। अनुपस्थित होकर भी शंका की उपस्थिति टूट – टूटकर कुछ बुदबुदाते हुए अंदर से उसका घेराव करने लगी। वो खड़ी हुई । कुर्सी पीछे खिसकाई। कुर्सी टेढ़ी हुई। दोनों कलाइयाँ टेबल पर रखी। ब्रेसलेट से “टक ” की आवाज पसरी। गर्दन ऊपर की उठी। फिर अभिरंजन को देखा। मुड़ी । खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर देखने लगीं। इस वक्त दोनों के बीच एक अप्रस्तुत ऊंची दीवार प्रस्तुत खड़ी थी।

– “क्या मैं अपने पेशेंट से बात कर रही हूं? “
अभिरंजन – “पता नहीं । “
– “क्या तुम अपने डॉक्टर से बात कर रहे हो ? “
अभिरंजन – “पता नहीं । “
“तो तुम इस कमरे में इस समय किससे बात कर रहे हो अभिरंजन ? “
खिड़की से बाहर देखते -देखते डॉ. आभा ने कहा- उनकी आवाज़ में किसी लंबी यात्रा की थकान थी और शब्दों की भंगिमा का मिज़ाज किसी बच्चे की तरह सहमा- सा था। जीवन के अपठित गद्यांश में प्रश्न किस अंधेरी खिड़की से कूद – फांद कर आएंगे , ये तो पता नहीं । पर ये तो पक्का है कि बे -पता प्रश्न हमसे सुकून भरे स्पर्श की छोटी सी डिमांड़ ही तो करते है । और हम, उपेक्षा से आँख मूंद लेते हैं उस ओर से। गले क्यों नहीं  लगा पाते ? इन बे – पता प्रश्नों को। और यदि लगा लेते ना गले। तो ये प्रश्न ही हमें पूरी की पूरी आंसर -की शीट थमा देते । चुपचाप।
अभिरंजन उठा। टेबल पर जमी ढीली मुठ्ठियाँ अब काँपती अंगुलियों में बदल गई। उसने पेट से नाक तक साँस की सुतली खींची। “ह् अ ” की आवाज से छाती को दबाया। जूते के अंदर ही पैर के दोनों अंगूठों को मोड़ा। हवा अंदर दबी । और चमड़े के काले जूतों के फ्रंट पर दो गड्ढे उग आए। उसने उन गड्ढों में उतरते हुए,रुकते- रुकते कहा – ” मैं इस वक्त, इस कमरे में , अपने पिता की , प्रेमिका से बात कर रहा हूं। “

अभिरंजन के साँस वाली पाइप में फंसा यह वाक्य गर्म भाप की तरह ,पूरे वेग से बाहर निकला और कमरे की हर चीज पर फैल गया। नीले पर्दों पर ….ख़लील जिब्रान की सारी किताबों पर…. लाफिंग बुद्धा पर… टेबल पर …कुर्सी पर .. डॉ. आभा निगम पर। उनकी चमड़ी में उपस्थित करोड़ो छेदों में ये गर्म भाप फुसफुसाने लगी।
पिता की प्रेमिका !
पिता की प्रेमिका !
भीतर के अप्रस्तुत मौन में और बाहर के अप्रस्तुत शोर में से, पहले किसे प्रस्तुत होना चाहिए । ये निर्णय दोनों में से कोई नहीं ले सका । था भी तो कितना कठिन ।
“तुम्हारे पास मेरे लिए नफ़रत है। “ डॉ. आभा, लम्बी चुप्पी पर डस्टर लगाकर बोली।
अभिरंजन की तरफ़ से कोई जवाब नही….
अभिरंजन ने एक काला बेग टेबल पर रखा । बेग की पाइपिंग जगह-जगह से तड़की पड़ी थी । उसका बदरंग शेड बता रहा था कि बैग बहुत सालों पुराना है। उसने, चेन खोली। चेन को खींचने वाला मुंह भी टूटा हुआ था । चेन के अंत तक जाने से पहले ही उसके बीच में से दो फाड़ हो गए। अब बेग खुला पड़ा था। उसने धूजते हाथ से अंदर रखीं सारी चिट्ठियां टेबल पर रख दीं।
“ये वो चिट्ठियां हैं जो पिता ने आपको, पूरी उम्र लिखी पर कभी पोस्ट नहीं की। “
उसकी दो उंगलियां एक चिट्ठी पर आगे -पीछे हो रहीं थी। वहीं आंखें टिकाए वो कहता रहा ।
” पिता ने अपने ख़ामोश इंतज़ार की उम्र बहुत लंबी रखी। लेकिन मां के अवसाद की उम्र छोटी थी। माँ जल्दी गई । बहुत जल्दी । ” भीगती आँख रुक कर बोलीं – “पिता के जाने के बाद, ये बैग उनके कमरे से ….। “वाक्य पूरा नहीं किया उसने।
” पिता ने पूरी उम्र प्यार ढूँढा पर उन्हें प्यार नहीं मिला। माँ ने प्यार चाहा ,उन्हें नहीं मिला। मेरे लिए तो प्यार रिक्तस्थान की तरह आया। “
आगे का वाक्य चुप था और अभिरंजन नीली दीवार को देखने लगा। फिर बोला – “ये हमारा भ्रम है कि प्रेम के रास्तों की याददाश्त तगड़ी होती है। गलत है , जाने के बाद रास्ते कहां लौट पाते हैं। अगर लौटना भी पड़े तो आधे से , पुराने तोहमत- हिसाब- गुंथाड़े लगाते लौटते हैं । वर्षों बाद किसी के पास साबुत लौट पाना मिथ्या व्याकरण है। “
“चलते-चलते चप्पल टूट जाने पर ईश्वर को कोसने से बेहतर है , नंगे पांव मिट्टी से इश्क़ कर लेना । मैंने हमेशा यही किया अभिरंजन। लेकिन तुम्हारी ओर से , मेरे पास नफ़रत आनी चाहिए थी। इल्ज़ाम उगलने थे तुम्हें। लेकिन ये चिट्ठियां ? तुम इन्हें जला भी तो सकते थे ? फाड़ भी तो …. ? ” वो रुकी।

“ मैं, आपको चिट्ठियां नहीं लौटा रहा हूं । थोड़े …आधे बचे मेरे पिता लौटा रह ह् ह् ह् ….” “रहा हूं ” ये शब्द अधूरे रह गए। ये पिछले तीन घंटे में पहली बार था जब अभिरंजन ने डॉ. आभा के चेहरे को देखकर ये सब कहा।
इस वक्त शहर की प्रख्यात मनोचिकित्सक , डॉक्टर आभा उसे तीस- पैंतीस साल पहले की दुर्बल काया वाली , अठ्ठारह साल की प्रेमिका दिख रही थी। लोहे की सरियों के पीछे कैद , कटे पंखों वाली , प्रेम कविता लिखती, एक प्रेमिका। उसके पिता की प्रेमिका।
उसने चिट्ठियों को एक नज़र देखा । जैसे ख़ामोश पिता को देख रहा हो। झटके से बाहर वाले दरवाज़े की ओर मुड़ गया । तीन कदम के बाद वापस लौटा। उसने अपने शर्ट की ऊपर वाली जेब में दो उंगलियां डाली। छ: – आठ परतों में मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा बाहर आया । हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा-
” पिता ने शायद जाने के दो-तीन दिन पहले ये अंतिम चिट्ठी आपके लिए लिखी थी मुझे उनकी जेब में मिली। ” डॉ. आभा ने हाथ बढ़ाया। बाहर निकल चुके अभिरंजन के जूतों की मरी मरी सी प्रतिध्वनि की छाप कमरे में आने लगी । ठंडे हाथों से डॉ. आभा ने उस कागज के टुकड़े को खोला । उसकी पहली लाइन में लिखा था। “प्यारी आभा ” बीच की आठ – दस लाइन बिल्कुल खाली थी । और अंत में लिखा था “तुम्हारा रणजीत। “
आंखों की कोर में आई दो बूंदों ने इतना ही कहा –
” बरसों बाद किसी के पास साबुत लौट पाना मिथ्या व्याकरण है। “

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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