“पहला प्यार जैसे महकी बयार…. पहला प्यार लाए जीवन मे बहार….पहला प्यार….”. जब कभी टेलीविजन खोलती हूँ तो किसी साबुन के विज्ञापन में ये जिंगल्स अकसर सुनाई पड़ते हैं. बहरहाल प्यार और साबुन का आपस में क्या रिश्ता है, यह यह मेरे लिए जिज्ञासा का विषय है. मैं अकसर यह भी सोचती हूँ कि प्रथम प्रेम को क्या तत्क्षण अनुभूत किया जा सकता है. अगर अपने तज़ुर्बे से मैं कहूँ तो पहला प्यार एक ऐसी अगरबत्ती है जिसकी मुलायम खुशबू को हम तब महसूस करते हैं जब अगरबत्ती को जल कर राख़ हुए खासा वक़्त गुज़र चुका होता है. मैंने भी तो प्रथम प्रेम का प्रथम स्पंदन तब अनुभव किया था जब मैं वस्तुतः उस स्थिति से बहुत आगे निकल आई थी. शेखर को दोषी मानना शायद ठीक नहीं लेकिन मैंने खुद भी तो उन सुनहरे लम्हों को सिर्फ़ इस संशय में खो जाने दिया कि यह प्रेम है या एक सहज अंतरंगता या फिर एक निकट परिचय मात्र. यहाँ मैं फिर से एक अकारण विश्लेषण में फंस गई हूँ. दरअसल यह मेरी पुरानी आदत है. विज्ञान की छात्रा होने के कारण शुरू से ही मेरी आस्था संबंधों की ‘ऑब्जेक्टिविटी’ में थी. चीजों को “रैशनल एप्रोच” से देखना मैं अपना परम कर्तव्य समझती थी. पर आज, छोटी की शादी के बहाने सात बरसों के बाद हम फिर से मिले हैं तो यह मान लेने में मुझे ज़रा भी ऐतराज़ नहीं कि मेरी वह तथाकथित तर्कबुद्धि एक बेवकूफाना ज़िद के सिवा कुछ न थी. बरसों बाद मैं आज भी उन पलों की मुलायम खुशबू को उसी समग्रता और तीक्ष्णता के साथ अनुभव करती हूँ. आज जब हम एक-दूसरे को पार कर बहुत दूर निकल गए हैं, मैं अकसर सोचती हूँ कि शेखर के साथ अपने निहायत अमूर्त, तरल और निराकार संबंधों के लिए एक उपयुक्त नाम ढूँढूँ किन्तु जानती हूँ यह इतना आसान नहीं है. इसीलिए तो यह लम्हे इतने ख़ास…इतने बेशकीमती हैं.
बचपन से ही हॉस्टल में रहने के कारण पुरुष-जगत से मेरा परिचय नाम मात्र का था. जब एम.एस-सी में पहुँची तो ख़ुद अपनी ही पीठ थपथपाई – ‘चल प्रीति, तू बच गई कि तुझे कभी मर्ज़े-इश्क़ नहीं हुआ.’ बाईस साल की समझदार ऊम्र में इस विश्वास का आधार भी था. और फिर, मुझमें और शेखर में तो कुछ भी कॉमन नहीं था. मैं विज्ञान पढ़ती थी और वह साहित्य. मैं अंतर्मुखी थी और वह मुखर! मैं संयत और संज़ीदा थी तो वह उन्मुक्त और बेपरवाह. हम सोचते अलग थे, हम जीते अलग थे, हम अलग-अलग दुनिया के जीव थे. अगर मै पास ही के शहर अपनी बुआ से मिलने नहीं गई होती तो मैं और शेखर एक-दूसरे से कभी मिलते भी नहीं. पापा के निरंतर ट्रांसफर की वज़ह से मेरी छोटी-मोटी छुट्टियाँ अकसर बुआ के यहाँ ही गुज़रती थीं. हालाँकि बुआ के घर का माहौल भी कमोबेश हॉस्टल की ही तरह सख्त और घुटन भरा था, फिर भी बुआ की दोनों हमउम्र बेटियों के साथ मेरा वक़्त ठीक-ठाक कट जाता था. हम लड़कियों को बुआ की कड़ी हिदायत थी कि हम शेखर नाम के संक्रमण से बच कर रहें. शेखर के प्रति इस पूर्वाग्रह की असल वज़ह तब मैं नहीं जानती थी. शेखर रोज़ शाम को आता और बंटी से उसकी स्टडी में ही मिलकर वापस लौट जाता. घर के दूसरे कमरों में उसका प्रवेश अघोषित रूप से निषिद्ध था. बंटी को छोड़ कर परिवार के दूसरे लोगों से उसकी बातचीत नहीं के बराबर होती थी. जब कभी मैंने बुआ से इसकी वज़ह जानने की कोशिश की, उनका तैयार जवाब होता – ‘वह भरोसे का लड़का नहीं है.’ मुझे उनकी बात अजीब लगती. मैंने हमेशा शेखर को परिवार के काम ही आते देखा था. किसी को नोट्स या किताबों की ज़रूरत हो, किसी को अपनी प्रैक्टिकल बुक में डायग्राम बनाने हो, किसी को कॉलेज में दाखिले के लिए भाग-दौड़ करनी हो – सब मर्ज़ की एक ही दवा, फिर भी शेखर ख़राब. मुझे बुआ की हिप्पोक्रेसी पर हँसी आती थी. फिर मैं सोचती कि उन्हें शायद अपने ही बच्चों पर भरोसा नहीं था जिसे प्रकारांतर में वह शेखर को बुरा कह कर प्रकट करती थीं. बहरहाल सबकुछ ऐसा ही चलता रहा – मेरी पढाई, वीकेंड या छुट्टियों में बुआ के यहाँ का अल्पप्रवास, वहां शेखर का पहले की ही तरह आना-जाना और उससे परहेज़ रखने का बुआ का दुराग्रह. हाँ, कुछ बदला अगर तो वह शेखर में मेरी बढ़ती हुई दिलचस्पी थी. वह भी सिर्फ़ इतना भर जानने के लिए शेखर सच है या उससे जुड़े हुए मिथक.
….तक़रीबन बारह साल पहले की बात है. नवम्बर की शुरुआत थी और सर्दियाँ अभी-अभी उतरी ही थीं कि एक रोज़ पूरा शहर भयानक दंगे की चपेट में आ गया था. सारे- स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए थे. वार्डेन ने सभी लोकल गार्डियन्स को इत्तला कर दिया था और ज़्यादातर लड़कियाँ हॉस्टल ख़ाली कर चुकी थीं. जो रह गई थीं वे अपने परिचितों की चिंतातुर प्रतीक्षा कर रही थीं. मैंने भी बुआ को फोन करवा दिया था लेकिन मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि ऐसे हालात में वे बंटी को मुझे लेने आने के लिए भेजेंगी. बम और गोलियों के धमाकों से गूंजती वे खौफज़दा रातें आज भी जब याद आतीं हैं तो रोम-रोम सिहर उठता है. हम गिनी-चुनी लड़कियाँ एक ही कमरे में रातें जाग-जाग कर काटती थीं. तीसरे दिन फ्लोर अटेंडेंट ने आकर खुशखबरी दी कि कोई मुझे लेने आया है. मेरा मन बुआ के प्रति कृतज्ञता से भर गया लेकिन जब वार्डेन के ऑफिस में पहुँची तो वहाँ बंटी की जगह शेखर को देखकर मैं स्तब्ध रह गई. उस वक़्त वह वार्डेन के साथ तीखी बहस में उलझा हुआ था. दरअसल कायदन हॉस्टल में मुझे उन्हीं दो-तीन लोगों से मिलने या उनके साथ आने-जाने की इजाज़त थी जिनके नाम पापा ने वार्डेन को दिए थे. ऐसी सूरत में वार्डेन मुझे शेखर के साथ जाने देने के लिए हरगिज़ तैयार नहीं थीं लेकिन शेखर था कि वह मुझे अपने साथ ले जाने की ज़िद पर अड़ा रहा. आख़िरकार वार्डेन ने मुझसे यह ‘डिक्लेयरेशन’ ले लिया कि मै अपनी मर्ज़ी से एक अजनबी के साथ जा रही हूँ और इसकी किसी भी तरह की कोई ज़िम्मेदारी हॉस्टल के स्टाफ़ की नहीं होगी. मैं खुद वहां से ज़ल्दी से ज़ल्दी निकलना चाहती थी. अपरिचित होकर भी शेखर उन पलों में मेरे लिए किसी मसीहा से कम नहीं था. जब हम बाहर निकले तो मैं बेहद घबराई हुई थी लेकिन शेखर के चेहरे पर खौफ़ की एक लकीर तक नहीं थी. उसके एक हाथ में मेरा बैग था और दूसरे हाथ में कर्फ्यू पास. और, सूनी-बियावान सड़कों पर हम तक़रीबन दौड़े चले जा रहे थे. स्टेशन पहुँच कर ट्रेन में बैठने के बाद मैंने राहत की साँस ली और शायद पहली बार शेखर को पूरी नज़र देखा था. गोरे चेहरे पर ठंढ के बावज़ूद निकल आए पसीने के नन्हे-नन्हे कण, छोटे-छोटे बाल, हल्की-सी दाढ़ी, शरीर पर फबने वाले डिजाइनर कपड़े, गले में बंधा नीला पुलोवर, उँगलियों में फंसी सिगरेट और खिड़की के पार देखती बड़ी-बड़ी पारदर्शी आँखें. फिर उसने नज़रें घुमायीं और मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराया – ‘आय एम सॉरी, मेरे आने से वार्डेन बहुत नाराज़ थीं. आप तो जानती हैं, अकेले होने की वज़ह से बंटी कितना बिज़ी रहता है. मैं ठहरा बेकार आदमी इसीलिए जब आंटी ने कहा तो मैं मना नहीं कर पाया.”
“थैंक्स”— बामुश्किल मेरे मुँह से यही लफ्ज़ निकल पाया था. दो-ढाई घंटे के उस मुख़्तसर से सफ़र में हमने न जाने कितनी बातें कीं. शेखर के पास बातचीत के लिए मुद्दों की कमी नहीं थी. सबसे पहले तो उसने दंगों की सोशियो-पॉलिटिकल व्याख्या की. फिर इस बात पर प्रकाश डाला कि विज्ञान किस प्रकार व्यक्ति को आत्मकेंद्रित और वस्तुनिष्ठ बना देता है और अंत में यह बताया कि कैसे साहित्य व्यक्ति की सूख चुकी संवेदना के लिए संजीवनी का काम करता है. इसी प्रकार की अनंत दिलचस्प बातें जिनका प्रतिकार करने के लिए मेरे पास कुछ भी न था. फिर भी मुझे एक अनजानी सी तसल्ली थी. जिस आदमी को मैं इतनी बड़ी ‘मिस्ट्री’ समझती थी वह कितना सरल निकला. शेखर की मुखरता में मेरे अनगिनत सवालों के हल थे. बहरहाल बुआ के घर पहुँचने के बाद हम फिर से अपने-अपने दायरों में वापस लौट चुके थे. शेखर रोज़ की तरह आता ज़रूर था लेकिन बंटी का कमरा यथावत उसकी लक्ष्मण रेखा बना रहा. मुझे बुआ की बंदिशों पर पहली बार कोफ़्त हुई थी. जिस शेखर की परछाईं से भी हमें बच कर रहना सिखाया गया था वही शेखर मुझे हॉस्टल से लाने के लिए मुनासिब आदमी कैसे हो गया, यह बात मेरी समझ से परे थी. मैं ये सारे सवाल मेरे ज़ेहन में थे और मुझे इनका जवाब चाहिए था लेकिन वह बुआ का घर था, मेरा नहीं. बहरहाल इस बार जब घर पहुँची तो पापा को कहा कि अगर वह मुनासिब समझें तो हॉस्टल में मुझसे मिलने आने वालों में शेखर का नाम भी वार्डेन को दे दें. इस बार जो कुछ भी हुआ था उस स्थिति में पापा के पास इसके सिवा कोई विकल्प भी नहीं था.
इसी बीच दीदी की शादी तय हो गई. पापा के कहने पर शिष्टाचारवश एक कार्ड मैंने शेखर के नाम भी पोस्ट कर दिया. उम्मीद के खिलाफ़ वह शादी के दो दिन पहले ही आ धमका. आते ही वह शादी के कामों में ऐसे मसरूफ़ हो गया गोया हमारा पुराना वाकिफ हो. उसक वह खुला-खुला व्यवहार उसकी शख्सियत पर उसकी दाढ़ी की ही तरह जंचता था. मैंने मजाक में टोका भी –“शेखर जी, यहाँ तो आप एकदम ही डिफरेंट मूड में हैं, फिर बुआ के यहाँ आपकी ‘जेनरोसिटी’ कहाँ चली जाती है? आख़िर उन्होंने आपका क्या बिगाड़ा है?” ज़वाब में वह हँसने लगा – “कोई बात नहीं, अगर आपको ऐतराज़ है तो यहाँ भी चुपचाप बाहर बरामदे में बैठा रहता हूँ”.
“मेरा यह मतलब बिल्कुल नहीं था. मैं तो सिर्फ़ यह पूछ रही थी कि बुआ आपके नाम पर इतना चिढ़ती क्यों हैं?” मैंने बात बदलने की कोशिश की.
“यह तो वही बेहतर बता सकती हैं”. वह कटना चाहता था.
“लेकिन कोई न कोई वजह तो ज़रूर होगी…”
“डोंट आस्क मी सच क्वेश्चन दैट आय कांट रिप्लाय….प्लीज”. उसने अंतिम रूप से बात काट दी. यह तो बाद में बुआ की छोटी बेटी नेहा ने खुलासा किया – “प्रीति दी, शेखर भाई तो बहुत अच्छे हैं. यह सब दरअसल बबली दीदी का करा-धरा है. उसी ने एक दिन शेखर भाई को एक चिट्ठी थमा दी थी जिसे पढने के बाद उन्होंने उसे सीधे माँ के हाथ में दे दिया. माँ ने भी बबली दीदी को समझाने के बजाए उलटे शेखर भाई को ही डांटा-फटकारा. यह तो उनकी भलमनसाहत है कि तिरस्कृत होकर भी वह घर आते-जाते हैं.
मैं अवाक रह गई. फिर दूसरे रोज़ हिम्मत बटोर कर मैंने शेखर से पूछ ही लिया – “कुछ लोगों को महानता के पाखंड में जीने की लाइलाज़ बीमारी होती है. है ना?”
“आपकी मर्ज़ी, जो चाहिए वह समझिए. लेकिन सवाल महानता के बजाए संबंधों के प्रति ज़वाबदेही का है. मैं ऐसा कुछ कैसे होने देता जिसकी वज़ह से मुझे बंटी से आँखें मिलाने में अपराध-बोध होता. मेरे ख्याल से दोस्ती को बचाने के लिए पाखंड भी गलत नहीं.” उसने ज़वाब में कहा.
दीदी विदा हो चुकी थी. दूसरे मेहमानों के साथ शेखर भी जा चुका था. किन्तु इन चार दिनों में अगर बुआ के शब्दों में कहूँ तो शेखर नाम का संक्रमण हमारे पूरे परिवार में फैल चुका था. पापा उससे बेतरह इम्प्रेस थे. इसकी एक वज़ह और भी थी. उसने पापा को सजेस्ट किया था कि कौन-कौन से अलबम्स के ज़रिए वह बेग़म अख्तर और बड़े गुलाम अली के अपने कलेक्शन को पूरा कर सकते हैं. पापा की नज़रों में ‘ही वाज अ मैन ऑफ़ एक्सलेंट टेस्ट.’ छोटी तो जैसे उसकी पक्की मुरीद बन गई थी – दीदी, ही इज अमेज़िंग. नो?’
फिर कभी-कभार मैं उसे ख़त लिखने लगी. मेरी ज़्यादातर चिट्ठियों में मेरी फरमाइशें हुआ करतीं. मसलन कभी कोई दुर्लभ-सी पुस्तक, कभी किसी प्रोफ़ेसर के नोट्स और कभी एजुकेशनल ट्रिप पर पर जाने के लिए कैमरा…वगैरह-वगैरह. शुरू-शुरू में तो उसका ज़वाब बहुत मुख़्तसर सा होता. फिर धीरे-धीरे खतों की लम्बाई बढ़ने लगी. उन खतों में अकसर एक जैसी ही बातें लिखीं होती. सबसे पहले मेरी हौसला अफज़ाई के लिए लिखे गए कुछ बेहद असरदार अल्फाज़, उसके बाद यह सूचना कि फलां मैगज़ीन के फलां अंक में उसकी कविताएँ आ रही हैं और ख़त के अंत में कुछ गोल-मोल उलझे से मगर खूबसूरत जुमले जिन्हें लाख माथापच्ची के बावज़ूद मैं उन दिनों कभी नहीं समझ पाई. इस पूरे प्रकरण में मेरे लिए यदि कुछ स्पष्ट था तो केवल यह कि जाने-अनजाने मुझे उसकी चिट्ठियों का इंतज़ार रहने लगा था. …क्यों? तब इस प्रश्न का उत्तर भी मेरे लिए कठिन था. निहायत खूबसूरत लिखावट में लिखे गए और कविताओं-सी कोमलता समेटे वे ख़त जिन्हें मैंने आज भी सहेज कर रखे हुए हैं और जो पहले की तरह आज भी निराशा के क्षणों में मेरे भीतर ऊर्जा और उत्साह का संचार कर देते हैं. ये वो दिन थे जब मैंने पहली-पहली बार यह महसूस किया कि मेरी सोच पर किसी और की शख्सियत काबिज़ होती जा रही है. ये वो दिन थे जब मैं लेटरबॉक्स को ख़ाली पाकर लौटती और बिस्तर पर लेट कर दिलराज कौर को सुनती – “ तुम्हें हो न हो, मुझको तो इतना यकीं है… मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है.” … ये वो दिन थे जब मेरी तथाकथित तर्कबुद्धि जिन चीजों को रिजेक्ट करना चाहती थी, मेरा अंतर्मन उसे मान लेने के लिए अमादा था. ये वो दिन भी थे जब जब मैं अपने ही कानों में बुदबुदा कर कहना चाहती – “ प्रीति डियर, ही सीम्स टू बी इन लव, एंड सो आर यू. दैट टू एट दी एज ऑफ़ ट्वेंटी टू”. …और फिर अपना ही सर झटक देती. ‘नो डियर, यू कांट फॉल इन लव, दैट टू एट दिस एज.’
… मेरा अंतिम वर्ष चल रहा था. उसी साल कॉलेज की गोल्डन जुबली भी थी. पूरे महीने भर तक स्पोर्ट्स, डिबेट, ड्रामा, सेमिनार और म्यूजिकल प्रोग्राम चलते रहे थे. जुबली कमिटी की चेयरपर्सन उपाध्याय मैडम ने एक दिन हम सब को बुला कर कहा, “गोल्डन जुबली सोवेनियर के लिए तुम सब चाहो तो अपनी कहानी-कविताएँ या कोई आर्टिकल्स दे सकती हो.” दूसरे दिन से ही हम सब लडकियाँ अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हो गईं थी. मैंने अगले ही दिन शेखर को एक चिट्ठी लिख दी, ‘अपनी कुछ कविताएँ इस इजाज़त के साथ भेज दें कि मैं उन्हें अपने नाम से छपा लूँ.’ ज़वाब में हफ्ते भर बाद ही कुरियर से एक भारी-सा पैकेट आया. खोलकर देखा तो शेखर की कविताओं की डायरी थी साथ में एक छोटा-सा ख़त भी था – ‘अब तक जो कुछ भी लिखा है, सब भेज रहा हूँ. अपने पसंद की कविताएँ आप खुद सेलेक्ट कर लें और बेफ़िक्र रहिए मैं भूल जाऊंगा कि उन्हें मैंने लिखा था.’ उन कविताओं को पढने के बाद एक अजीब-सी उदासी मन पर छा गई. अंतरात्मा को लगा कि मुझे न तो यह हक़ है कि सोवेनियर में छपा कर इन कविताओं को जाया करूँ और न ही किसी और की संवेदना और अहसासों को मुझे अपना कहने का अधिकार है. मन जैसे अपराध-बोध तले दब सा गया. दूसरों की तरह मैंने भी शेखर का इस्तेमाल करने में कोई कसर कहाँ उठा रखी थी. मैंने तो उसके जज़्बातों को सजावट की चीज समझने की अक्षम्य भूल की थी. अजीब कशमकश की स्थिति थी लेकिन इतना तय था कि उस शाम मैं बहुत अकेली थी. बहरहाल शेखर की कविताओं का कर्ज़ मुझपर चढ़ते-चढ़ते रह गया. लेकिन, जब तक उसकी डायरी हॉस्टल में मेरे पास रही, इस कमरे से उस कमरे में घूमती रही. अबकी बार जब बुआ के घर जाने लगी तो मेरी रूममेट ने ज़रा झिझकते हुए अपना ऑटोग्राफ बुक मेरी तरफ बढ़ा दिया था – ‘प्रीति, प्लीज हो सके तो शेखर से इसमें कुछ लिखवा लेना.’ मैंने मन ही मन सोचा, जिसे कभी देखा तक नहीं उसका इतना क्रेज़!
फरवरी के उखड़े-उखड़े से दिन थे. मेरी परीक्षाएं ख़त्म हो चुकी थीं. इस बार हॉस्टल से आख़िरी रुखसती थी. पापा खुद मुझे लेने आये थे. आत्मीय सहेलियों का बरसों पुराना साथ छूट रहा था लेकिन तसल्ली भी थी कि अब घर का आबोदाना मयस्सर होगा. पापा का नया बंगला काफी बड़ा था. चारों ओर बड़ा सा अहाता और भीतर साये की तरह मंडराते फिरते बस हम चार लोग. पापा की नई पोस्टिंग होने की वज़ह से हमारी जान-पहचान भी नहीं बढ़ी थी. दिन भर लेटे-लेटे या तो ‘ओल्ड हिट्स’ सुनती रहती या फिर सहेलियों को लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखती रहती. माँ किचन में बिज़ी रहती, पापा ऑफिस में और छोटी पढाई में. कुल मिला कर सब कुछ बड़ा सुस्त सा चल रहा था. रोज़ किसी ऐसी बात का इंतज़ार करती रहती जो इस ठहराव को हलके से छू देती और ज़िंदगी ज़रा रफ़्तार पकड़ लेती. मेरी दुआ ज़ल्दी ही सुन ली गई. एक सुबह छोटी ने मुझे झिंझोड़ते हुए जगाया – “ज़ल्दी उठो, देखो बाहर कौन आया है? शेखर भाई !”
पहले तो विश्वास नहीं हुआ कि इस मनहूस ज़गह कोई क्यों आएगा लेकिन जब कमरे से निकली तो देखा कि शेखर सचमुच हॉल में पापा के साथ बैठा चाय पी रहा था. पता चला कि वह किसी दोस्त की शादी में शामिल होकर वापस लौट रहा था. वापसी में बस इसी रास्ते से होकर गुजरी तो हम सब से मिलने के ख्याल से यूँ ही उतर गया. पता नहीं शेखर के आने में कोई जादू था या उस नयी ज़गह से हम बेतरह ऊबे हुए थे लेकिन यह बिल्कुल सच था कि उसके आ जाने से हम हम सब खुश थे – पापा से लेकर छोटी तक. छोटी ने तो उससे बजाप्ता कमिट करा लिया, “शेखर भाई, आप कम से कम पंद्रह दिन रुकेंगे.’
शेखर के आ जाने से घर की जड़ता अचानक पता नहीं कहाँ गायब हो गई. वही सुबहें थीं मगर उनमें कितनी ताजगी थी, वही दिन थे लेकिन उनमें कितनी गहमा-गहमी थी, वही शामें थीं लेकिन कितनी खुबसूरत और ज़हीन. दिन का एक-एक पल मानो मन को छू कर गुज़रता था. कोई पल व्यर्थ नहीं – सब हमारे लिए हमारी मर्ज़ी से. हम दिन भर गप्पें मारते, ताश या कैरम खेलते और पूरे अहाते मे बेवज़ह चहलकदमियाँ करते. शेखर के ‘पेंडोरा बॉक्स’ में हर किसी के लिए कुछ न कुछ ज़रूर था. एक सुबह सोकर उठी तो उसे किचन में भिड़ा देखा. पता चला कि ‘शेफ दी ग्रेट’ माँ को करेले में फिश की स्टफिंग करने की तरकीब बता रहे थे. किसी शाम पापा के साथ पिछवाड़े में सूखी लकड़ियों को सुलगा कर मेरिनेट किए हुए चिकेन क्यूब्स और पनीर को ‘बार्बेक्यू’ किया जाता. फ़ौरन बात समझ में आती कि आज पापा ने ड्रिंक्स के लिए किचन से सलाद, नमकीन या फिंगरचिप्स क्यों नहीं मँगाया. रात की गपशप खाने की मेज से शुरू होती और धीरे-धीरे सरकती हुई हॉल तक पहुँच जाती. फिर सबसे पहले माँ उठती, दस-साढ़े दस तक पापा भी उठ जाते और अंत में छोटी उबासियाँ लेती हुई वहीँ सोफे पर ही पसर जाती. बच जाते सिर्फ़ हमदोनों – मैं और शेखर. हमारी बातचीत फिर भी चलती रहती.
“शेखर, यू आर ए बंडल ऑफ़ एनर्जी, आय एम रियली जेलस ऑफ़ यू” — मैं कहती.
“पता नहीं, पर लोग कहते हैं कि मै हु-ब-हु अपने बाबूजी की तरह हूँ, … उन्हीं को ‘इमिटेट’ करता हूँ. प्रीति, तुमने तो लाइफ साइंस पढ़ा है. क्या सचमुच हमारे बिहेवियर का हमारे जीन से कोई सम्बन्ध होता है?” वह कह कर हँसने लगता.
“शेखर, तुम अगर अपनी थोड़ी सी बेफ़िक्री मुझे दे दो तो मुझे भी ज़िंदगी जीने का मज़ा आने लगे.”
“…. और तुम मुझे अपनी ज़रा सी संज़ीदगी दे दो तो मुझे कामयाबी का नुस्खा मिल जाएगा,” वह बात काट कर कहता.
“बट ए लिटिल सिंसियरिटी इज अ डेंजरस थिंग,” मैं उसी की तरह हाज़िरजवाब होने की कोशिश करती.
“…. एंड ए ग्रेट डील ऑफ़ इट इज एब्सोल्यूटली फेटल” – वह अपने चिर परिचित मज़ाकिया लहजे में कहता और मैं निरुत्तर हो जाती.
हम इसी तरह बेसिर-पैर की बातें करते. ….या फिर बहुत देर तक यूँ ही चुपचाप बैठे रहते – बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने. कभी-कभी मुझे बहुत उत्सुकता होती कि उससे कुछ उसी के बारे में सवाल करूँ. फिर सोचती कि इस आदमी के जीवन में शायद ही कुछ अन्तरंग हो. कुछ धुंधले से सवाल होठों तक आते ज़रुर. किन्तु शब्दों की शक्ल धरे बिना बिला जाते. इसके बावज़ूद मैं दबी ज़ुबान से पूछ ही बैठती – “बबली तो अच्छी लड़की है शेखर…”
“ प्रीति, मेरे कुछ एथिक्स हैं और मैं उनके खिलाफ़ नहीं जा सकता.” अपनी आदत के मुताबिक वह बात काट देता और सोने के लिए पापा की स्टडी में चला जाता. उसके चले जाने के बाद भी मै थोड़ी देर तक बैठी रहती फिर खूंटियों में टंगे उसके पुलोवर या कमीज को लेकर कुछ देर तक नाक से लगाए रहती. निकोटिन की गंध मुझे बहुत प्यारी लगती थी. लेकिन, अब मुझे लगता है कि शायद उस गंध के भीतर मुझे किसी और अंतर्गंध की तलाश थी.
शेखर जितने दिन रहा, समय के जैसे पंख लग गए थे. मगर इस बार वह आया तो ज़िंदगी को रफ़्तार पकड़ने के लिए जो ‘पुश’ चाहिए था वह मिल चुका था. चले जाने के बाद भी एक लम्बे समय तक शेखर हमारी स्मृतियों में छाया रहा. छोटी तो उसको लेकर इतनी पाजेसिव थी कि उसकी ‘शेखर भाई-शेखर भाई की अखंड धुन से हमसब आजीज आ चुके थे.
शेखर की चिट्ठियाँ बदस्तूर आती रहीं. कभी-कभी पापा के नाम लेकिन ज़्यादातर छोटी के नाम. मेरे नाम तो भूले-भटके भी नहीं. मुझे तो वह मेरे ख़त के ज़वाब में ख़त लिखता था. पढाई के साथ-साथ वे बहाने भी ख़त्म हो गए थे जिनको कारण बना कर मैं उसे चिट्ठियाँ लिखती थी. इसके बावजूद मैंने गौर किया कि छोटी को लिखे गए ख़त में आख़िर में कुछ खास ‘शेखर मार्का’ जुमले होते जिनका कोई सरोकार छोटी से नहीं होता और जिनको समझ पाने के लिए छोटी सचमुच बहुत छोटी थी. मैं उन चिट्ठियों को आतुरता से तीन-चार बार पढ़ती लेकिन अंत में थक-हार कर उन्हें छोटी के ही हवाले कर देती. मुझे कोफ़्त होती थी कि आख़िर चिट्ठियों में शेखर इतना जटिल क्यों हो जाता है. बातें बगैर घुमाए-फिराए साफ-साफ भी तो कही जा सकती हैं. हर पल ‘इंटेलेक्चुअल’ होने का जुनून….
इस बीच दो बातें हुईं. मेरा रिजल्ट आ गया. स्पेशल पेपर में डिस्टिंक्शन के साथ प्रथम श्रेणी …. और इसके तुरंत बाद मेरी शादी तय हो गई. हेमंत सिडनी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट करके आये थे और बी.एच.यू. में असिस्टेंट प्रोफेसर थे. सबकुछ अचानक बहुत ज़ल्दी तय हो गया. पापा की संस्कारी बेटी होने का फर्ज़ निभाते हुए मैंने सबकुछ उन्हीं पर छोड़ दिया और तटस्थ बनी रही. वैसे भी मेरी नज़र में यह एक सामान्य सी घटना थी जो अमूमन हर एक लड़की की ज़िंदगी में घटती है. लिहाज़ा बेवज़ह रोमांचित होकर मैं उन लड़कियों में नहीं गिना जाना चाहती थी जिनके लिए शादी ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है. बल्कि पापा किसी को गर्व से जब यह बताते कि हेमंत को उनकी थीसिस के लिए गोल्ड मैडल मिला है और उन्हें ऑस्ट्रेलिया में ही कई बड़े ऑफर्स मिले थे तो मैं सशंकित हो उठती थी कि इतने पढ़ाकू और व्यस्त आदमी के साथ मेरा गुज़ारा हो पाएगा भी कि नहीं.
जैसा की हेमंत चाहते थे, हमारी शादी बड़ी सादगी के साथ हुई. उतने रिश्तेदार और मेहमान भी नहीं आ पाए जितनी कि दीदी की शादी में जुटे थे. और तो और, शेखर भी नहीं आया जिसके सबसे पहले आने की उम्मीद थी. उसके नहीं आने से छोटी मायूस थी और पापा खफ़ा. आख़िरकार मैंने नेहा से पूछ लिया – “तेरे शेखर भाई बड़ी दुर्लभ चीज हो गए हैं इन दिनों?” लेकिन ज़वाब बुआ की तरफ से आया – “तुम सब ने तो नाहक़ उसे माथे पर बिठा रखा है. मैंने ऐसे ढ़ेरों शुभ चिन्तक देखे हैं जो मौसमी घास की तरह जब-तब उग आते हैं और जहाँ दाल नहीं गली वहां दोबारा कभी नज़र नहीं आते.”
‘दाल गलने’ से बुआ का क्या अभिप्राय था, यह मैं अच्छी तरह से समझ सकती थी लेकिन उनसे ऐसी ही ओछी बात की अपेक्षा थी. मैं आखिरी-आखिरी पल तक प्रतीक्षा करती रही. पता नहीं ऐसा क्यों लगता था की शेखर एक बार दिख भी जाता तो मेरा जाना ज़रा आसान हो जाता. कैसा ऋण था जिससे मै मुक्त होना चाहती थी. बहरहाल शेखर को न आना था, वह नहीं आया. उसकी गैर मौज़ूदगी ने मेरे सामने एक यक्ष-प्रश्न ज़रूर खड़ा कर दिया जिसका बोझ उठाए मैं हेमंत के साथ चल पड़ी. मगर आज फुरसत में दूसरे सिरे से सोचती हूँ तो लगता है कि शेखर की गैर मौज़ूदगी में ही मेरे उस प्रश्न का उत्तर भी था.
हेमंत को लेकर मेरे मन में जितने संशय थे, सब निराधार निकले. मैंने तो सोचा था कि वह हर वक़्त किताबों में डूबे रहने वाले अंतर्मुखी और गंभीर किस्म के व्यक्ति होंगें. लेकिन इसके विपरीत वे निहायत ज़िम्मेदार, खुशमिज़ाज और आज़ादख्याल आदमी निकले. उनके आडम्बरमुक्त स्वाभाव ने मेरे समस्त पूर्वाग्रहों को एक झटके में ध्वस्त कर दिया. जो भ्रम था, वह मन का था अन्यथा हेमंत में कोई कमी नहीं थी. उन्होंने तो मुझे वे तमाम खुशियाँ दिन जो उनके वश में थीं – अपना छोटा सा घर, प्यार और सम्मान, फुरसत और अंतरंगता के क्षण, एक प्यारा सा बेटा और इन सबसे ऊपर सोचने-समझने और निर्णय लेने की आज़ादी. प्रतिकार में मैंने भी उनके काम को पूरी तरज़ीह दी और कभी भी उनकी व्यस्तता में अकारण हस्तक्षेप करने का प्रयास नहीं किया. हमारी छोटी सी दुनिया में हम सबके लिए पर्याप्त ऊष्मा, नमी, हवा और रोशनी थी. मगर इस सबके बावज़ूद मैं शेखर को अपनी याद से पूरी तरह कभी नहीं उतार पाई. मैं कह नहीं सकती यह किस हद तक सही था लेकिन शेखर को नहीं भूल पाने का मतलब मेरे लिए हेमंत के प्रति निष्ठाहीनता हरगिज़ नहीं थी बल्कि उस व्यक्ति के प्रति एक ईमानदारी थी जिसने मेरी जिंदगी को एक दिशा और मेरी सोच को एक सकारात्मक मोड़ दिया था.
शेखर ने एक बार मुझे लिखा था – “प्रीति, चार्ल्स डार्विन के ‘सरवाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट’ के सिद्धांत पर ज़िंदगी जी तो जा सकती है लेकिन उसे समझने के लिए चार्ल्स डिकेन्स की ‘ए टेल ऑफ़ टू सिटीज’ को ही पढना होगा.” आज अगर वह मिल जाता तो मैं उसे बताती कि मैंने उसकी बात मान ली थी. इन गुज़रे सालों में मैंने सब पढ़ डाला था – चार्ल्स डिकेन्स, थॉमस हार्डी, जेन ऑस्टिन, आयन रैंड से लेकर टैगोर, शरत, महाश्वेता तक. हेमंत कहते हैं, किताबें वक़्त काटने का अच्छा ज़रिया हैं. मगर मैं सोचती हूँ, किताबें हमारे भीतर वह सलाहियत डालती हैं की हम जीवन के सच को उसकी सम्पूर्णता के साथ स्वीकार कर सकें. तभी तो मैंने शेखर को चाहा था – कल चाह कर भी यह कुबूल नहीं कर सकी थी, और आज अगर चाहूँ भी तो इस सच से इनकार नहीं कर सकती. छोटी को चिट्ठी में बर्नाड शॉ को उद्धृत करते हुए कभी शेखर ने लिखा था- ‘देयर आर टू ट्रेजेडीज इन लाइफ. वन इज टू लूज योर हर्ट्स डिजायर, दी अदर इज टू गेन इट.’ आज महसूस होता है इन मामूली सी बातों का सूक्ष्म यथार्थ समझने के लिए कितने तज़ुर्बों से होकर गुज़रना पड़ता है.
…..धीरे-धीरे सात साल गुज़र गए. इस दरमियान कितना कुछ बदल गया. हेमंत एसोसिएट प्रोफ़ेसर बन गए. आए दिन अख़बारों में उनके कॉलम आते रहते हैं जिनकी कतरनें जमा करना मेरा प्रिय शगल है. हेमंत पति के रूप में…और, मेरे बेटे के पिता के रूप में मुझे कभी कम नहीं पड़े. शेखर इतने दिन कहाँ रहा, मैंने कोई ख़बर लेने की कोशिश नहीं की. मैं यह भी नहीं जान पाई कि एक अलग क़िस्म का संसार रचने, एक अलग तरह की दुनिया देखने का उसका स्वप्न क्या हुआ? फिर भी, उसके अस्तित्व और व्यक्तित्व को लेकर कोई तो जादू था जो टूटता नहीं था. हाँ, पापा की चिट्ठी से यह ज़रूर पता चला कि वह सिविल सर्विसेज के लिए चुन लिया गया था. और फिर… सात साल, तीन महीने और चौबीस दिन बाद वह फिर मिला. बिल्कुल उसी अंदाज़ में. छोटी की शादी थी और हम आमने-सामने थे – मैं, डॉ. हेमंत कुमार की धर्मपत्नी श्रीमती प्रीति कुमार और वह, शेखर शरण, राज्य सरकार के अंडर सेक्रेटरी. अबकी बार मेरे पास ढेरों बातें थीं उससे करने को. इसी दिन की प्रतीक्षा में तो उन्हें अब तक सहेजती रही थी. मगर शेखर? वह तो जैसे इसी फ़िक्र में था कि कब हम टकरा जाएं और कब एक-दूसरे की खैरियत पूछने की रस्म निभे. छोटी के लिए यह सर्जन लड़का शेखर ने ही सुझाया था और बात पक्की करने के लिए भी उसने पापा के साथ अच्छी-खासी दौड़-धूप भी की थी. पापा सचमुच खुश थे. आख़िर रिटायर होने से पहले उनकी ज़िम्मेदारियाँ ख़त्म जो हो रही थीं. दो-तीन दिन तो शादी की गहमा-गहमी में ही निकल गए. शादी की पूरी ज़िम्मेदारी जैसे हेमंत और शेखर के ही माथे थी. दोनों एक-दूसरे से मिले भी ऐसे गोया उनकी पुरानी जान-पहचान हो. किसी बात पर जब दोनों एक-दूसरे के हाथ पर हाथ जमा कर हँसते तो उनके ओहदे ज़मीन पर औंधे गिरे धूल चाट रहे होते. छोटी का दूल्हा सचमुच बहुत अच्छा था. विदा होते वक़्त वह शेखर से लिपट कर ख़ूब रोई. उस वक़्त शेखर की डबडबायी आँखें देख कर मुझे छोटी के साथ-साथ उसके प्रति भी बहुत अनुराग उमड़ आया था.
दूसरे रोज़ शाम के वक़्त हम सब साथ बैठे थे. पापा अभी तक बहुत द्रवीभूत थे. कुछ तो छोटी के विछोह में और कुछ शेखर के सहयोग के कारण.
“शेखर, कभी हमारे गरीबखाने भी आओ.” उसे चाय बढ़ाते हुए मैंने कहा.
“हाँ-हाँ, बल्कि अगले ही महीने आइये.” हेमंत ने भी अपनी तरफ़ से ज़ोर दिया.
“ज़रूर आऊंगा प्रीति. आख़िर अपने पापों के निवारण और मोक्ष के लिए काशी से बेहतर कौन सी जगह हो सकती है. क्यों प्रोफ़ेसर साहब?” उसने हेमंत से मुख़ातिब होकर हँसते हुए ज़वाब दिया.
“और, अब तुम्हें शादी करके सैटल भी हो जाना चाहिए. भटकते फिरने की भी एक ऊम्र होती है.” मैंने ज़रा गंभीर होकर कहा.
“अग्रीड.. पर क्या करूँ प्रीति… लड़की का घोर संकट है. तुम्हीं ढूँढ दो कोई, जो टॉलरेट कर सके मुझे.” बात का रूख मोड़ने के अपने चिर-परिचित अंदाज़ में उसने ज़वाब दिया. मैं समझ गई, उससे सीधे-सीधे कुछ कहवा लेना आज भी उतना ही दुरूह था.
अगली सुबह शेखर जा चुका था. मैं जान भी नहीं पाई. कहने के लिए फिर से बहुत कुछ आधा-अधूरा रह गया था.
….. सुना है, इन्द्रधनुष की तरह प्रेम के भी सात रंग होते हैं लेकिन जब प्रेम का आवेग बहुत तीव्र होता है तो सातों रंग एक-दूसरे में मिल कर रंगहीनता का आभास देते हैं. इसीलिए अत्यंत ऊष्ण क्षणों में हम अकसर प्रेम को देख नहीं पाते! हम समय रहते अपने अहसासों को पहचान नहीं पाते, जबकि हम प्रेम कर रहे होते हैं. और, जो इत्तेफ़ाक़न पहचान भी लेते हैं, तो उनका तथाकथित ‘एथिक्स’ शायद उनके आड़े आ जाता है. बहरहाल जाने से पहले मैं शेखर से बस इतना भर कहना चाहती थी कि तुम्हारे सभी खतों में तुमने जो लिखना चाहा था और नहीं लिख पाए और उनके जवाब में मैंने जो कहना चाहा था और नहीं कह पाई, उसका एक सहज उत्तर है मेरे पास. बहुत सोच-समझ कर और भावुकता को दरकिनार कर मैंने अपने चार साल के बेटे का नाम रखा है – “शेखर.’ …हे अग्नि, वरुण, धरा, वायु, गगन ! मैं हेमंत की हूँ, ताउम्र उन्हीं की रहूंगी. लेकिन…. कमबख्त इस ‘शेखर’ नाम की दिमागी ख़लिश का क्या करूँ ?