मेरे शहर दबे पांव आयीं और वापस चली गयीं।
यह पूछने पर कि तुम कहां हो, तुमने बड़ी आसानी से कह दिया कि दिल्ली में। सुबह पहली फ्लाइट से गई थी और शाम अपने शहर वापस आ गईं-शाम की फ्लाइट से।
‘इतनी जल्दी ?’
‘हां! सुबह दस बजे से दो बजे तक सेमिनार था। लंच करने के बाद सीधा एयरपोर्ट और शाम को अपने घर।’
इस शहर में तुम्हारे आगमन से मैं अवाक् था। क्या मैं इसे तुम्हारी बेवफाई का नाम दूं या तुम्हारी दिल नवाजी का। माना कि तुम राजनैतिक पार्टी के महिला सेल की प्रमुख हो- और तुम्हारी तमाम व्यस्ततायें हैं। इसके बावजूद मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी । तुमने एक बार कहा था-मुझसे कि मैं तुम्हारे शहर एक बार जरूर आऊंगी और रहूंगी तुम्हारी मेहमान बनकर। मगर, तुम्हारा इस तरह आना होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी।’
एक दिन तुम्हीं ने कहा था, मेरे कानों में फुसफुसाते हुए- ‘हुजूर! मेरे लिए क्या करेंगे-आप जब पहुंचूंगी आपके शहर।
यह सुनकर सारा रोमांच उमड़ आया था मेरे बाहर, जो महीनों से रच-बस रहा था मेरे भीतर।
‘तुम्हारे लिए पलकें बिछाकर देखूंगा तुम्हारी राह। इसी फाइव स्टार होटल में रुकने का होगा तुम्हारे लिए खास इंतजाम…और…।’
‘मैं सिर्फ तुम्हारी दिल्ली घूमना चाहूंगी। लोटस टैंपल, लाल किला, कुतुब मीनार, कनॉट प्लेस।’
‘तुम आओगी तो अमीर खुसरो और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह भी ले जाऊंगा। इनके दर्शन के बगैर तुम्हें वापस जाने कैसे दूंगा।’
‘गालिब की हवेली?’
‘हां! ठीक कहा तुमने। इसे देखे बिना हिन्दुस्तान की रवायत पूरी नहीं होती।’
और यह कह कर तुम जोर से हँसी थीं कि मोबाइल के स्पीकर के डायफ्रॉम फटने को हो चले होंगे। पर इतने से इस आधुनिक फोन का कुछ बिगड़ता भी नहीं। गर बिगड़ भी जाता तो इससे क्या होता। ज्यादा से ज्यादा दो-चार दिन हम बात न कर पाते या फिर ईमेल, वॉट्सएप, मैसेज आदि भेज न पाते-बस।
मगर ये होना भी अनहोना होता कि तुम आकर भी जैसे नहीं आईं थीं और वर्षों से किया गया इंतजार, एक झटके के साथ निराशा में तब्दील हो गया।
तुम मेरे शहर आई थीं, इस पर विश्वास नहीं होता। और बिना किसी इत्तला के वापस चली गईं।
इतनी बेफिक्री के साथ यह सब कैसे कर पाई होगीं तुम-कुंतल, मुझे आश्चर्य होता है और थोड़ा-थोड़ा अफसोस भी। यह तो मैंने सोचा भी नहीं था। एक समय था जब मेरी सांसों के बगैर तुमको अपनी एक सांस लेना भी मंजूर न था।
‘क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं आप?, कब लौटेंगे?, सैंकड़ों सवाल थिरकते रहते थे तुम्हारी ज़बान पर। मुझे भी लगता था- क्या जीना इतना आसान हो पाएगा तुम्हारे बिना?’
‘शायद नहीं। यही कहता था-मेरा हृदय। हमें एक-दूसरे की जरूरत है। एक-साथ रहने की, एक-साथ खाने-पीने और एक-साथ…उठने-बैठने की।’
‘नहीं…नहीं…यह कामना कभी पूरी नहीं हो सकती तुम्हारी-वेणु। तुम्हारी उम्र घास चरने की नहीं। घुड़साल कब के बिक चुके हैं और अब वहां कोई नहीं दिखायी देता, जुगाली करता अतीत भी नहीं।’
चलिये…छोड़िये…इस बात को भी। जवानी के दिनों वाले वायदे तो कभी पूरे नहीं होते- वचन निभाने का जब वक्त आता है तो भाग लेते हैं- उल्टी दिशाओं की ओर। हमारी उम्र तो अब गिरहबन्दी की जकड़न में रहने वाली चीज है। आधी उम्र तो बिता ही दी अपने-अपने घर-परिवार के बीच। तुम्हारे मन की दीवारों से अभी ठाकुर अजय प्रताप के नाखूनों के निशान नहीं गए होंगे। बीच-बीच में उठ ही आती होगी कोई हूक बेवजह उनके लिए। उनको स्वर्ग सिधारे हुए एक साल का वक्त भी नहीं बीता और तुम उनकी स्मृतियों के पिंजरे से निकलने के लिए फड़फड़ाने लगीं। मैं भी तो कम अहमक नहीं कि सुजाता के गुजर जाने के एक साल बाद मैं उस पंछी की तरह हो गया, जो अकेला था और अपने साथी के बिछुड़ जाने के बाद चिचया रहा था। यह महज संयोग ही नहीं, शायद यह वक्त की सोची-समझी रणनीति थी कि दोनों की रचनाएं एक पत्रिका में एक-साथ छपीं और हमने एक-दूसरे को रचना पसंदगी का मैसेज कर डाला। यह मैसेज मामूली नहीं था। मामूली होता तो हमारे तार झंकृत नहीं होते। दिलों की धड़कनें न बढ़तीं। और इस तरह हम अचानक नजदीक न आ गए होते।
किसी को बगैर मुलाकात के भी बढ़ सकती है चाहत एक-दूसरे के प्रति और नजदीकियों को शब्दों में आसानी से समेट लेने की इच्छा जागृत हो सकती है- यह मैंने पहली बार ही जाना कि हवाएं आत्मा का संदेश केवल पहुंचाती ही नहीं, सुबह, दोपहर और शाम-परस्पर बातचीत का माहौल भी बनाती हैं। और एक दिन तुमने पूछ ही लिया था- ‘तुम क्या मेरा साथ दोगे?’
‘हां, साथ तो मैं दे ही रहा हूं- ‘दोगे’ का कोई सवाल नहीं।’ मैंने यह जानते हुए सप्तपदी की पहली पंक्ति दुहराई थी। ‘अगर किसी को विश्वास देते हो- या किसी को जीवन के प्रति आश्वस्त करते हो तो उसे कभी धोखा नहीं देना।’
‘मैंने कभी धोखा नहीं देने की कसम खाई थी मन ही मन। मंडप में अग्नि के फेरे तो हम दोनों ले ही चुके थे- अपने-अपने बीते समय के साथ। अब किसी के साक्ष्य की जरूरत भी नहीं- हम दोनों को- शायद।’
फिर वह कौन सी चीज थी जो हम दोनों को करीब लाने में बाधक बनी हुई थी। तुम फ्रीलांसर…क्रिएटिव पत्रकार…बच्चों के साथ बंधी हुई सी, बल्कि जकड़ी हुई सी रहती सदा, सम्भवतः यह तुम्हारी नियति थी। तुम कितना भी भागतीं तुम्हें कोई इतनी जल्दी छोड़ कैसे देता। दो बेटे और बहू…। इतना बड़ा घर, जिसकी खिड़कियों की धूल झाड़ते हुए सुबह से दोपहर निकल ही जाती, फिर कोई कैसे निकल पाता बाहर। एकदम मुश्किल। बेटा जब अपने काम पर चला जाता, तब तुम नॉर्मल होतीं। बहू के पांव भारी। उस बोझ से तुम स्वयं को बहुत बंधी हुई महसूस करती रहीं। फिर भी रस्सी तोड़कर भागने वाली धौरी गाय की तरह तुम्हारा मन चंचल बना रहता। याद है तुमने एक दिन कहा था- मेरे कंधे से सटकर- ‘क्यों जनाब। जब आऊंगी तुम्हारे शहर, तब क्या खिलाओगे मुझे।’
‘भला यह कहने की बात है- मैं तो जन्नत के तारे खरीद लाने की सोच रहा था। इस जहान में यदि अमृत-फल कहीं मिलता होता तो उसे भी तुम्हारी खिदमत में पेश करता। फिर कौन-सी चीज थी जो इस शहर में खाने को न मिलती। फिर भी तुम्हारा बच्चों की तरह मचलना अच्छा लगा था मुझे -‘ खाऊंगी तो सिर्फ किवी फल ही खाऊंगी, लाकर दोगे ना?’
‘अरे! यह कौन सी बड़ी बात हुई।’
वैसे तो सच यही था कि तुम्हारे पहलू में आकर पहली बार मैं किवी फल से वाकिफ हो रहा था। मैंने सोचा किवी में जरूर कोई खास बात होगी, जिसे तुम बेहद पसंद करती हो। उस दिन मुझे याद आया था- जून का वह महीना जब डेंगू से पीड़ित लोग अस्पताल में बकरी के दूध तथा किवी फल की गुहार लगा रहे थे। चिकनगुनिया जैसे नए रोग से पीड़ित रोगियों से दिल्ली के अस्पताल भरते जा रहे थे। लोग ठीक से यह समझ भी नहीं पा रहे थे कि मौतें किस खतरनाक बीमारी के कारण हो रही हैं- डेंगू से या चिकनगुनिया से। उस कठिन समय में लोगों को दो फलों का महत्व समझ में आया था। पहला, नारियल फल और दूसरा किवी। उन दिनों किवी के एक अदद फल की कीमत चालीस रुपये थी और पानी वाला एक नारियल ‘डब’ पचास से साठ रुपये देकर खरीदा जा रहा था। मैंने सोचा था कि जब तुम इस शहर आओगी तो तुम्हारे लिए एक पेटी किवी फल खरीद कर रखूंगा और तुम्हें भेंट में दूंगा। मैं क्या इतना भी नहीं कर सकता था तुम्हारे लिए।
हर वस्तु जो तुम्हारे इस्तेमाल के लिए बनी थी, उसे मैं पहले ही खरीद कर रख लेना चाहता था-तुम्हारे लिए। तुमने एक बार शॉल खरीदने की बात कही थी। कैसा शॉल चाहिए तुम्हें, मैंने पूछा था-एक दिन।
यह दिसंबर का अंतिम सप्ताह था। जनवरी आरंभ होते ही कड़ाके के ठंड वाले दिन आ धमकेंगे। स्वेटर-शॉल तो चाहिए ही था तुमको।
‘रंग कौन-सा पसंद है तुम्हें?’ मैंने पूछा तुमसे ।
‘मुझे काला रंग पसंद है।’ बहुत आग्रह के बाद बताया था- तुमने।
‘काला रंग मुझे भी पसंद है।’ मैंने तुमसे यह जानबूझकर कहा था कि तुम सोचो कि मैं कितना व्यग्र हूं तुम्हारी पसंद का शॉल खरीदने के लिए।
मैं खादी भंडार से शॉल खरीदने गया तो था जरूर, मगर काले रंग का शॉल पूरे स्टॉल में नहीं मिला। यह एक विचित्र संयोग था कि उस दिन खादी भंडार ही क्या, आसपास की दुकानों में भी काले रंग का कश्मीरी शॉल नहीं मिला। तब मैंने अपने बैंक अकाउंट से तुम्हें पैसे ट्रांसफर करने की बात कही थी।
और मैंने ऐसा किया भी था।
‘तुमने अपने अकाउंट में बढ़े हुए पैसे पाकर कहा था, ‘मैं धन्यवाद देकर तुम्हें शर्मिंदा नहीं करना चाहती।’
वाकई! यह मेरे स्वभाव के अनुकूल भी नहीं था कि मुझे कोई धन्यवाद कहे इस काम के लिए।
हालांकि यह प्रवृत्ति सापेक्षिक सिद्धांत के अनुकूल नहीं थी, जबकि उन दिनों जो मेरे मन में घटित हो रहा था, वह निरपेक्ष बिलकुल नहीं था।
उन दिनों मुझे कोई सुखद संसार अपनी ओर खींच रहा था, जिसकी मैं सिर्फ कल्पना ही कर सकता था। यदि तुम्हारे बारे में मेरे खयालात एकदम दुरुस्त नहीं थे तो इतने बिगड़े हुए भी नहीं थे कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करता। तुम एक बड़े परिवार की सुसंस्कृत आचरण वाली महिला ठहरीं। तुम्हारे लेखन तथा पठन-पाठन के प्रति मैं पूरी तरह आश्वस्त था। कविता, कहानी, संस्मरण और रिपोतार्ज- आदि तुम सभी विधाओं में लिख रही थीं-उन दिनों। तुम चित्रकार भी हो, यह मैंने बहुत बाद में जाना। जब एक दिन मेरे मित्र ने भारत भवन में तुम्हारी चित्र प्रदर्शनी के लगे होने की सूचना दी। तुम्हारी प्रतिभा से मैं हैरान था। तुमने कभी नहीं बताया कि तुम एक बेहतरीन पेंटर भी हो।
‘पेंटिंग मेरा शौक था कभी। वर्षों बाद कूंची उठाई थी मैंने, जिसका प्रतिफल थी यह चित्र प्रदर्शनी। ठाकुर अजय प्रताप सिंह नहीं चाहते थे कि मैं पेंटिंग करूं।’
‘लिखने तो देते थे तुम्हें?’
‘हां! लिखने की पूरी छूट थी मुझे। उनके राजनैतिक रसूख थे और वह मुझे अकसर राजनीतिक पार्टियों में शिरकत करने की सलाह दिया करते थे।’
‘जैसा तुम्हारे पति चाहते थे, वैसा ही करती थी तुम?’
‘जी, ऐसा ही समझो, उनका कहना था कि स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाना चाहिए। बचपन में मां-बाप के, जवानी में पति के और बुढ़ापे में संतान के अधीन। स्त्री को बांधकर रखना ही उचित।’
‘आज पति नहीं है- तो तुम पूरी छूट लेना चाहती हो?’
‘यह मत कहो कि छूट लेना चाहती हूं, कहो कि मैं छूटना चाहती हूं- इन सारे बंधनों से। बेटे-बहू मुझ पर कड़ी निगाह रखते हैं। वो तो मैं किसी तरह बात कर लेती हूं तुमसे मोबाइल पर।’
‘तुम्हारी दिनचर्या क्या रहती है?’
‘सुबह योगा की क्लास और शाम को सैर। क्लास से लौटकर घर का काम, फिर चाय-नाश्ता। शाम को ‘सदा चारिणी प्रभा मंडल’ की बैठक। यह होती है मेरी दिनचर्या।’
‘लिखने-पढ़ने और पेंटिंग के लिए कब और कैसे वक्त निकाल पाती हो?’
‘वह मेरे रात का वक्त होता है। रात नींद नहीं आती। कभी-कभी काट खाने को दौड़ता है- अकेलापन।’
एक दिन शायद इन्हीं परिस्थितियों से घबरा कर तुमने फोन किया था मुझे। आधी रात के वक्त।
‘न जाने क्यों बेचैन है तबियत मेरी।’
‘अकेले हो शायद इस कारण।’
‘तुम्हें कैसे पता कि मैं अकेली हूं।’
‘कल शाम तुमने ही तो बताया था कि सुबह बहू और बेटा इंदौर जा रहे हैं मौसी के घर।’
‘‘किसलिए?’ मैने पूछा था तुमसे।’
‘शादी अटेंड करने।’
इस वाक्य के साथ तुमने फोन काट दिया था मेरा या स्वतः कट गया था, इसका मुझे पता भी नहीं चला। उह समय मेरे भीतर पंखहीन विचार पनपा था यूं ही।
कुंतल हमारे शहर आने में असमर्थ है तो फिर मैं ही क्यूं नहीं पहुंच जाऊं उसके शहर। तुम्हें विस्मित करते हुए जब एक दिन में खड़ा हो जाऊंगा तुम्हारे सामने, तब कैसा लगेगा तुम्हें?
‘नहीं…ऐसा कभी मत करना वेणुगोपाल! मुझे शहर के सारे लोग जानते हैं कि मैं ठाकुर अजय प्रताप सिंह की बीवी हूं। कहीं भी पहुंचूंगी, लोग मुझे पहचान ही लेंगे।’
शोहरत भी बदनसीब हो सकती है, मैंने पहली बार जाना। इसका दूर तक आशय यह भी था कि मैं तुम्हारे शहर नहीं आ सकता या कहें कि मुझे जाना ही नहीं चाहिए कभी तुम्हारे शहर। मध्यवर्गीय परिवारों के बीच डिग्निटी का सवाल बना ही रहता है।
कुंतल की नाउम्मीदी मेरा स्थाई भाव बन चुकी थी। पिछले छह माह से आने वाले मैसेज, ईमेल और वॉट्सएप के शब्द-अंकन एक-एक पंक्तिबद्ध खड़े होकर मुझसे करते थे तरह-तरह के सवाल। फोन पर कनबतियां तुमने ही आरंभ की थीं। तुमने ही ईजाद किए थे मेरे लिए नए-नए संबोधन। मध्य युगीन संबोधनों की भाषा का इस्तेमाल बाअदब, बामुलाहिजा फरमाते हुए भी मुझे हिचक होती थी। मगर जब तुमने शुरुआत कर ही दी थी तो फिर कैसा परहेज।
‘कहिये हुजूर कैसे हैं मिजाज आपके?’
‘आपके ही खयालों में हूं।’
उन दिनों इतना होपलेस जवाब किसी भी जागरुक पुरुष के लिए निराशाजनक हो सकता था, पर यह मेरा दंभ ही था, जो इन संबोधनों को बड़े गर्व से सुन रहा था।
एक दिन जब सुबह से दोपहर तक तुमसे दुआ-सलाम नहीं हुई तो मैं चिंतित हुआ। भोर का वह सुप्रभात वाला संदेश और न नाश्ते के वक्त- सुबह भाप वाली केतली की चाय पीने का आह्वन। तुमने शाम 4 बजे हड़बड़ी में यह खबर दी थी- ‘आज रात 8 बजे ट्रेन से मंदसौर जा रही हूं।’
‘मंदसौर। किसलिए…?’
‘मामा के घर।’
‘कितने दिन के लिए?’
‘दो दिन के लिए- मेरे सरकार।’
‘मेरे सरकार!’ यह मेरे लिए एक अप्रत्याशित संबोधन था।
‘इतनी इज्जत क्यों बख्श रही मुझ नाचीज को।’ मैंने कहा था।
‘नाचीज नहीं हैं। आप मेरे लिए शहंशाह-ए-आलम हैं, मेरे हुजूर।’
इस कथन का क्या आशय हो सकता था- बताना था तुम्हें।
‘मेरी जरूरत बनते जा रहे हैं- जनाबेअली।’ तुम्हारी ओर से यह फिर एक नया संबोधन था।
कितना गहरा आशय है- इस संबोधन का। मैं जानता हूं- ये शब्द मैंने अपने कानों से सुने थे। फोन पर तैरते इन संबोधनों से मैं गौरवान्वित- तुम यदि उस समय की मनःस्थिति दरयाफ्त करते तो शायद एक्जेक्टली तुम्हें पता चल जाता। अब तो एक अरसा बीत चुका है तुम्हारे और मेरे बीच। पानी की पतली लहर थी जो दोनों को भिगोती रहती थी। अब वह लहर नहीं है। सूखा पड़ा है। हरियाते पत्तों की सतरें दूर-दूर तक दिखायी नहीं देतीं। मैंने कई बार अपने दिल को खरोंचा- रक्त भी नहीं निकला- अब। लगता है कि वह बूंद भी सूख चुकी है। एक वक्त था- तुम्हारे शब्दों के झरने से तन-मन आप्लावित रहता था। एक इन्द्रधनुष छिटका रहता था- मेरे अन्तव्योंम पर। एक उम्मीद थी कि शायद अकेलापन टूटेगा। मैं सोचा करता था कि क्या इस उम्र में भी इश्क हो सकता है क्या?
मैं खुद ही जवाब देता- हां! इश्क की कोई उम्र नहीं होती।
‘इसी आवेश में एक दिन मैंने तुमसे कहा था- तुम मुझे चाहिए इसी दम, इसी क्षण।’
‘इस उम्र में भी…?’
तुम्हारा प्रश्न कोई सोचा-समझा तीर नहीं था जो आघात पहुंचाने के लिए प्रयुक्त किया गया था।
यह बिल्कुल वाजिब सवाल था- साठ की उम्र और एक स्त्री की ख्वाहिश? क्यों नहीं भला।
जो स्त्रियां मर्दपन को चुनौती नहीं देतीं वे सहज ही इसके वलय में लिपट अंतरिक्ष की यात्रा का सुख-भोग करती हैं।
‘और यह कामुक पुरुष?’
‘उसे स्त्री का साहचर्य चाहिए। संभोग तो एक अन्तरध्वनि है जो बज भी सकती है और नहीं भी।’
‘स्त्रियां, पुरुषों से ज्यादा समझ रखती हैं। वे जल्दी व्यक्त नहीं होतीं। व्यक्त होने के लिए उन्हें वक्त वातावरण चाहिए।’
‘वातावरण पाकर ही स्त्रियां खोलती हैं- अपने मन के अवगुंठन। वे अवगुंठन की गांठ बांध कर रखती हैं। वे स्वयं परम भोग्या हैं। पुरुष का साथ मिले तो ठीक, न मिले तो भी ठीक।’
तुम ‘सदाचारिणी सभा मंडल’ की संचालक। पथभ्रष्ट होना तुम्हारे लिए नामुमकिन है। ऐसे कठिन समय पर तो बिल्कुल भी नहीं, जब सर पर बहू और बेटे के साथ-साथ आने वाले पौत्र का इंतजार हो।
पिछले दिनों तुम्हें बहुत सारे पुरस्कार भी मिले हैं। कविता, कहानी और गद्य-लेखन के साथ-साथ पेंटिंग के लिए भी पुरस्कार। पुरस्कारों से तुम्हारा दामन भर चुका है। तुम्हें पैसा चाहिए भरण-पोषण के लिए। वह तुम्हें मिल ही जाता है- फ्रीलांसिंग से। पुरस्कारों की राशि से बेशक किसी का जीवन नहीं चलता, लेकिन वे भविष्य के जीवन की डोर थामे रखते हैं। मौका पाते ही हिला देते हैं- कर पात्र और पैसे झरने लगते हैं।
‘तुम्हारे सान्निध्य का इरादा जन्मा था- कभी चुपके से। वह फलीभूत होता भी तो भला क्यों?’
फिर भी मुझे इंतजार रहेगा- तुम्हारा इस शहर में। कभी इस शहर आना तो बिना किसी सूचना के आना। वापस होना तो बिना बताये चली जाना। मत कहना कि मैं आयी थी- तुम्हारे शहर और शाम होते-होते लौट गयीं- अपने शहर। इस तरह तो मेरा आना नहीं होता- तुम्हारे शहर।
विधवा तुम और विधुर मैं। वैसे भी यह समाज परस्पर मिलने की इजाजत नहीं देता। उधर तुम बंधन में रहो और इधर मैं। दो शहरों के ध्रुवान्त कभी नहीं मिला करते- कुंतल।
हमें इंतजार करना है अपने-अपने फोनों पर किन्हीं अगले संदेशों का।
कुंतल! यह समस्या समाज की है या उन स्त्री-पुरुषों की, जिनके साथी खो चुके हैं और वे उन्हें इसी समाज के बीच ढूंढ लेना चाहते हैं।
आज का विचार
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।
आज का शब्द
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।