उसने बहुत बाद में बताया था मुझे कि वह लगातार 3 महीनों से मुझे हर शनिवार चैकअप के लिये आते जाते देखा करता था। गर्भभार से क्लान्त मैं, नन्ही अन्विता को ले अस्पताल जाया करती थी। एक दो बार उसने सहायता भी की थी बस में बच्ची को चढाने में। उसने यह भी बाद में बताया था कि वह उसी अवस्था में मुझसे आकर्षित हो बैठा था।” मुझे आप बहुत अकेली लगा करती थीं। लगता था कि कौन है इसका इडियट पति जो चैकअप के लिये अस्पताल तक साथ नहीं आता। मुझे लगा था कि कोई क्रूर सा आदमी होगा, जिसके चंगुल से आपको निकाल लाऊंगा।”
उसने अंतरंग होने के बाद बताया कि ”मैं दोनों बच्चों को साथ रख कर आपके साथ घर बसाने की कल्पना करने लगा था।”मैं हंसी थी आंखें बन्द करके, खुश थी कि अब भी किसी के दिवास्वप्नों में जगह मिलती है मुझे। वह भी दोनों बच्चों के साथ।” वीरेन्द्र, वह अंग्रेजी पिक्चर मैं ने भी स्टार मूवीज पर देखी है। पहली बात न तो मेरे पति कोई विलेन हैं, न मैं त्रस्त। आय एम हैप्पीली मैरिड! तब वे थे ही नहीं, नये प्रोजेक्ट के लिये गये हुए थे। नहीं तो उनसे ज्यादा चिन्ता मेरी कौन कर सकता है ” और उसका मुंह उतर जाता।बेटे के जन्म के बहुत दिनों बाद बल्कि दो एक सालों बाद जब उसने मुझे फिर बसस्टॉप पर पाया तो वह बदहवास सा मेरी ओर बढा था, ” अरे! आपकी कोई खबर नहीं मिली थी उस दुर्घटना के बाद।” पहले तो मैं ने पहचाना नहीं, बाल लम्बे बढा लिये थे उसने, मैच्योर सा लगा था।
” वो आप बस में चढते में फिसल गयीं थीं न… अस्पताल जाते वक्त। ”
ये कुछ लोग! कुछ सम्बन्ध चुपचाप आपकी जिन्दगी में आकर दाखिल हो जाते हैं, वैसे ही एक दिन चले जाते हैं अपने लौटते पैरों के निशान मन के ताजा गीले सीमेन्ट पर हमेशा के लिये बना कर। व पंख टूटी तितली या घायल चिरौटे की तरह आ बैठते हैं मन के आंगन में चुपचाप अपनी पीडा सहते.. आपकी पीडा से साधारणीकृत होते। आप सम्वेदनशील हो तो सहेज लेते हो उन्हें। क्या उन्हें सहेजने के लिये समाज की अनुमति जरूरी होती है? उनका निभाव तो मन के धागों का होता है, उससे किसी का क्या लेना देना? पर फिर भी वो सम्बन्ध बदनामी का जहर पीते मन के कोने में उगे रहते हैं अपने झरते पत्तों के साथ। तिरस्कार सहते हैं, कम बोलते हैं। आपके साथ रहते हैं, प्रत्यक्ष जीवन के समानान्तर तमाम अप्रत्यक्ष आपत्तियों के बावजूद वे प्रेम करते हैं आपसे। एक सम्वेदना भरी दृष्टि और सहानुभूति भरे स्पर्श की भूख होती है उन्हें।
मैं भी कितनी कृतघ्न हूँ, उसीने अस्पताल भेज कर मेरे दिये फोन नम्बर पर फोन किया था, सारे इनके स्टाफ के जूनियर्स, कलीग्स, सीनियर्स चले आये थे। बाद में ये भी आ गये थे। सीजेरियन हुआ और मैं ने कार्तिकेय को जन्म दिया। अरे! उस बात को तो डेढ साल बीत गया। मैं ने इसे धन्यवाद तक नहीं कहा।
” ओह उस वक्त आप न होते तो… शुक्रिया। मैं दरअसल चली गई थी कुछ महीनों इनके पास। फिर बच्चे।”
” मैं रोज अस्पताल आता था, बाहर से खबर लेकर चला जाता था।फिर आप गायब ही हो गईं।”
” सो नाइस ऑफ यू अं ।”
” वीरेन्द्र। यही नाम है मेरा। मैं सी टायप में रहता हूँ।”
” थैंक्स वीरेन्द्र।”
” बच्चे कैसे हैं। बडे हो गये होंगे।”
” हां तभी तो, मैं ने युनिवर्सिटी में एम फिल जॉइन कर लिया है।”
” यह अच्छा किया आपने।”
लोग घूर रहे थे एक सीनीयर इंजीनियर की पत्नी, एक मामूली टैक्नीशियन के जवान बेटे से बात कर रही है। आखिर कितना बडा है यह कॉपर टाउन ‘खेतडी? बात बनते देर लगती है क्या?
बस में रोज जाना होता,तीस किलोमीटर पिलानी। अन्विता को स्कूल के लिये भेज कार्तिकेय को आया के पास छोड फ़िर बसअब बस घर पर ही लेने आने लगी थी मुझे। मेरी उदासीनता देख वह मुझसे कम ही बोलता पर आंखें उसकी बोलतीं, खोजतीं थी और मैं खीज जाती थी। मेरा बिनबात का हितैषी यह जाने कहां से चला आया है। एक बार युनिवर्सिटी लाईब्रेरी में मिला।
” यहाँ कैसे?”
” एम्पलॉयमेन्ट न्यूज क़े पिछले पेपर देखने आया था। अपने ही कॉपर प्लान्ट में कुछ टैक्नीशियन्स की
वैकेन्सी है। पापा ने जिद की तो आ गया देखने।” उदासीन सा खाली आंखों से ताकने लगा।
” तुम क्या बनना चाहते हो?” मेरे अनायास प्रश्न पर अचकचा गया।
” कम से कम टैक्नीशियन्स नहीं बनना चाहता। उससे तो यह प्राईवेट फर्म की र्क्लकी ठीक है। ये दिन रात की शिफ्ट डयूटी, जी तोड मेहनत के बाद पापा को ही क्या मिल गया।”
” क्या क्वालीफिकेशन है वीरेन्द्र तुम्हारी?”
” एम ए इकॉनोमिक्स में किया है। छोडिये नाआपका एम फिल कैसा चल रहा है? कभी इस कैम्पस में हमारी धाक थी मैं आपको क्या कह कर बुलाऊं? मिसिज माथुर?”
” वैसे मेरा नाम रमा है।”
” अच्छा रमा जी, चलिये आपको चाय पिलाता हूँ। पास में एक थडी है उस पर बढिया चाय मिलती है।”
वहाँ कई लडक़े ” वीरेन बना! ” कह कर कई दादा टायप लडक़े जमा हो गये थे। मुझे अजीब लगा। उसने मेरा परिचय करवा कर उनसे कहा कि कभी मुझे कैम्पस में परेशानी न हो। मन ही मन मुस्कुरा दी थी मैं।
मैं ने पहली बार ध्यान से देखा। जीन्स – ढीले शर्ट के साथ हरी कढाई वाली राजस्थानी जूतियां, हल्के भूरे घने बाल, हल्के रंग की ही आंखें, ताम्बई हो आया गोरा रंग, भरे से होंठ वाला यह राजपूत लडक़ा औरों से बहुत अलग है।
एक रविवार की सुबह अविनाश के पास मिलने आने वालों की लम्बी कतार लगी थी। ज्यादातर कैम्पस के ही टैक्नीशियन्स और परमानेन्ट लेबर्स थे जो नये प्रोजेक्ट में होने वाले एम्प्लॉयमेन्ट के सिलसिले में अविनाश के पास अपने लडक़ों की सिफारिश लेकर आये थे। मैं ने खिडक़ी से उसकी झलक भी देखी। वह तनाव में अपने पिता के साथ सर झुकाये खडा था। मैं जानबूझ कर लॉन में आ गयी ताकि वह आश्वस्त हो सके कि मैं अविनाश को उसकी सिफारिश कर सकती हूँ। शायद उसे पता नहीं था वह मेरे घर आया है। मुझे देख कर चौंका फिर झटके से पिता को अकेला छोड क़र चला गया। मैं और उसके पिता दोनों अवाक् रह गये मैं अन्दर चली आई।
”अजीब अहमक है।”
दूसरे दिन वह फिर बस में मिला पर चुप रहा, मेरे साथ ही उतर गया युनिवर्सिटी गेट पर। कुछ कदम चल कर आगे बढा और एक अमलताश के पेड क़े नीचे खडा हो गया और अनायास शुरु हो गया,
” आपसे दोस्ती का फायदा उठाना मेरे उसूलों में नहीं है। छि: आप क्या सोचतीं कि मैं इसलिये आपसे सम्पर्क बढा रहा था। मुझे तो पता भी नहीं था आपने वहाँ शिफ्ट कर लिया है, और सर का प्रमोशन इस इम्पोटर्ेन्ट पोस्ट पर हुआ है।”
” वीरेन्द्र इतनी कैफियत की जरूरत नहीं है। पर मुझे खुशी होती अगर मैं कुछ कर पाती तुम्हारे लिये।”
” बस इतना ही बहुत है, कि आपने सोचा और कहा ।” कह कर मानो उसका गुबार खत्म हो गया था। मुझे अच्छा नहीं लगा कि जरा से अहम के पीछे वह एक भला सा अवसर खो रहा है। पर वह जिद्दी निकला। फार्म ही नहीं भरा।
अविनाश के पास सचमुच वक्त ही नहीं था, नये प्लान्ट के प्रोजेक्ट को लेकर। मेरे कॉलेज के काम वीरेन्द्र के ही जिम्मे हो गये जिन्हें वह बाखुशी करता। थीसिस टायप करवाना, टायपिस्टों के चक्कर काटना मेरे बस की बात नहीं थी। इन्हीं सिलसिलों के बीच मैं ने वीरेन्द्र के विद्रोही स्वभाव को जाना। ऊपर से अर्न्तमुखी सा दिखने वाला सौम्य वीरेन्द्र वहुत विद्रोही था, पिता के नजरिये से एक आम युवा की तरह नाराज घर का बडा बेटा था। पढने में औसत। बहुत कुछ कर गुजरने की चाह घर की परिस्थितियों में उलझ कर रह गई थी। एम ए करने के बाद पिता के तानों के चलते उसने एक प्रायवेट फर्म जॉईन कर ली थी र्क्लक के तौर पर और एनआईआईटी से इवनिंग कम्प्यूटर कोर्स कर रहा था। वहाँउसके साथ की लडक़ियां उसे चढाती थीं, ” वीरेन्द्र यू आर टीपिकल मॉडल स्टफ! यू लुक अलाईक मिलिन्द सोमन।”
उस अगस्त की हल्की धूप वाली दोपहर में वीरेन्द्र ने लाईब्रेरी के अहाते में मुझसे ये सारी बातें की थीं। उस दिन वही बोलता रहा था। उसके बाद कॉपर टाउन की बस के लम्बे दो घन्टे के इन्तजार में हम पिलानी के साइंटिफिक म्यूजियम में चले आये थे। अजीबो गरीब यंत्रों पर तरह तरह के खेल खेले, चढे उतरे। उन कुछ पलों में मैं अपनी उम्र की कितनी सीढियां उतर आई थी। उस गूंजते हुए बडे हॉल में वीरेन्द्र मेरी दोस्ती की हदें छू गया था। हालांकि हम में से कोई कुछ नहीं कह रहा था। पर न जाने कौन से सम्वेदन संचरित हो रहे थे कि मैं अपने ही उनमुक्त व्यवहार पर बार बार ठिठक कर भी, स्वयं को रोक नहीं पा रही थी। भूल गई थी कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा, स्वयं यह वीरेन्द्र क्या सोचेगा?
उन दो घण्टों में जो मैं थी उसे मैं घर आकर भी नहीं पहचान सकी। मानो समय से पहले वयस्क हो जाने से छूट गया मेरा वही बचपन था या बिन मां की बेटी के ब्याह की जल्दी में बी ए करते ही ब्याह देने की पिता की जिद के आगे झुकी अल्हडता थी। कुछ था जो अनजाना सा छूट गया था। जो अचानक वीरेन्द्र ने उठा कर पूछा था, ”यह आपका तो नहीं रमा जी? यहां गिरा पडा था।”
पर यह भी सच था कि घर पर भी मैं बार बार वीरेन्द्र के ही बारे में सोच रही थी। बच्चे बार बार मेरा ध्यान आकर्षित करते और मैं फिर सोचने लगती, ” आखिर है क्या यह लडक़ा? चाहता क्या है अपनी जिन्दगी से? ”
अगले कई दिन मैं सहज रही, वीरेन्द्र की सोच उपेक्षित रही। वह मेरे काम यूं ही करवाता रहा। किसी किसी दिन जब पिता से झगड क़र आता तो सारा आक्रोश मेरे सामने उतरता। मेंरी थीसिस की फाईनल टायपिंग वह अपने ही कम्प्यूटर इंस्टीटयूट से करवा रहा था, सो एक बार क्लासेज क़ैन्सल होने पर मैं अपने चैप्टर्स लेकर वहीं पहुंच गई।
मुझे नहीं पता कौनसी प्रेरणा थी या लम्बा खाली वक्त था, चाहती तो यह समय लाईब्रेरी में बिता लेती। पर अकेला पन जो न करवा ले वह कम है। उस पर सालों बाद मिली कॉलेज की आजादी और वीरेन्द्र बस पहुंच गई। वह चौंका था।
” रमा जी, यह जगह आपके लिये अनुकूल नहीं , अपने खेतडी क़े कुछ और लडक़े लडक़ियां भी यहाँ कोर्स कर रहे हैं। चलिये यहाँ से चलते हैं। वरना बिन बात बतंगड हो जायेगा। मेरा कुछ नहीं है आप।”
उस दोपहर में ठण्ड की खुनक थी धूप भली लग रही थी, वही साइंस म्यूजियम का हॉल। आज यंत्रों को छेडा भी नहीं मैं ने, सीढियां चढ उपर वाले हॉल में जा बैठे, विशाल खिडक़ियों की चौखट में। दोनों असमंजस में थे, क्या बात करते? कुछ असामान्य जन्म ले रहा था मन की नन्हीं नन्हीं खिडक़ियोंके नीचे।शायद वीरेन्द्र के लिये भी यह स्थिति कठिन थी। जब तक वह मेरा हितैषी था तब तक ठीक था, अब ये नया मोड लेती सी संभावना उसे उलझा रही थी। एकतरफा था तो ठीक था, ये दूसरी तरफ की खुलती झिरी
” ह्न तो क्या सोचा वीरेन्द्र? जिन्दगी का?”
” पता है रमा जी, कल सोच रहा था, इतना कहते हैं दोस्त तो चला ही जाऊं बॉम्बे, कोशिश में क्या हर्ज है? मुझे लगता नहीं है कि मैं क्लर्की या टैक्नीशियन बनने के लिये बना हूँ। मेरा टेम्परामेन्ट ही अलग है।”
” वीरेन्द्र! मुझे तो समझ ही नहीं आता तुम्हारा टेम्परामेन्ट, तुम बहुत उलझते हो।”
” आप शायद ठीक समझ रही हैं, पर मेरे भविष्य के प्लान्स को पापा ने कभी सर्पोट नहीं किया। वो बडा कुछ सोच नहीं पाते। हम जवानों के बेवकूफी भरे चोंचले मान बहस करने लगते हैं। थोडे पैसे जमा कर लूं फिर बॉम्बे जाऊंगा।पहले कुछ छोटी मोटी जॉब करुंगा फिर मॉडलिंग के लिये कोशिश करुंगा।”
” दैट्स नाईस।”
फिर एक लम्बी चुप्पी धूप के टुकडोंं से खेलती रही। मैं ठोढी घुटनों पर टिकाये उन प्रतिबिम्बों को देखती रही।
” आप बहुत सुन्दर हैं।”
अन्दर का ठहरा पानी, लहर लहर हो गया था।
” पर आप जब तब जब पहले मिली थीं ना आय मीन व्हेन यू वर प्रेगनेन्ट दैट टाईम यू वर मोर अट्रेक्टिव ।”
” ऐसा क्या? ” मैं हंसी। वह खुला।
” तब से आपको आज मैं रिलेट नहीं कर पाता। तब की आपकी उस छवि से मुझे अलग किस्म का अटैचमेन्ट था।”
” क्यों भई? ”
” तब आप अकेली थीं और सच कहूं तो मैं न जाने क्यों आपकी सुरक्षा में तत्पर आपका पीछा किया करता था।”
” किसलिये?”
” सच कहूँ?”
” हाँ ”
” बुरा तो नहीं मानेंगी? ”
” ना।”
” मुझे लगता आपका पति कोई गैरजिम्मेदार आदमी है। आपको अकेला छोडा है इस हालत में मैं कल्पनाएं करता कि उस दुष्ट और क्रूर व्यक्ति से आपको छुडा लाऊं और।”
” मेरी वो कल्पनाएं आपके उसी रूप से जुडीं और खत्म हो गईं।” मैं आंखें मूंद कर उसकी फंतासियों पर हंसी थी।
” ये सब मुझे पता नहीं था।
” पता होता तो?”
” तो। तब भी ऐसे ही हंसी आती।”
” रमा जी, वह मेरा पहला काल्पनिक आकर्षण था। आप उस पर कैसे हंस सकती हैं?”
उस दिन पहली बार वीरेन्द्र ने अंग्रेजी फ़िल्मों व अंग्रेजी साहित्य और पढी हुई ढेर सारी विश्व साहित्य की पुस्तकों तथा विश्व की आर्थिक नीतियों की चर्चा की तो मैं उसके इस छिपे अध्ययनशील व्यक्तित्व को जान हतप्रभ रह गई। सच ही यह लडक़ा क्लर्की या टैक्नीशियन बनने के लिये नहीं बना है।
” व्हाय डोन्ट यू प्रीपेयर फोर आई ए एस! ”
” ओह! माय गॉड। नहीं रमा जी मुझसे उस किस्म की पढाई नहीं होगी। आय एम नॉट एकेमेडिशियन।”
” मॉडलिंग एक अजीब सा कैरियर नहीं है? एक उथलापन नहीं होता वहाँ? ”
” होता हैऔर अभी कौनसी मैं ने वह दुनिया देख ली है? बस मैं यहाँ से भाग जाना चाहता हूँ। किसी भी बहाने इस घर से।”
” स्वयं को जिन्दगी के किसी खूबसूरत पहलू से जोडाे वीरेन्द्र, इतना भी बुरा नहीं यह शहर।”
” क्या बात करती हैं आप भी। आप सारी दुनिया घूम आने, दिल्ली जे एन यू में पढने के बाद, शादी के बाद अब मजे से कह सकती हैं इतना भी बुरा नहीं यह शहर। मैं ने तो बस गांव देखे हैं अपने ननिहाल के और ये खेतडी, पिलानी, झुंझनु ज्यादा से ज्यादा जयपुर बीकानेर देखा है। बहुत पहले बचपन में आगरा गया था ताजमहल देखने। सारी दुनिया बस किताबों में देखी। वो तो मम्मी जी की जिद से पापा ने पिलानी के अच्छे स्कूल में पढा दिया तो सोच डेवलप हुई नहीं तो टैक्नीशयन कब का बन जाता और गांव जाकर एक बच्ची सी बींदणी ले आता, घर बसाता। जैसा कि मेरा छोटा भाई कर चुका है।”
” वीरेऽ जाने कहां कहां से तो यहां बच्चे पढने आते हैं ”
” मेरी बात खत्म नहीं हुई और हाँ क्या यह मध्यमवर्गीय शहर विकास नहीं रोकता? आप ही को देख लो। माथुर सर से शादी नहीं करती तो कहीं प्रोफेसर होतीं, होतीं नाऽ जे एन यू के हाई फाई माहौल में अब ज्यादा से ज्यादा आप यहां के किसी कॉनवेन्ट में और इन्जीनियर्स की वाईव्स की तरह टीचर बन सकती हो।”
” माय गॉड वीरेन्द्रअब कितना बोलतेबहस करते हो। पहले पहले कितने चुप से इन्ट्रोवर्ट से थे। लो कान्फीडेन्ट।”
” अब आप मेरी दोस्त हैं।”
” इस गलतफहमी में मत रहनाऽऽ। दोस्ती के क्या मायने तुम बहुत छोटे हो। ए! सच कहो तुम्हारे छोटे भाई की तुमसे पहले शादी हो गई? और सच में बच्ची सी बींदणी” आज मैं ही उसे बोलने और उसके बारे में और जानने के लिये उकसा रही थी।
” और क्या? बी ए में तीन बार फेल होने के बाद पापा के कहने पर वह परमानेन्ट लेबर बना फिर टैक्नीशियन का कोर्स किया जब वह बीस साल का था तब ही उसका रिश्ता आया एक तेरह साल की लडक़ी का और शादी करदी। अभी कल परसों उसका गौना हुआ है। वह लाल गठरी सी घर में नाक सुडक़ती घूमती है और सुबह सुबह मेरे पैर छूने आती है तो मैं डांट कर भगा देता हूँ।”
मेरी हंसी ही नहीं थम रही थी। उस दृश्य की कल्पना करके। वीरेन्द्र जिस तरह बताता है, और मैं ने उसके पिता को देखा है, उस तरह वीरेन्द्र उस घर का हिस्सा लगता ही नहीं। जब से नौकरी लगी है तब से उसके रहने में एक आभिजात्य का ढंग पनपा है। अच्छे स्कूल की पढाई, स्वयं के प्रति सजगता, विकास की चाह उसे उसके घर की निम्नमध्यमवर्गीय भावना से ऊपर उठाती है। कई बार उसे देख कर मैं ही सोचने लगती हूँ, क्या सचमुच वह मिलिन्द सोमन नहीं लगता? उस पर कानों में सोने की मुरकियां उसमें अतिरिक्त आकर्षण नहीं भरतीं?
” तो छोटे भाई की शादी से पहले तुम पर दबाव नहीं था?”
” हाँ नहीं तो क्या, एक पूरा बैटल लडा है मैं ने। जीता भी। पर अब सब नाराज हैं। पापा तो बोलते ही नहीं। वैसे नारायण ज्यादा छोटा नहीं तीन साल छोटा है। रिश्ते वाले तो अब भी खूब आते हैं।”
” तो कर लो शादी।”
” शादी से नाराजग़ी थोडे ही है, कोई मिले तो…मेरे लायक।”
” जैसे?”
” समझदार, मैच्यौर जो मुझे संभाल सके” अब हम साईंस म्यूजियम के पीछे की सुनसान सडक़ की बैन्च पर बैठे थे। सूरज के उतरते ढलते प्रकाश की रुमानियत में उसके शब्दों में मैं थी…. या खाली मुझे ही ऐसा लगा।
” और।”
” और उसमें कुछ आपसा हो।” एक लम्बी चुप्पी के बाद वह बोला,” आप पहले क्यों नहीं मिलीं?”
” क्या होता?”
” होता क्या? मैं बेहतर व्यक्ति होता। शायद आपके तब कहने से आय ए एस भी बन गया होता।” कह कर उसने मेरी उंगलियों की पोर छू ली।
” अब जिन्दगी बना लो। अपना मनचाहा ही कर लो। न सही और कुछ अट्ठाईस साल के लडक़े को अब तो सैटल हो ही जाना चाहिये।”
” ठीक है बॉम्बे चला ही जाता हूँ। आप मुझसे सम्पर्क रखोगी? ”
” हाँ।”
उस दिन बातें करते करते शाम की भी बस गलती से छूट गई थी और मेरी चिन्ता का पारावार न था। घर में बच्चे अब तक आया के साथ होंगे। पति क्या सोचेंगे। बार बार युनीवर्सिटी, लाईब्रेरी फोन लगा रहे होंगे। उफ! क्या कहूंगी। मेरी जान निकली जा रही थी। मुझे अपनी इस गैरजिम्मेदाराना हरकत पर खीज हो रही थी। वीरेन्द्र अपने कलीग की मोटरसाइकिल ले आया, सर्दियों की शाम के साढे पांच बजे अंधेरा घिर आया था अगली बस आठ बजे शिफ्ट के कामगारों को लेजाने आती थी जो किसी तरह भी सूटेबल नहीं थी। चारा ही नहीं था, वीरेन्द्र के साथ बाईक पर ही जाना पडा। अजब मानसिकता थी।
जहां मन कहता बेवकूफ! कहां बह रही है? ये सब क्या है?
मन ही उत्तर देता: कुछ भी तो नहीं। महज दोस्त सा है, कितना छोटा है मुझसे। किसी से बात करली तो क्या?
फिर मन कैफियत मांगता: फिर ये उसकी देह से उठती जवान पसीने की गंध क्यों बहकाती है?
मन: नहीं तो! मुझे तो कुछ नहीं हो रहा।
मन: लोग क्या कहेंगे। इडियट? पति के सम्मान की तो परवाह कर। उसके विश्वास का मान कर।
मन: ओह! अब आगे से नहीं…कभी नहीं। वैसे गलत तो कुछ भी नहीं किया मैं ने। कभी सीमा नहीं लांघी।
मन: कितना वक्त लगता है सीमा लांघने में? आज उसकी बातें अच्छी लगती हैं। उसके प्रति सहानुभूति, उसका अलग तरह का व्यक्तित्व उससे जोड रहा है कल कोई नाजुक़ पल।
मन: नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा। यकीन मानो। मुझे उलझाओ मत यह महज एक जानपहचान है, दोस्ती भी नहीं है।
मन: देख लो!
” वीरेन्द्र यहीं रोक दो उस कोने में। यहां से पैदल चली जाऊंगी।”
पौने आठ बज गये थे पहुंचते पहुंचते आखिर पच्चीस किलोमीटर का रास्ता था। ये लॉन में गेट पर ही खडे थे। मुख पर कडा और चिन्ता का भाव था।
” अन्दर आओ रमा।” ठण्डा स्वर किसी तूफान का संकेत दे रहा था।
दोनों बच्चे साडी क़े आंचल से लिपट रहे थे।
” कहां गई थी गन्दी मम्मी?” ” मम्मी आप कहां रह गईं थीं। भैया बहुत रो रहा था। पापा ने कितना फोन किया।”
” रमा, तुमने आज मेरी जान निकाल दी होती। थोडी देर और नहीं आती तो मैं खुद पिलानी आता। पुलिस में रिर्पोट लिखवाता।तुम न युनिवर्सिटी में थीं, न लाईब्रेरी में। मैं ने वहां रहने वाले अपने एक सबोर्डिनेट को फोन किया। उसने ढूंढ डाला पिलानी शहर। ज्यादा हंगामा मचाता तो बदनामी सी होती मेरी। कहाँ थीं?” इनके तमतमाए चेहरे पर जहां आक्रोश था वहां मोह के आंसू भी थे। आवाज और शब्द लरज रहे थे।
” मेरी एक क्लासमेट का बर्थडे था। सोचा जल्दी फ्री हो जाऊंगी तो साढे पांच वाली बस से निकल जाऊंगी। पर बस छूट गई। फिर उसका भाई जब आया अपने ऑफिस से तो उसने छोडा।”
” फोन क्यों नहीं किया?”
” बाद में किया था, एंगेज आ रहा था।”
” आ ही रहा होगा। मैं यहां वहां पूछ रहा था। बच्चे कितना परेशान हुए। आगे से यह बर्थडे वर्थडे मत अटैण्ड करना। तुम्हें मैं जिद और तुम्हारे संतोष के लिये एम फिल करवा रहा हूँ। अन्यथा मैं नहीं समझता कि तुम्हें इस सब की जरूरत है इतने कष्ट उठा कर आरामदेह घर छोड क़र कोई समझदार महिला घर के बाहर नहीं जाना चाहती।”
यह एक उदार व्यक्ति बोल रहा था जो स्त्री की आजादी में विश्वास रखने का दिखावा तो करता है पर उसे अकेला छोडते मन ही मन कांपता है।
” मैं ने उस वीरेन्द्र के घर भी फोन किया था। पर वह भी घर पर नहीं था।”
आवाज जानबूझ कर ठण्डी व आवेग रहित बनाई गई थी। पर मैं जान रही थी कि उसके पीछे कहीं सन्देह जन्म ले चुका था।
” उसके यहां क्यों?”
” तुम्हीं ने बताया था कि तुम्हारे चैप्टर्स वही टायप करवाता है।तो लगा कि कहीं चैप्टर्स के चक्कर में उसके साथ ”
” नहीं नहीं, वह तो लाईब्रेरी में आता है तब कलेक्ट कर लेता है। वहीं दे जाता है।” मैं बेजा सफाई दे रही थी।
पर गडबड हो चुकी थी। रायता फैल गया था जिसे मुझे समेटना था। गृहस्थी मुझे प्यारी थी और वीरेन्द्र से एक निश्चित दूरी रखना तय कर चुकी थी मैं। रखी भी। वह परेशान था, घर पर कई बार ब्लैंक कॉल्स आये कई दिन तक। मेरी लिखित परीक्षाएं थीं सो थीसिस पर ध्यान न देकर मैं घर ही पर रह कर पढ रही थी। एक दिन दोपहर वह तीन चार ब्लैंक कॉल्स के बाद बोला।
” बात कर सकता हूँ।”
” हाँ। कहो।”
” कोई है घर में?”
” नहीं।”
” बच्चे।”
” वो खेल रहे हैं अपने कमरे में।”
” आप हो कहाँ?”
” यहीं हूँ। एग्जाम्स की तैयारी कर रही हूँ।”
” उस दिन कुछ हुआ था क्या, मेरे घर फोन किया था सर ने।”
” नहीं कुछ खास नहीं, उन्हें चिन्ता हो गई थी।”
” मैं जा रहा हूँ बॉम्बे।”
” कब? बस इसी मन्थ एण्ड में।”
” अच्छा।”
” आपको कुछ कहना नहीं है?”
” क्या कहूँ? आल द बेस्ट।”
” इतना फॉर्मल?”
” अपना ख्याल रखना।”
” जाने से पहले मिलना चाहता हूँ।”
” इम्पॉसिबल।”
” रमा जी! आप ऐसा नहीं कह सकतीं। आप नहीं मिलेंगी तो मैं घर आ जाऊंगा।”
” नहीं यह बेवकूफी तुम मत करना। इन्हें वैसे भी सन्देह है।”
” तो मिलिए न!”
” देखती हूँ।”
मैं नहीं मिली। उसका आकर्षण, उसका सम्मोहन उसके साथ रह कर उपजता था। यहां अपनी सतृंप्त गृहस्थी में मुझे उसके प्रति सहानुभूति तक न होती थी। पति की सुरक्षित बांहों के घेरे में मुझे कोई कमी नहीं महसूस होती। उनके प्रेम की संर्कीण रेशमी गिरहें भली लगतीं, लगता कि स्त्री को तो बंधन में ही सुख मिलता है। वह खुद तो विद्रोही और आज़ाद था ही। मुझे भी अपरोक्ष रूप से उकसाता कि मैं इस संर्कीण विचारों वाले परिवेश के छोटे दायरे में अपना कोई विकास नहीं कर रही।
मुझे उसके जाने की तारीख याद थी। उस महीने के अंतिम सप्ताह में ये शहर से बाहर गये थे। मौका था पर मैं नहीं मिलना चाहती थी उससे। जा ही रहा है तो अब क्या फायदा कोई मोह बांधने से। मैं बस उसके फोन की प्रतीक्षा में थी। पर रात ग्यारह बजे बॉलकनी की तरफ की खिडक़ी में खटखट हुई, मैं बाहर गई तो वही था, मैं चेतना शून्य।
” इतनी हिम्मत वीरेन्द्र।”
” सुनिये तो।”
” मुझे नहीं सुनना तुम जाओ।”
” ठीक है चला जाऊंगा।”
” तुम ड्रिन्क करके आ रहे हो?”
” हाँ, लेकिन पूरे होश में हूँ।”
” अच्छा अन्दर आकर बात करो।” उसे बॉलकनी में रुकने को कहकर मैं ने स्टडी को दरवाजा खोल दिया।
” ये कुछ किताबें आपके लिये। मेरे दोस्त का बॉम्बे का पता भी है।”
” इस सबकी जरूरत नहीं है वीरेन्द्र। अब अपनी जिन्दगी को देखो। मुझे बख्श दो।” खीज रही थी मैं।
” आप क्या सोचती हो? आज का सम्बन्ध है यह? मैं जब से आप प्रेग्नेन्ट थीं तब से आपको प्यार करता हूँ। करता रहता, आप मुझसे बात न करती तो भी। बदले में क्या चाहा मैं ने? कभी मांगा कुछ बोलो? कभी छुआ तुम्हें बोलो?” वह लडख़डा रहा था।
” धीरे बोलो वीरेन्द्र। तुम ऐसे मेरा जीवन ही बर्बाद कर दोगे। ये तो प्यार नहीं है।”
” ऐसा करना होता तो उठा ले जाता तुम्हें तभी, जब तुम्हारा वो लकी बास्टर्ड तुम्हें प्रेग्नेंट छोड क़र साईट पर रह रहा था। तुम्हें क्या पता ये अफसर साईट पर क्या गुल खिलाते हैं। घर पर बहाना बना कर।”
” वीरेन्द्रअब लिमिट क्रॉस हो गई, जाओ तुम।”
” जा रहा हूँ।” कह कर निकल गया तीर सा मैं प्रत्यंचा सी कांपती खडी थी। ये कौन से अवचेतन का रूप था उसका? कितना खतरनाक था वह सब जो इसने भीतर दबा रका था।
अगले दिन अविनाश के एक मित्र विकास जी दिल्ली से आये थे। अरसे बाद अपने किसी काम से आना हुआ था, अविनाश से फोन पर बात हुई उन्होंने अगले दिन लौटने का वादा कर उन्हें घर पर ही रुकने का आग्रह किया। मन ही मन असुविधा व पढाई के हर्ज की बात सोच मैं उकताई थी पर उनके अनौपचारिक व्यवहार के चलते मुझे दिक्कत नहीं हुई। वे दिन भर काम से बाहर रहे और लंच भी बाहर किया, रात को लौटे, डिनर करके सीधे अविनाश के स्टडी में लगे बेड पर सोने चले गये।
मैं पढ ही रही थी ग्यारह बजे फिर खटखट हुई ओह कल सुबह पांच बजे की तो इसकी ट्रेन है अभी यह यहाँ क्या कर रहा है? मन कांप कर रह गया। मैं उठ कर गई स्टडी में पर्दा हटा कर झांका, विकास जी ने बॉलकनी का दरवाजा खोल रखा था और हतप्रभ खडे थे।
” क्या हुआ?”
” पता नहीं, एक लडक़ा सा था, ड्रंक सा, हडबडाया सा।”
” चोर।” मैं खुद हडबडा कर दिशा बदल रही थी घटना की।
” नहीं चोर तो नहीं था ढंग का ही था, अच्छे कपडों में, । मुझे देखकर डर गया और बॉलकनी से कूद गया।” विकास जी मेरा घबराया हुआ चेहरा गौर से देख रहे थे।
” आजकल चोर भी तो।”
” हां आजकल के लडक़े अपनी जरूरत के लिये चोरी भी करने लगे हैं।” उन्होंने न चाह कर भी मुझे सहज करने के लिये मेरा समर्थन किया पर अविश्वास ज्यों का त्यों था उनकी आंखों में, पेशानी पर।मैं डर रही थी, विकास जी अविनाश को बतायेंगे तो वह विश्वास नहीं करेंगे, हुलिया बताने पर सब समझ आ जायेगा। फिर इस अत्यन्त सुरक्षित इलाके में चोर या गुण्डे फटक भी नहीं सकते।
” चलिये, सो जाईए आप। गुडनाईट।”
पर विकास जी ने इस बात का जिक़्र तक नहीं किया अविनाश से अगले दिन सुबह के नाश्ते पर। यह उनकी समझदारी थी वहीं इस बात का भी संकेत था कि वे समझ गये थे कि कहीं कुछ संदिग्ध था। मैं शर्मसार थी, बेवजह ही। मेरी क्या गलती थी? क्या मैं ने बढावा दिया उसे? आज तो विकास जी थे स्टडी में, कहीं अविनाश होते तो क्या सोचते कि यही सब होता होगा उनकी एबसेन्स में। कहीं विकास जी ने किसी दिन इनसे इशारों में बता दिया तो? यहाँ न सही, दिल्ली जाकर फोन पर। मैं ने अपना चैन खो दिया था, पढती क्या खाक!
वह बॉम्बे चला गया। महीनों बाद फोन आया कि उसे कुछ मॉडलिंग के असाइनमेन्ट्स मिले हैं। पहले भी भूखा नहीं मराएक दोस्त के साथ हॉस्टल में रहा, कम्प्यूटर के कुछ फ्रीलान्स काम करता रहा। अब एक एडवर्टाइंजिंग़ एजेन्सी में ग्राफिक डिजाइनर का काम कर रहा है साथ ही मॉडलिंग भी। मैं संतुष्ट थी कि चलो अपनी राह तो पकडी।
सफलता ने उसे मुखर और जिद्दी बना दिया था। जब भी यहां आता, सीधे घर आ जाता। इनसे बात करता।
” रमा जी, ने प्रेरित न किया होता तो मैं यहाँ थोडे ही होता। बस छ: हजार लेकर गया था आज महीने के तीस हजार कमाता हूँ। अपना फ्लैट ले लिया है।”
ये बहुत खीजते।
” रमा मुझे चिढ है ऐसे फालतू लोगों से। कमाता होगा। मैं क्या करुं? कितनी बोस्टिंग करता है।”
साल दर साल उसका आना यूं ही होता छ: महीनों में एक बार। मैं ने पी एच डी करके राजस्थान युनिवर्सिटी से एफिलेटेड पिलानी के ही एक अच्छे प्रायवेट कॉलेज में लेक्चररशिप जॉइन कर ली। बच्चे बडे हो गय थे। एक बार वह कॉलेज आया तब मैं ने कहा, ” अब सैटल्ड हो शादी कर सकते हो।
” बकवास है शादी।”
” हां आज कह सकते हो। पैंतीस के ही तो हो। साठ के होकर मुझसे बात करना।”
” पता है। पर आप ही कहो किससे कर लूं? ”
” अपनी किसी कोवर्कर से।”
” उनमें सबस्टान्स ही नहीं होता। सबकी सब अपने फीमेल होने का जमकर फायदा उठाती हैं। वहाँ प्रोफेशनलिज्म इस कदर हावी है कि किसी लडक़ी को न्यूड मॉडलिंग के ज्यादा पैसे मिलें तो वह खुशी खुशी वही कर डालती है।”
” तो मम्मी की पसन्द से।”
” गांव की लडक़ियों से? कर भी लूं तो अब मेरे लायक कौन बैठी होगी?”
” कोई तो होगी कहीं न कहीं।”
” मैं शादी नहीं करने का मन बना चुका हूँ। इस विषय पर घर में, दोस्तों में आपसे बहुत बार डिसकशन हो गया। अब गुंजाईश ही नहीं।”
” सुना है वहाँ लिविंग इन।”
” सही सुना है। वह भी कर चुका मैं। रहा एक मेरे जैसी ही कस्बे से आई लडक़ी के साथ। जगह की कमी थी, लडक़ी डीसेन्ट थी। सोचा ठीक चला तोशादी कर लेंगे। पर एक मॉडलिंग ऑफर और रैम्प पर जाने की महत्वाकांक्षा के कारण वह एक फोटोग्राफर के साथ घूमने लगी।”
” मन टूटा होगा।”
” मन वन नहीं टूटता वहां। मन बचा ही कहाँ रहता है और शरीर के लिये शरीर की कमी नहीं। जरूरत जरूरत को खींच लाती है।”
” छि:।”
” सच कह रहा हूँ, रमा।”
बदल गया था वीरेन्द्र। अब मैं रमा थी। वहां जो सब अपने से बडों को नाम से ही बुलाते हैं। नाम चलता है, सम्मानजनक सम्बोधनों में क्या रखा है? रिश्ते विश्ते कुछ नहीं सब प्रोफेशनलिज्म का हिस्सा बन गये हैं।
सालों बाद एक दिन वह लौट आया। रीता हुआ सा, हारा हुआ सा। एक पैर खोकर। कुछेक लाख की जमा पूंजी लेकर। पिता के घर नहीं गया। मेरे पास भी नहीं आया। पिलानी में एक घर लिया, वहीं अपना कंप्यूटर सेंटर खोला। एक महीने बाद मुझे उसके दोस्त से पता चला तो मैं ने फोन किया।
” मुझे बताने की जरूरत नहीं थी वीरेन्द्र?”
” आप दु:खी होतीं।”
” नहीं, लौट कर अच्छा ही किया वीरेन्द्र। मिलना चाहती हूँ।”
” आ जाओ।”
कॉलेज से मैं सीधे उसके दिये पते पर पहुंची। वहीं कंप्यूटर इंस्टीटयूट के कांच से मुझे वीरेन्द्र की लंगडाती, थकी टूटी सी आकृति दिखी। मैं सिहर गई थी। दाढी बढा ली थी उसने। जिन्दगी से फिर लड रहा था। क्या यह आदमी लडने के लिये ही बना है?
मुझे देखते ही वह बाहर आ गया और अन्दर छोटे से घर की छोटी बैठक में हम जा बैठे। पूरा कमरा शेल्फों से भरा था और शेल्फ किताबों से। एक पेंटिंग थी बीच की खुली दीवार पर, किसी परिपक्व, पुष्ट देह वाली औरत की लेटी हुई मुद्रा में कलात्मक मगर नग्न। शायद उसने बनाई थी या खरीदी थी। परदे पतले नीले पारदर्शी।
” यह सब क्या हुआ था?”
” मत पूछो। वह बेमुरव्वत शहर डस गया मुझे।”
”।”
” एक्सीडेन्ट हुआ था, खण्डाला से लौटते में, मेरा पैर फंस गया था भरे ट्रक के पहियों के नीचे, लोग भीड लगा कर खडे हो गये पर पैर नहीं निकाला। न वक्त अस्पताल ले गये। गैंग््राीन हो गया और काटना पडा।”
” यहाँ किसी को नहीं बताया? अकेले।”
” हाँ। अकेले जूझा। यही अकेला रास्ता चुन लिया है मैंने। जहाँ दर्द और पीडा मेरे अपने हैं।”
” वीरेन्द्र!”
” अरे! परेशान क्यों होती हो? यह है ना नकली मगर असली जैसा पैर पूरे तीन लाख का है।
फेदरलाईट!”
”।”
” बच्चे कैसे हैं? बडे हो गये होंगे।”
” हाँ। अन्विता अब कॉलेज जायेगी। उसे जयपुर भेज रहे हैं हॉस्टल में। कार्तिकेय टैन्थ बोर्ड दे रहा है।”
” आप जरा नहीं बदलीं। वैसी ही हैं। बूटा सा कद। मासूम सा पतला लम्बा चेहरा। वही ट्विन्कल करती काली आंखें। हां आगे की लटें सफेद हो गयी हैं। डाय नहीं करतीं?”
” ना। मुझे नेचुरली ओल्ड होना अच्छा लगता है।”
” कैसा चल रहा है?”
” जमा रहा हूँ। बहुत बदल गया है पिलानी। जहां पहले बहुत कम कंप्यूटर अवेयरनेस थी। अब घर घर में इन्टरनेट है। मैं डिश केबल कनेक्शन का प्रोजेक्ट स्टार्ट कर रहा हूँ, अभी नेगोशियेशन चल रहा है।”
” अच्छा है।”
मैं स्वयं को रोक न सकी।
” वो पेन्टिंग तुमने बनाई है?”
” नहीं, खरीदी। एक मंहगी एक्जीबिशन से। पता है कब? जब फाके चल रहे थे बम्बई में यहां से गया गया था, एकदिन आवारा घूमते घुस गया एक आर्ट गैलेरी में। यह मुझे अपनी कल्पना की रमा के बहुत करीब लगी थी। वहाँ से खरीद ली। दोस्तों से उधार लिये पैसे। बैंक में बचे खुचे पैसों का चैक काट दिया। तब से यह मेरे साथ है जिन्दगी के हर उतार चढाव में।”
मेरा मन द्रवित हो रहा था। कितना पागल है यह आदमी। इससे कभी मेरा मोह खत्म होगा? कौन है यह मेरा? मेरे गालों पर आंसुओं के रुके रेले बहने लगे थे।
” रमा! मेरे लिये रो रही हो? ऐ! इतनी भी बुरी नहीं जिन्दगी मेरी कि जिस पर रोया जाये। तुम्हीं हो जिसके लिये लौट आया। वरना क्या था यहाँ? काम तो वहां भी चल ही रहा था। पर बहुत अकेला था।”
” मैं तुम्हें क्या दे सकती हूँ?”
” मुझे कुछ चाहिये भी नहीं। बस तुम यहाँ हो, मेरी चिन्ता करती हुई इतना काफी है।”
वह सीधा खडा था मेरे बहुत पास मुझे अपने बारे में सांत्वना देता हुआ। वही पसीने की महक। पुरुषार्थ की गंध। मैं ने सर टिका दिया उसके वक्ष पर वह हतप्रभ था! पर समेट लिया उसने मेरी छोटी कदकाठी के क्षीण कलेवर को, माथे पर चुम्बन लेने को झुका तो उसके कानों की मुरकियां हिलीं। आंखों डूबी मुझमें मैं उन आंखों के बरसों पुराने आकर्षण में बंध गई।
अपनी अस्तव्यस्तता को समेट, तेज चलती सांसों के जाल से मुक्त हो हम दोनों उबरे तो उम्र के इस मध्यमावस्था के दौर पर भी दोनों के गाल लाल थे। हम कुछ बिना बोले चल पडे। वह मुझे कॉलेज तक अपनी कार से छोडने आया।
कॉलेज के गेट पर कार रोक कर बोला, ” इस एक पल का बहुत लम्बा इंतजार करवाया था तुमने रमा। कल्पनाओं का यह सार्थक पल तुमसे लिये बिना मर जाता तो पर मैं नहीं चाहता कि ये सब हम दोहरायेंऔर जिन्दगी… यानि तुम्हारी जिन्दगी जो हमेशा से मेरी भी थी में खलल डाल लें।”
”ठीक है।”
” कोशिश करेंगे कि न मिलें। मैं फिर किसी मोह में नहीं पडना चाहता। बहुत दुखाते हैं मोह।”
” ठीक है।”
” फिर भी कभी मिलना चाहो तो मेरा सैलफोन नम्बर है ही तुम्हारे पास।”
” मोह छोडना चाह कर भी नहीं छूटता तुमसे वीरेन्!”
मैं भरी भरी आंखों से हंस पडी थी। वो भी मुस्कुराया था, वक्त के थपेडों ने जहाँ उसकी संगमरमरी गोरी त्वचा पर अपने स्याह निशान छोड दिये थे, बढी हुई दाढी में सफेदी झांकने लगी थी उसकी हल्की हरी सी आंखों और मुरकियों का बांकपन मुस्कुराहट से मुखर हो गया था। उस पल मैं ने सोचा कि जरूर मिलूंगी, मेरा मन किया तो। आखिर रूखी जिन्दगी में एक हरा भरा कोना यही तो है।”
पर कहाँ हो पाता है। घर आकर वास्तविकता के पथरीले संसार में उस हरे भरे कोने की याद तक नहीं आती। घर, पति, बच्चे, उनके कैरियर, सोशलाईजिंग। अब जी एम हैं यह उस प्रोजेक्ट प्लान्ट के। मैं हैड ऑफ द डिपार्टमेन्ट। देखो न पूरा साल हो गया उससे मिले। आज फोन करूंगी।
” वीरेन्द्र राव के घर से?”
” हाँ, मैं उनका छोटा भाई बोल रहा हूँ।”
”उनसे बात करवा दीजिये।”
” आप कौन?”
” मैं उनकी दोस्त हूँ।”
” आपको मालूम नहीं कि वो।”
” मुम्बई चले गये? ”
” नहीं मुम्बई नहीं। पिछले साल ही उनको हार्टअटैक हुआ था इन्हीं दिनों और अब वो इस संसार में नहीं हैं।”
” आप मिसिज रमा माथुर जी बोल रही हैं?”
मैं ने फोन काट दिया। और निष्प्राण सी बैठी रही। नहीं वीरेन्द्र… मैं तुमसे इतनी बेखबर कैसे रही? तुमने बताया तक नहीं। कुछ तो मानसिक सम्प्रेषण भेजा होता। कुछ तो कहा होता जाने से पहले। अपने घावों को आप सहलाते हुए बिना किसी की सहानुभूति लिये चले गये! क्या ऐसे ही होते हैं कुछ लोग! कुछ सम्बन्ध!
ये कुछ लोग, कुछ सम्बन्ध चुपचाप आपकी जिन्दगी में आकर दाखिल हो जाते हैं, वैसे ही एक दिन चले जाते हैं अपने लौटते पैरों के निशान मन के ताजा गीले सीमेन्ट पर हमेशा के लिये बना कर। वे पंख टूटी तितली या घायल चिरौटे की तरह आ बैठते हैं मन के आंगन में चुपचाप अपनी पीडा सहतेआपकी पीडा से साधारणीकृत होते। अगर आप सम्वेदनशील हो तो सहेज लेते हो उन्हें। क्या उन्हें सहेजने के लिये समाज की अनुमति जरूरी होती है? उनका निभाव तो मन के धागों का होता है, उससे किसी का क्या लेना देना? पर फिर भी वो सम्बन्ध बदनामी का जहर पीते मन के कोने में उगे रहते हैं अपने झरते पत्तों के साथ। तिरस्कार सहते हैं कम बोलते हैं। आपके साथ रहते हैं, प्रत्यक्ष जीवन के समानान्तर तमाम अप्रत्यक्ष आपत्तियों के बावजूद वे प्रेम करते हैं आपसे। एक सम्वेदना भरी दृष्टि और सहानुभूति भरे स्पर्श की भूख होती है उन्हें।