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यायावर

बहुत भटका हूँ यहाँ वहाँ
यायावर सा
जीवन के संघर्षों ने
विश्राम की मोहलत
भी न दी
कर्तव्यों के इस छोर से
उस छोर को मिलाते - मिलाते
जीवन की सतहों को
बखूबी जान लिया
जीवन के इस मोड पर
हांफता हुआ
तनिक ठिठका था
कि
भावनाओं की बूंदों
और जीवन की धूप
के अनोखे खेल से
आसमान में पल भर
को अवतरित
तुम्हारी इन्द्रधनुषी
मुस्कान ने रोक लिया
मुझ से यायावर को भी
पल भर बांध लिया
छतनार बेल सी
अपनी सुकून भरी अदृश्य बांहों में
पल भर
थाम लिया
अब तक जानी थी
जिन्दगी की सतहें
अब जान ली
गहराई जीवन की
लो मैं फिर ऊर्जामय
हूँ
नये संघर्षों से उलझने के लिये.

राजेन्द्र कृष्ण
जनवरी 6, 2002

 

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