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![]() आज फिर मैं खिड़की से सटा देख रहा हूं इठलाती बेलों को जो लिपट लिपट कर हमारे पिछवाड़े खड़े खुश्क चिनार के दरख्.त को शायद बसंत की करवटों का एहसास दिला रही हैं इन बेलों की फितरत ही कुछ ऐसी है यह जब जब चाहती हैं तब तब अपने कसावों से बांध लेती हैं चिनार के दरख्त को। मौसम के बीतते बीतते ये कसाव ये बंधन ढीले हो जाते हैं ऐसा लगता है जैसे कई युगों का साक्षी है यह खुश्क चिनार जाने कितनी आग समेटे धधकते अतीत की धूनी रमाये जैसे हो कोई जोगी जब जब यह युवा बेलों के उत्साह भरे उन्माद से भर जाता है तब तब उसे अनुभव होता है आत्मग्लानि का क्योंकि कुछ पलों को वह भूल जाता है अपना पैतृक स्वरूप जिसका मात्र कर्म है सहारा देना संरक्षण करना और मर कर भी तिल तिल जलना यह चिनार का दरख्त इतना अकेला क्यों प्रतीत होता है मुझे
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