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कुंडली
मारे बैठी स्त्री देह
1
फिरकनी सी चरखनी लेते
गेन्द सी कुदकनी मारते
मालूम ही कहां पड़ा था कि
एक स्त्री देह कुंडली मारे बैठी है उस पर
वर्जनाएं फुत्कारती
वह खाली निक्कर में घूम नहीं सकती
वह खुले में नहा नहीं सकती
वह दोस्तों के साथ किलकारी नहीं मार सकती
बरसात की बूंदें उसे पुकारती
आ चली आ‚ रूक मत चली आ
हवा सरसराती चली आ चली आ
हर बार स्त्री देह की तर्जनी हिल जाती
हर बार वह साथियों से
एक कदम पिछड़ जाती
सीने पर कसाव होने तक
पेडु में चक्रवात मचने तक
वह झगड़ती रही
कुंडली मारे स्त्री देह से
हर मास दर्द का तूफान
कुंडली का कसाव
वर्जनाओं के भाले
रक्त का सैलाब
फिर असंभव सा संभव
देह आबदार मोती
अचानक उसने पाया
वह स्त्री देह के जबड़ों से होती हुई
उदर में पहुंच गई
देह झूमने लगी मंत्रमोहित
फिर अजनबी ताल में
आंतों के जंजाल में फंसी वह
पच रही है धीमे धीमे
मंत्रित शासन
देह तुम्हारी – इसे सजाओ अपनी मर्जी से
कहां है वह
कहां उसकी दुश्मन स्त्री देह
यह तो तभी पता चलता है
उसकी कुंडली का कसाव उसके ही गले में फंस जाता है............
2
सपने बादल पंछी आकाश
ये सब कल्पनाओं की पेंगे हैं
मित्र मितवा मनवा
मृगतृष्णाएं हैं
सच्चाई बस स्त्री देह है
जिसकी अन्तड़ियों ने पचा लिया है
इस सच्चाई को समझने को वक्त नहीं लगता
वक्त हव्वा‚ श्रद्धा‚ द्रौपदी‚ सीता
सभी की समझ भटक रही है
पूरी कोशिशों के बावजूद
देह पर अधिकार किसी का नहीं
यह कोशिश न आत्मज्ञान है न परमात्म
यहां न आनन्द है न परमानन्द
देह का त्याग कर मोक्ष पाना उन्हीं के लिये संभव है
जिन्होने उपकरण सा प््रायोग किया हो
स्त्री देह की विवशता अलग है
उसे अलंकृत होना है किसी और के लिये
उसे खटना है किसी और के लिये
जागना सोना है किसी और के लिये
खिंचावों को भोगती
देह से देह की खरपतवार उगाती
बाहर से संवरती भीतर से सींझती
वह स्त्री देह बस स्त्री देह ही रह गई
और वह
वह भी तो आत्म सात हो गई
उसी दुश्मन स्त्री देह में
3
आज जब
उसके जबड़े से जहर निकाल दवा बन गई
आज जब
उसकी खाल से जूतियां बन गईं
आज जब
उसका मांस भून लिया गया
तो कहां रह गई वह
शून्य बन समा गई
आत्मज्ञान पा गई
नहीं वह चीत्कार रही है
वह डकार रही है
"मत छीनो मेरी पहचान
एक जन्म देदो बस मेरे लिये
मैं और मेरी देह बस एक तत्व है
मेरी देह ही मेरी पहचान है
इसमें तैरती वेदनाएं
सब मेरी है"
……………
मौन है आकाश धरा भी
शून्य भी शून्य है उस स्त्री देह से
अनगूंजी चीत्कार कहीं और जन्म ले रही होगी
वह अपने को खोज रही है अपने में
अपनी देह में
……………
स्त्री देह में
– रति सक्सेना
English Translation of the above poem
The
Serpent Coiling Woman Body by Dr. P. Radhika
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