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सूरज
को सरापती लड़की उन घुप्प अंधेरी सीढ़ियों पर जिनका एक सिरा धूप भरपूर छत पर चढ़ता हेै दूसरा घुमाव लेता हुआ मटमैले आंगन में उतर आता है घुटनों पर सिर डाले बैठी वह लड़की सराप रही है सूरज को छत पर धपधपाते भाई आंगन में इक्का–दुक्की कुदकती बहन वह ऊपर नहीं नीचे भी नहीं बीच में अंधेरी सीढियों पर फंसी हुई उन वर्जनाओं को टटोल रही है जो अचानक फण उठा खड़ीं हो गईं हैं कुछ घंटों के फासले ने उसे अपराधी के कटघरे में खड़ा कर दिया उस अपराध के लिये जो उसे मालूम भी नहीं पेडु में उठते दर्द को नकार मां ने शकार दिया तुम बड़ी हो गई हो खबरदार जो बच्चों के साथ खेलीं पेट में घुपी कटार अचानक सीने में जा घुपी जांघों में उठता ज्वार लिजलिजा दर्द चुभती सुइयां इन सब से बड़ी बात है अचानक बचपन का छिन जाना अंधेरे में बैठी वह सराप रही है उन देवी देवताओं को जिनके पास जाना निषिद्ध हो गया है उसे मालूम नहीं कि अब निषेधों का सिलसिला आने वाला है उसे मालूम नहीं कि अब स्त्री देह का भोग्या बन गई उसे मालूम नहीं कि वह खिल गई वह तो बस सराप रही है उस सूरज को जिसके उगते ही वह अछूत बन गई। |
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