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खुमारियां

अंधेरी सुबहों वाली सर्दियां
अपना वार्षिक चक्र पूरा कर
फिर लौट आई हैं
यहाँ
पहले जहाँ
देर तक सोने की खुमारी
निकालने तक नहीं देती थी
रज़ाई से बाहर पैर का अंगूठा तक
वहीं आजकल
अपनी खुमारियां खो बैठी हूँ मैं

सुबह सुबह उठ आती हूँ
निर्जन सड़कों पर
देखा करती हूं
स्लेट से स्याह आसमान के सिलबट्टे पर
सुबह को
किरनों की सुगंधित केसर घिसते

निकल आते हैं परिन्दे
घने पेड़ों के झुरमुटों से
नई सुबह के उत्साह में
जोश से चहचहाते

उनके साथ कुछ दूर तक खामोश उड़ते हैं
पतझड़ के पीले पत्ते
किसी अरसे से खाली पड़े घर के
मेल बॉक्स के
बंद‚ पुराने‚ बिना पढ़े खतों की तरह
उड़ उड़ कर भीगी धरती पर
फिर उतर आने को

खो बैठे हैं ये पत्ते ख़त भी
अपना आधार
अपने होने का अर्थ
जुड़े टूटे रिश्तों के सन्दर्भ
उड़ते हैं बेपंख‚ पंछियों के साथ
भटकते हैं बेवजह
मेरी खो गई गुनगुनी खुमारियों की तरह
उष्ण धरती की ठण्डी सतह पर
बिना सन्दर्भ
बिना आधार!

– मनीषा कुलश्रेष्ठ



 

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