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जीवन की मुस्कान

हम सुना रहे थे कुछ लम्हे उन्हें .अपनी दास्तां ए कैफियत के
इस थमे हुए पल की खामोशी और तनहाई में खिलती उम्मीद के
लेकिन बीच में ही निकल लिये हजरत गुल्फाम कुछ काम से
अब किसे सुनाऐं हम अपने नादान ए दिल की ये नयी उमंग
जो उछल रही है मदहोश हवा में जैसे
बिन डोर की कोई बेखबर पतंग
ये अनकही दास्तां कोई क्या जाने
यह जो उल्फत है हमारे जिगर और दिमाग में
ये कोइ बहकी हुई कशिश नहीं
कोई बिगड़े नवाब के ये अन्जान खयालात भी नही
ये तो वही दर्द ए उलझन है
उसी उम्मीद के खयालात हैं
जो एक नीरस जमीं में कैद
उन बेखबर बीजों की होती है
जमाने के किसी बेर्दद बोझ से जो बरसों दबे रह जाते हैं
दिल – ए – जख्म भरने के लिये जिन्हें
बस ओस सी कोमलता की एक निर्मल आह ही काफी होती है
बेजुबान सी हो जातीं हैं उनकी उम्मीद की पुकारें
और सुबह ओ शाम यही उलझन
उनके बंधे हुऐ जीवन का सहारा बनती है
कि कब आऐगी सूर्य की वो एक निर्मल किरण
कब आयेगा वो हवा का चंचल झोंका
ओर नीर की वो चंचल आहट
जो देगी मुक्ति कवच की इस सांसारिक कैद से
जो ले चलेगी इस खामोश जीवन को उस जमीन की सतह पर
जहां खिले हुए मासूम फूलों की महफिल में
वो गुनगुना सकें खुशी के ये नगमात
अपने जीवन की नयी शुरुआत के
और जिनके रंगीन पंख पे लिपटे ओस की कोमलता
चंचल आइने में झलका सके वो थमे हुए आंसुओं में
खिलती अपने जीवन की मुस्कान को

मुकुल गुप्ता


 

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