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एक आस्था

पेड़ों से सारी पत्तियां
गिर रहीं हैं एक एक कर
चुपचाप‚ बिलाशिकवा
घुल रही हैं
उसी मिट्टी में
जहां से कोंपल बन फूटीं थीं
नीले आकाश में अपनी
क्षीण‚ नग्न बांहें फैलाए पेड़ों में भी
एक सौन्दर्य है
आस्था का सौंदर्य
इनके मन में भी तो
एक आस्था ज़रूर होगी
गिरी हैं अगर पुरानी पत्तियां
तो
नई भी आती ही होंगी..
पतझड़ के थपेड़ो ने
पीड़ा दी है तो
ज़मीन में गहरे
कहीं न कहीं ज़रूर
बसन्त करवट ले रहा होगा
उतरेगी परत उदास कोहरे की
चटख चमकीली धूप लिये
ज़रूर आएगा बसन्त...

-राजेन्द्र कृष्ण

 

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