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गहरी नदी
कभी हुआ करती थी
जो एक बड़ी गहरी नदी ,
अब नाला हो गई है,
जिसमें गिरता है शहर भर का
गंदा पानी,
दिखते हैं वहाँ लोग
गन्दगी में गन्दगी धोते,
कपड़ों से
शरीर से‚ जानवरों से
जैसे
गन्दगी समेटने के लिए ही
लिया हो इसने जन्म,
किसकी प्यास बुझा सकेगी
अब ये नदी ,
धरती की
जानवर की
आदमी की
या अपनी
क्या इसे अपने अस्तित्व का
दर्द नहीं होता
कुछ ही समय में
ये विलीन हो जाएगी
सरस्वती की तरह ,
बन जाएगी इतिहास की
एक किवदन्ती ,
पीढ़ियों के लिए,
क्या इसी अंत के लिए
आज भी ये
मर मर कर जी रही है ,
या कर रही है इंतजार
अहिल्या की तरह ,
उद्धार के लिए
अपने राम का।
 
 

 

 

 

 


        

 

माटी की गंध
अखबार के आखिरी पृष्ठ पर
कोने में छपी दो पक्तियाँ,
क्यूँ खींच लेती हैं मेरा ध्यान
क्योंकि वहाँ छपा है
मेरे देश मेरे गाँव का नाम,

अखबार की सुर्खियों को छोड़
वही खबर हो गई है अहम्,
क्योंकि उससे आती है
मेरी माटी की गंध।
मेरे हृदय में कुछ बुदबुदाता है
जैसे सूखी मिट्टी पर डाला हो
किसी ने एक लोटा जल,
तपती धरती से आवाज आई छन्न
मेरे दिल के चारों ओर खिंची
शीशे की दीवार भी
टूट गई टन्न,

उठने लगा सोंधा सोंधा सा धुँआ
भीग गया मन आँगन,
और मैं सूंघने लगा
अपनी माटी की गंध।
बंद हो गई पलकें
मुंदी आँखे
देखने लगीं सपने,
भीनी भीनी हवा का झोंका
टकराने लगा तन से,
उस स्पर्श की मादकता ने
भुला दिया वर्तमान,

ये पल मुझको लगते हैं
स्वर्ग के समान।
ऐसे स्निग्ध क्षणों का
लेखा जोखा नहीं है मेरे पास,
बस इनमें डूबना चाहता हूँ
जबकि ये मुझे कर देते हैं उदास,
कहीं से भी उठती है जब
मेरी माटी की गंध,

मैं स्वयं ही खिंचा चला जाता हूँ
एक अदृश्य बंधन में बंधा,
स्वयं को उस पाश में बंधवाने के लिए
खुद ही बेताब,
मन ही मन मनाते हुए
कि काश ये न होता ख्वाब,

आँख खुलने पर भी छू सकता
उस मिट्टी को
और सूंघ सकता
अपनी माटी की गंध।

-डॉ . रीता हजेला “आराधना

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