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प्रात:काल
हर प्रफुल्ल पात से
टप – टप कर
शनै:
शनै: टपक रहा
सुन्दर – मोहक
इन्द्रधनुषी ओस – कण ।

इठलाती भागी जाती
प्रातिभ मलयानिल के
सुमधुर स्पर्श से पैदा होते
सुमधुर स्वर … … सर सर।
कल कल … … छल छल
बहती धारा का चंचल मन
दुग्ध – फेन – सा निर्मल जल
प्रकृति – प्रान्तर में गूंज रहा
खग – कुल का मधुर कलरव ।

जल धारा के आर पार
क्षण का चित – चकोर
बहि: अंतर की आँखें खोल
गुप – चुप निरख रहा चहुँओर
प्रकृति के ओर – छोर
हर पोर – पोर ।

संध्य
किरण फिसली – फिसली और थम गयी
पेड़ों के अक्षत – निस्तब्ध शाख पर
चुहल करने लगी
शाख से, हर पात से–
कभी इस पर
कभी उस पर
अस्ताचलगामी सूर्य ने पुकारा
‘अरी ओ चली आओ’
तत्क्षण किरण ठिठकी
मुड़ी
सिमटी सिकुड़ी
पक्षियों के कलरव – गान सुनती
मृगछौने – सी कुलाचें भरती
अस्ताचल को सरपट लौट गयी ।

रात्रि
पश्चिम क्षितिज पर छाई लाली
जैसे छूटी हो अभी – अभी
रंग – भरी पिचकारी
उधर पूर्व– क्षितिज हुआ गहरा काला
शनै: – शनै: आकाश पीलिया गया
फिर सुरमई हो गहरा गया
हवा का गति – वेग हुआ मंद
पत्रों का हिलना हुआ बंद
कालिमा जम गई हर पत्र पर
खो गया कहीं जीर्ण पत्रों का मर्मर स्वर ।
दूर से आती है एक टूटती हुई आवाज
जैसे टूटा हो अभी – अभी किसी कलाकार का साज

-विनोद कुमार
 

 

 

 

 

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