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होली के बदलते रंग

अब तक तो
किया था रंगों ने जादू
हर एक पर
उतरे थे रंग इन्द्रधनुष बन
फगुनाई देह में
होता था असर
चंग की थापों का
हर दिल पर
उत्साह से
मोहल्लों की नींद उड़ जाती थी
चाहे वह होली हो या ईद

मुसलमान रंगरेज रंगते थे
फागुन में बासन्ती कुर्ते
हिन्दु कारीगर चिपकाते थे
पन्नियां मोहर्रम के ताजियों पर
राधा – कृष्ण की पोशाकों पर
सजते था करीम के हाथों
ज़रदोज़ी के बेल बूटे
बांटी जाती थीं
ब्रजवासी की दुकान की बूंदी
ईद पर बच्चों में

गली के मुहाने पर खड़ी
कोई हिन्दू सुजान
लगा जाती थी रंग चुपके – से
मुसलमान रंगरेज रसखान को
आज भी गाते हैं
सूफियाना कलाम
राधा – कृष्ण के रंग में रंगे
हिन्दु – मुसलमान मुरीद
मजार पर खुसरो की
तभी तो मस्त हो कर गाती हैं
पाकिस्तानी गायिका
आबेदा परवीन
" होरी होय रही है
अहमद पिया के द्वार।"
होली को कैसे बांध लोगे
— तुम
धर्म की देहरी के भीतर?
यह रस‚ रंग‚ गंध की अजस्त्रधारा
सबको एकसार भिगोती आई है

अब तक रंग होली के
प्राकृतिक से
रासायनिक ज़रूर हुए हैं
अबीर – रोली की जगह
ली है गुलाल ने
टेसू के फूलों की जगह
रासायनिक रंगों ने
पर तेजाबी नहीं हुई है
इनकी तासीर
रंग से भरे गुब्बारों में
आर। डी। एक्स।
नहीं भरा गया है

पर तुम कब तक बचाओगे
होली को तेजाबी होने से
दिलों को धर्म के नाम पर
काष्ठ होने से ?
खो गई है फगुनाई महक
वाली बांसती बयार

अब के हवा ही
किसी और दिशा से चली है!

– मनीषा कुलश्रेष्ठ
 

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