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गीत – 1
दीप ने कहा
शलभ आया प्रीति लेकर
मोहिनी सी प्रतीति लेकर
इस हृदय की चिर – तृषा को
बुझा न पाया प्राण देकर
प्रेम पथ पर मीत कब तक
दीप बन जलना पड़ेगा?
कौन जाने पीड़ा हृदय की
हो मौन जो मैं सह रहा;
चिर – तृषित हूँ‚ चिर कुंआरा
चिर – आकुल‚ विह्वल रहा।
अग्निरथ पर मीत कब तक
मुझको यूं चढ़ना पड़ेगा?
प्रिय मिलन की साध लेकर
हूँ राह में प्रिय की खड़ा;
प्रज्ज्वलित करके हृदय निज
तिल – तिल मैं जलता रहा।
होगा क्या प्रिय से मिलन‚
या अतृप्त ही रहना पड़ेगा?
शलभ ने मुझसे कहा यह‚
दीर्घ इक निश्वास लेकर;
प्रेम पथ की पीर है यह
मीत संग – संग सहना पड़ेगा।
प्रेम पथ पर मीत कब तक
दीप बन जलना पड़ेगा?

-नीरजा द्विवेदी
 


 

गीत – 2
उसमें खोना चाहूँ
कबसे जाग रहा हूँ‚
अबतो सोने को जी चाहे‚
उससे मिलकर‚
उसमें ही अब खोने को जी चाहे।

बचपन देखा‚ यौवन देखा‚
उनका आना जाना देखा‚
हर मौसम का सुखदुख देखा‚
उनका रोना गाना देखा‚
अबतो उसके प्यार में हँसने – रोने को जी चाहे।

उस बिन मैं न मैं हूँ,
और न ये तन ही मेरा है‚
उस बिन ये जग‚
जीवन और न ये मन ही मेरा है‚
अब तो मैं का बस तू ही तू. होने को जी चाहे।

जीवन भर अपने जीवन में,
 सपनों को ही बोया‚
हर सपने को भोग के रोया‚
फिर उनको ही बोया‚
अब मन की धरती में उसको बोने को जी चाहे।
कबसे जाग रहा हूँ‚
अबतो सोने को जी चाहे‚
उससे मिलकर‚
उसमें ही अब खोने को जी चाहे।

-अशोक वशिष्ठ

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