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(चर्चित कवि आशुतोष दुबे की कलम से)
डर
पृथ्वी के दो अक्षांशों पर
अपने अपने घरों में सोये हुए
दो व्यक्ति
एक जुड़वां सपना देखते हैं
यह एक डरावना सपना है
दोनों घबरा कर उठ बैठते हैं
दोनों का कंठ सूखता है
दोनों पानी पीते हैं
और शुक्र मनाते हैं
कि जो कुछ भी हुआ
सपने में हुआ
दोनों अगली सुबह अपने
काम पर जाते हैं
सपने को भूल जाते हैं
डर‚ पृथ्वी के इर्द – गिर्द
एक उपग्रह की तरह
मंडराता है
 

मुन्नी की करवट
मुन्नी ने करवट ली
और हाथ से टटोला
मां जगह पर नहीं थी
वह उठ बैठी
डर के मारे उसका कंठ सूख गया
वे निस्पंद हो गये और लाचार
जिस समय सारा सोच
ठिठका हुआ था कुछ पलों के लिये
उस बेवक्त भर गये वे
खीज और झुंझलाहट से
मुन्नी अंधेरे में जागी हुई
बैठी हुई बिस्तर पर
देखती हुई अंधेरे में
मुन्नी मासूम इतनी
इतनी दहशत भरी मुन्नी
मां ने हाथ बढ़ाया थपथपाने को
लेकिन ज़रूरत नहीं पड़ी इस सबकी
सिर घुमा कर करवट लेकर
सो गयी मुन्नी‚ जैसे जागी थी अनायास
जैसे मां – बाप को नहीं
दो देहों को
माफ करती हो।

-आशुतोष दुबे

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