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अनुरोध
हे बादल
अब मेरे आंचल में
तृणों की लहराई डार नहीं
न है तुम्हारे स्वागत के लिए
ढेरों मुस्काते रंग
मेरा जिस्म
ईंट और पत्थर के बोझ तले
दबा है
उस तमतमाए सूरज से भागकर
जो उबलते इन्सान
इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते…
कि एक तुम ही हो
जिसकी मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें
बादल! तुम बरस जाना
अपनी ही बनाई कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहां जायें?
इस बार
अनगिनत आंगन
अनगिनत छत
अनगिनत दिये
और उनके उजालों का कोलाल…
इनके बीच
कहीं गुम सी मैं
कहीं भागने को हठ करता हुआ
लौ सा मचलता मेरा मन…
वो एकाकी
जो तुम्हारे गले लग कर
मुझसे लिपटने आया है
उसकी तपिश में
हिम सी पिघलती मेरी नज़रें
मुझसे निकलकर
मुझको ही डुबोती हुई…
इस शोर और रोशनी का
हाथ पकड़ कर
छलक उठे हैं चांद पर
मेरी भावनाओं के अक्स
और उन्हें सहलाते हुए
चन्द्र प्रतिलक्षित तारे‚
फिर कहीं
आच्छादित धुआं
असहनीय आवाज़ें
आभासित अलसाई सुबह
और उन जमी हुई मोम की बूंदों के नीचे
दबी मैं
मेरा सहमा मन…
यह रात अवांछित सी आई है इस बार…
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प्रवाह
बन कर नदी जब बहा करुंगी‚
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
अपनी आंखों से कहा करुंगी‚
तब क्या मुझे रोक पाओगे
हर कथा रचोगे एक सीमा तक
बनाओगे पात्र नचाओगे मुझे
मेरी कतार को काटकर तुम
एक भीड़ का हिस्सा बनाओगे मुझे
मेरी उड़ान को व्यर्थ बता
हंसोगे मुझ पर‚ टोकोगे मुझे
एक तस्वीर बना दीवार पर चिपकाओगे मुझे
पर जब…
अपने ही जीवन से कुछ पल चुराकर
मैं चुपके से जी लूं!
तुम्हें सोता देख
अपने सपने सी लूं !
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
एक राख को साथ रखूंगी
अपनी कविता के कान भरूंगी
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
जितना कर सको प्रयास कर लो
इसे रोकने का
इसके प्रवाह का अन्दाज़ तो मुझे भी नहीं अभी!
तुम मेरे पास हो…
तुम ख्याल बन
मेरी अधजगी रातों में उतरे हो
मेरे मुस्काते लबों से लेकर…
उंगलियों की शरारत तक
तुम सिमटे हो मेरी करवट की सरसराहट में‚
कभी बिखरे हो खुश्बू बन कर…
जिसे अपनी देह से लपेट‚
आभास लेती हूं‚ तुम्हारे आलिंगन का
जाने कितने रूप छिपे हैं तुम्हारे
मेरी बन्द पलकों के कोनों में
जाने कितनी घटनाएं और गढ़ी हुई कहानियां
जिनकी विभिन्न शुरुआत हैं
परन्तु एक ही अंत
स्वप्न से लेकर … उचटती नींद तक
मेरे सर्वस्व पर तुम्हारा आधिपत्य।
-अजंता
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