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भूख की भाषा नहीं

बेजान
शान्त
हड्डियों का ढाँचा‚
निःश्वर
अनकहे
कह गया
अतीत‚
लुटी–पिटी
फटी धोती‚
धँसी आँखें‚
मानो
बस चल रही है
श्वास!
मैने  पूछा–
बाबा! कैसे हो ?
न कर सका
वह बयान
शक्ति बची
बस इतनी
हाथ उठे
मुँह तक गये
लुढक गया
वहीं
कर गया
महा प्रयाण!

समय

समय की गति अविरल है
मन की गति विकराल
बलि चाहता‚
इन्द्रासन को
पहुँचाया
पाताल ।
कहाँ था जाना ?
कहाँ है पहुँचे ?
लगाया कभी हिसाब !
जीवन के इन दो दिनोको
लगा दो ’उसके‘ नाम
जिन्दा तो लेगें नही‚
मरने पर लेगें नाम

— सत्यवान 'सत्य'

सब कुछ बदला बदला सा हैं

मैं‚ मैं नहीं
तुम‚तुम नहीं‚
वोवो नहीं‚
सब कुछ बदला बदला सा हैं–
पता नहीं क्या हो गया?
मेरे इस जहॉं को
हरेक शख्स‚
बहुरूपिया नजर आता है‚
जÜ खडा था‚
हाथ बांधे अभी‚
मेरे  समक्ष‚
अगले ही पल‚
आँखे ! दिखाता नजर आता है‚
सब कुछ ––––
फ़ुर्सत नहीं है लोगो  को
दूसरों के गम सुनने की‚
अपने ही गम में‚
बुझा बुझा सा नजर आता है–
सब कुछ –––
जब नख से सिर तक‚
डूब गया है वो
तीर पर खडा
हर इन्सान‚
अब उसे
बचाने  वाला नजर आता है‚
सब कुछ –––


हार–जीत

हार की कहानी क्यों सुनाऊँ‚
जब
मैं आगे  ही बढता जाऊँ‚
हार जीत तो  सतत् गति हैं‚
यदि हार नहीं तो जीत की क्या स्थिति है‚
यदि मृत्यु नहीं तो कैसी सती ?
सत्य के लिये  तपना पड़ता है‚
कंचन को  यदि है चमकना ‚
से  आग में पडेगा‚ झुलसना‚
वीर बढते चलो‚हार में जीत है‚
जितना है झगडा‚ उतनी ही प्रीत है।

— सत्यवान 'सत्य'

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