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खिलने दो खुशबू पहचानो
मै नहीं हूँ
सागर सी खारी
मैं तो नदी की मीठी
धार हूँ
भवसागर का ज्वार हूँ
अभी अजन्मी बच्ची हूँ
रक्त से सारोबार हूँ

मुझे खिलने दो खुशबू पहचानो मेरी
फिर देखो मेरी क्षमताऐं
तुम्हारी अपेक्षाओं पर
खरी उतरूंगी
इसलिये कहती हूँ
मुझे आने दो

नीड़ से निकली
नवजात चिडिया हूँ
पर फड़फडाने दो
परम्पराओं की कैंची से
मेरे पँख न काटो
बैरंग चिट्ठी सा
मुझे न छाँटो
मैं तो झरनों की कलकल करती
सुमधुर आवाज हूँ
दूर तक सुनाई देने वाला
विश्वास भरा साज हूँ
मुझे तुम आत्मविश्वास के
स्वर दो
नहीं किसी पर बनूं बोझ
ऐसा वर दो
बस स्वप्न तुम्हारे साकार करूँ
सार्थक जीवन का सार बनूँ
घर‚ परिवार‚ समाज और
देश का नाम करूँ
आज मुझे
इस वंदनीय भूमि पर बस
इतना सा आधार दो
जीने का अधिकार दो
अधिकार दो‚ अधिकार दो।

-डॉ। सरस्वती माथुर
 

बसन्त के कुछ गीत
1.
जब तैं बगियन में बगरयो बसन्त
महन्तन के मन महके
मन महके‚ बन–उपबन महके
सुधि आये  विदिसिया कन्त।
महन्तन के मन महके।।
खेत–खेत सरसों हिले  औरु जमुहाबे
भौरन  कों  देखि कैं अंगुरियां हिलाबे
निरखि पाँव भारी‚
मटर प्रान प्यारी के
गेहूँ  हुइ गए सन्त।
महन्तन के मन महके।।
देखि खिले फूल‚ मनु फूलो  ना समाबे
अनछुई सुगन्ध‚ अनुबंध तोरे जाबे
मुँह बिदुराबे‚ अँगूठा दिखाबे
ललचाबे  हवा दिग–दिगन्त।
महन्तन के मन महके।।
शब्दन ने ढ़ि लिए गंध के अंगरखे
पालकी में बेठ गीत निकसि परे घर से
छन्द–मुक्त कविता से  उकसे  बबूल–शूल
मुकरी सों  मादक बसन्त।
महन्तन के मन महके।।


2.
चम्पा मेली बेला कचनार झूम उठे
धरती ने धानी चुनरी सी फहराई है
सुधि–बुधि भूले सुत सारंग सुगन्ध सूँघि
ऐसी वा बिसासी अमवा की अमराई है
राह के बटोहियों के हिय कों हिराय लाई
ऐसी भृंगराज ने बजाई सहनाई है
एक सुकुमारी सी कुमारी तरू–मल्लिका की
हाने वाली आज ऋतुराज से सगाई है।।

3.
यो है बसन्त‚ घर नाहिं सखि कंत आयो
पंथ हेरि हारि गईं हमारी हैं
कुहुकि–कुहुकि के संदेसो सो  सुनाय रही
अमवा की डारन के पाँव भये भारी हैं
हिय में  हिलोर मीठी–सी मरोर‚ उठै
पीर पोर–पोर‚ अंग अंग में खुमारी है
मारि–मारि तारी हँसे वेदना कुँवारी‚ पिय
से है अनारी एक चिठिया न डारी है।

— डॉ। जगदीश व्योम

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