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नज़्म
उडते हैं हजारों आकाश में पंछी
ऊंची नहीं होती परवाज हरिक की।

इस शहर भी उसका होना था असर कुछ
मानाकि अंधेरी उस शहर चली थी।

बरसी तो यूं बरसी आंगन भी न भीगा
सावन की घटा थी खुलके तो बरसती।

कैसे मैं बताता मजबूर बड़ा था
वो बात थी उसकी इक भेद के जैसी।

सूखी जरा होती जल जाती ए यारो
गीली कोई तीली कैसे भला जलती।

पुरज़ोर हवा में गिरना ही था उनको
ए ‘प्राण’ घरों की दीवारें थी कच्ची।

-प्राण शर्मा कावन्टरी यू.के.
 

 

गज़ल

इसकी चर्चा हर बार न करते अच्छा था
जाहिर अपना उपकार न करते अच्छा था।

खुदगर्जी की हद होती है कोई प्यारे
अपने से ही तुम प्यार न करते अच्छा था।

चलने से पहले सोचना था कुछ तो साथी
रस्ते में हा हा कार न करते अच्छा था।

गर चुप था वो तो चुप ही रहने देते तुम
पागल कुत्ते पर वार न करते अच्छा था।

अपनों से ही सब रिश्ते नाते हैं प्यारे
अपनों में कारोबार न करते अच्छा था।

खुद तो बीमार हुए ही तुम पर मुझको भी
अपनी जिद से बीमार न करते अच्छा था।

ए 'प्राण' भले ही मिलते तुम सबसे खुलकर
लेकिन सबका एतबार न करते अच्छा था।

-प्राण शर्मा कावन्टरी यू.के.

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