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ग़ज़ल
आपकी दानाइयों ने दिल मेरा दहला दिया
राहगीरों को तुम्हारे रास्तों ने क्या दिया
मंज़िलों को गहरी गर्त में पहुंचा दिया
जिन मचानों पर सुरक्षित था अंधेरों का वजूद
उन मचानों को ही तुमने मंज़िलें ठहरा दिया
एक झूठे सच की खातिर कितने सच झुठला दिये
आपकी दानाइयों ने दिल मेरा दहला दिया
नन्हीं आशाओं के अंकुर धूप में कुम्हला गये
रोशनी ने सूरज को जाने क्या समझा दिया
डर है वो उठने से पहल उंगली भी ना मांग ले
दक्षिणा में जिसने अंगूठा मेरा कटवा दिया
जब किसी से ज़िन्दगी को देखा नंगी आंख से
बस तभी चश्मों ने उसको कुछ न कुछ फतवा दिया
 

 

ग़ज़ल
तुम उधर जलते रहे और मैं इधर जलता रहा
दूरियों के बीच भी सम्बन्ध इक पलता रहा
तुम उधर जलते रहे और मैं इधर जलता रहा
पानियों ने दूध की और खून की ले ली जगह
हो कहीं एक बूंद मैं इस सोच पर पलता रहा
वो कहानी मैं जिन्हें कोसा किये था रात – दिन
ज़िन्दगी भर उनमें रह कर खुदको ही छलता रहा
थी नकल मज़ूर लोगों को मसीहा की मगर
रूबरू सच के कभी आना उन्हें खलता रहा
अपने मन को जानते ईमानदारी से अगर
तो समझ जाते अदब का जिस्म क्यूं गलता रहा

— संजय ग्रोवर

 

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