![]() |
मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
सृजन |
स्वास्थ्य
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Fonts | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
|
उस दिन तुमने गोबर से आंगन लीपते हुए आंखे झुका कर पूछा था ` मैं तुम्हें इतनी अच्छी क्यों लगती हूं ?' मैं तब कुछ कह नही पाया था मैं कहना चाहता था तुम्हारी देह से फूटती है मेरे खेतों की मिट्टी की महक तुम गेहूं सी लहलहाती हो मेरे आंगन में और कि मैं तुम्हारी आंखों में देखता हूं दुनिया भर की धरती जिसमें हिम्मत की फसल लहलहाती है ! जिस्मों की कैद में एक जिस्म है तेरे पास एक जिस्म है मेरे पास और हमारी व्याकुल आत्माएं कैद हैं उनमें ! पता नही कब ये संभव होगा कि हम अपने जिस्मों की हिफाजत के बिना ठीक से मिल पाएंगें और अपने सुख-दुख की बातें और फुर्सत के क्षण निकाल पाएंगे ! ये जिस्म सिर्फ जिस्म नहीं इनका समाज है नियम और कायदे कानून हैं व्यस्तताएं और जरूरतें हैं ! ये जिस्म जिसकी गर्म इच्छाएं और स्वार्थ हैं और इसमें कैद हैं हमारी व्याकुल आत्माएं ! कब मिल पाएंगे हम एक-दूसरे से अपने जिस्मों के बिना ! मेरा व्यक्तिगत मसला नहीं है यह तुम नही समझती मेरे शब्दों के अर्थ तुम्हारा वो छटपटाना और बेबसी से तकना चुपचाप डबडबाई आंखों से देख अपने में ही खोकर रह जाना हमेंशा जैसे चीखते हुए बार-बार कहती हो कि यह हमारा व्यक्तिगत मसला है कि मैं तम्हे प्यार क्यों नही कर पाता! तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे साथ सपनों की बात करूं आकाश के अन्तिम छोर तक उड़ते जाने की बात करूं तुम्हे आगोश में ले भूल जाऊं कि किसी दिन हरिया के सामने गुंडों ने उसकी बीबी को रौंदा था और कि कैसे चमड़े के कारीगर की हड्डियों से मांस का एक-एक कतरा नौचा था! तुम चाहती हो मैं वह सब भूल जाऊं जो इसी तरह मेरे दिमाग की भट्टी में सालों से हवा लग-लग के सूर्ख हुआ है और जिसे सहेजते-सहेजते मेरी नसें झनझनाने लगी हैं सच! मैं तुम्हें कभी समझा नहीं पाउंगा कि लम्बी बहस के बाद तुम्हे न समझा पाने की झुंझलाहट का हथौड़ा मेरे कितने सपनों को भरभरा कर गिरा देता है! मेरी दोस्त! आदमी के अस्तित्व बचाए रखने की इस लड़ाई के बीच `प्यार करना' मेरा व्यक्तिगत मसला नही हो सकता मैं तुमसे लड़ते रहने की हिम्मत चाहता हूं हर कदम पर साथ देखना चाहता हूं |
|
|
मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
सृजन |
साहित्य कोष
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Fonts | Feedback | Contact |
(c) HindiNest.com
1999-2015 All Rights Reserved. A
Boloji.com Website |