मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
डायरी
|
साक्षात्कार |
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
|
हँसो गीतिके हँसो हँसो गीतिके हँसो। हँसो ऐसे जैसे हवा से हिल कर हँसते हैं गुलमोहर के फूल। हँसो ऐसे जैसे कोई अकेला बच्चा ख़ुद में हो मशगूल। हँसो ऐसे जैसे पहाड़ों से उतर कर हँसते हैं झरने। हँसो ऐसे जैसे पूर्णिमा की रात हँसती हैं चंद्रकिरणें। हँसो... गाय के ताज़ा दुहे दूध के फेन-सी हँसी। हँसो... मन के सारे मलाल मिटा क़ुदरत की देन-सी हँसी। हँसो, गीतिके हँसो। इस तपिश में मानसून की शीतल फुहार की तरह हँसो मेरे पतझड़ में बहार की तरह हँसो नफ़रत में प्यार की तरह हँसो। गीतिके हँसो। हँसो, क्योंकि तुम हँसती हो तो बोलती हैं तुम्हारी आँखें। हँसो, क्योंकि तुम हँसती हो तो डोलती हैं तुम्हारी साँसें। हँसी तुम्हारे होंठों पर बाँसुरी-सी बजती है तुम्हारे गालों पर सजती है गुलाल-सी हँसी। बाग़ों के बेख़बर झूले-सी झूलती हो तुम और लचकती है हरी-हरी डाल-सी हँसी। मैंने तुम्हारी हँसी को तितलियाँ बन-बन कर उड़ते देखा है। मैंने तुम्हारी हँसी को दूर जा-जा कर मुड़ते देखा है। तुम हँसती हो तो मेरे दिल तक बनती है एक राह। और सहसा बिछ जाते हैं उस पर पुष्प भी अथाह। पलकों-सी शर्मीली है, सपनीली है तुम्हारी हँसी। लहरों-सी गीली है, लचीली है तुम्हारी हँसी। जाने कितने रंगों से बनी, कितनी उमंगों में सनी है तुम्हारी हँसी। प्रियतमे! सृष्टि में शायद सबसे हलकी और सबसे घनी है तुम्हारी हँसी। हँसती रहो अविरल हँसती रहो छलछल तुम्हारी हँसी पर अपनी नाव लेकर पार जाऊँगा मैं। हँसती रहो चह-चह हँसती रहो मह-मह तुम्हारी हँसियाँ चुन-बुन कर हार हो जाऊँगा मैं। प्रियतमे! तुम्हें पाकर स्वयं को स्वीकार हो जाऊँगा मैं। बसो मुझमें बसो पल-पल। हँसो इतना हँसो हर पल।
-अभिरंजन कुमार
|
मैं अनोखा हो गया हूँ मैं अनोखा हो गया हूँ! चार पद, कर चार, दो तन, दो वदन वाला हुआ धड़कनें दो फूल- गूँथा एक में- माला हुआ होंठ मेरे ही नशीले हैं शपथ जिनके लिए स्वयं साक़ी, स्वयं प्याला, स्वयं मृदु हाला हुआ विश्व के लोचन तुम्हें मैं आज धोखा हो गया हूँ!
ताड़-तरु तर झील के कूलों झितिज पर जा गिरूँ या जलद में नील नभ में, सित दुकूलों पर तिरूँ लड़खड़ाते शिथिल क़दमों नपें हिममय घाटियाँ भावनाएँ मैं रुई-सी मौन हो उड़ता फिरूँ पूछ देती माँ हिला कर- जग रहा या सो गया हूँ!
पेड़-बादल छाँह-अमृत पवन पुलकन याचते विहग मुझसे गीत माँगें, नदी निज पथ के पते आज मेरी ये भुजाएँ अमित को फैली हुईं फूल-काँटे, बर्फ-शोले एकसम हो बाँचते झाँक मुझमें देख जन्नत का झरोखा हो गया हूँ! मैं अनोखा हो गया हूँ! -अभिरंजन कुमार बातें तुम्हारी प्रिये..
लहराती नदियों-सी होकर भी गहरी। बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी।
मैं तो एक झरना हूँ, रुक जाऊँ कैसे? छाती पे पत्थर की ठुक जाऊँ कैसे? मीन-सी तड़प रही है मेरी प्रतीक्षा में देखो तुम्हारी प्रिये भी लहरी-लहरी।
मैं तो एक बादल हूँ, बाँहों में भर लो। काजल समान प्रिये आँखों में धर लो। ख़त्म नहीं होऊँगा किंतु तेरे अंबर से बार-बार बरसूँगा संझा-दुपहरी।
मन पे उदासी न छाने दो हमदम आज मुझे रोको न, गाने दो हमदम तेरे सितार भी जो उँगलियों से छेड़ दें गीत लिखूँ या कि कोई कविता सुनहरी।
छाँव तो धूप की छाया है प्रियतम धूप संग पड़ते हैं छाँव के भी क़दम। धूप को जो ओढ़ लो तो छाँव बिछ जाती आँचल-सी फिरती है ज्यों फहरी-फहरी।
लहराती नदियों-सी होकर भी गहरी। बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी।
-अभिरंजन कुमार |
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |