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रंगमंच
रंगमंच की दुनिया भी कैसी है?
वहाँ अभिनेता उसका अभिनय करते हैं
जो वे वास्तविक जीवन में नहीं होते
उनका अभिनय ये बताता है कि
एक मनुष्य कितने ही रूप धारण कर सकता है।
या कि एक मनुष्य में कितनी संभावनायें हो सकती हैं।
नाटक एक कला है।
जो अन्य कलाओं की तुलना में
जीवन के ज्यादा करीब है।
नाटक त्रिआयामी है अपने प्रदर्शन में
और बहुआयामी है अपने प्रभाव में।
नाटक सजीव है।
और इस विधा में सबकी सक्रिय भागीदारी हो सकती है।
नाटक सबके लिये है।
नाटक एक खेल है
पर फिर भी जीवन से जुड़ा हुआ है।
कुछ भी न हो हमारे पास
न मंच, न परदा, न साज और न सज्जा
पर तब भी नाटक खेला जा सकता है।
नाटक विशुद्ध रचनात्मक प्रक्रिया है।
नाटक विचार है।
परदे के उठने और फिर से गिरने के
मध्य जो मंच पर घटता है
वह झलक दिखाता है कि
``जीवन भी एक माया हो सकता है''
क्योंकि नाटक के दौरान
जीवन के कुछ आभासी पहलू मिलकर
एक वास्तविकता का पुट सामने लाते हैं।
नेत्र या कर्ण किसी भी इंद्री को बाँध कर
नाटक सम्मोहित करके हमें कहीं और
अपने कथानक में बहा ले जाते हैं।
नाटयशास्त्र ही बताता है कि
वास्तविक जीवन में
जो औरों से ज्यादा शक्ति रखते हैं
ज्यादा दूर का सोच सकते हैं
वे अपने युग को प्रभावित करते हैं और
सबको अपनी विचारधारा में बहा ले जाते हैं।
यही जीवन में माया के होने का गवाह है।
तब हम सब भी उस बड़े नाटक का हिस्सा बन जाते हैं
और अपना अभिनय शुरू कर देते हैं
अन्तर केवल इतना होता है कि
रंगमंच की तरह यहाँ हमें अंत
का पता पहले से नहीं होता।
मानव जाति का इतिहास गवाह है कि
समय समय पर ऐसे दिग्दर्शक हुये हैं जिन्होने
अपनी विचारधारा अनुसार जीवन के वास्तविक रंगमंच में
बड़े बड़े नाटक रचे हैं
हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन ने विध्वंसकारी नाटकों की रचना की
और अपने देश के समाज को उसमें बहाकर ले गये।
गाँधी ने भी एक रचनात्मक नाटक की रूपरेखा तैयार की और
मानव जाति के इतिहास को समृद्ध किया।
रंगमंच के नाटक हमें समझ देते हैं कि
जब भी हम वास्तविक जीवन में किसी विशेष धारा के बहाव
में बहने लगते हैं तो
देख लें कि हम जा किस ओर रहे हैं?
निर्माण की ओर या विध्वंस की ओर?
परदा
परदा भी कमाल की चीज है रंगमंच की दुनिया में
परदा छुपा कर रखता है
गर्भग्रह की तरह
परदा भ्रम को वास्तविकता का पुट देने में सहायता प्रदान करता है।
परदा उत्सुकता बनाये रखता है।
परदे के उठने पर ही
सामने क्या आने वाला है
उसका पता चलता है।
-राकेश त्यागी
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अभिनय
अरे अभिनेता
तुम अभिनय को, अपने द्वारा निभाये गये पात्र को
वास्तविक न मानने लगना
तब अभिनय भी एक ऐसा नशा हो जायेगा
जो जीवन के वास्तविक रूप को हटाकर
कहीं और व्यस्त कर देता है दिमाग को
और कुछ समय के लिये
व्यक्ति जो नहीं है वह होने का भ्रम पाल लेता है।
जैसे कुछ लोग साधुता का अभिनय कर लेते हैं
वास्तविक जीवन में और
अपने को वास्तव में साधु समझने लगते हैं।
दुनिया की रंगभूमि से भागने वाले
ऐसे लोग साधुता का केवल चोगा ही पहन सकते हैं
सन्यस्त होने का केवल अभिनय ही कर सकते हैं।
अभिनेता वहाँ मंच पर अभिनय करते हैं
वे वास्तविक जीवन में रूप बदले रहते हैं
छलिया बने रहते हैं
पर छलते तो वह खुद को ही हैं।
उन्हे अगर वास्तव में संतत्व मिल गया होता
तो क्या हर चिन्ता, हर काम को
चिलम में भरे गाँजे के धुँए में उड़ाते रहते?
जब जब जिम्मेदारियों ने सिर उठाया
ये कहकर आँखें बन्द कर लीं उन्होने कि
ध्यान लगाना है, सत्य को खोजना है
ये संसार तो माया है और जीवन नश्वर है।
अपनी चिलम तो कभी भ्रम न लगी उन्हे?
गाँजे की शान्ति को तो असली मानते रहे।
अभिनेता तुम भी किसी भ्रम में अपने को मत डाल लेना
अभिनय चाहे किस भी रंग रूप का करो पर
अपने वास्तविक रूप को न भूल जाना।
प्रकृति के नाटक
सब नाटकों से भी बड़ा
एक नाटक जीवन में रचा जाता रहता है हर पल
जहाँ कुछ तो जाना पहचाना होता है
और कुछ हमेशा अनजाना घटता रहता है।
इस नाटक का निर्देशन प्रकृति करती है।
प्रकृति के इस नाटक में पात्र हमेशा बदलाव की तलाश में रहते हैं।
आकाश के असीमित नीलापन को हर वक्त धरती को घूरने का काम मिला हुआ है।
और धरती तो इतनी रंगीली है कि
बरस भर में जाने कितने रंग बदल लेती है।
धरती और आकाश के मध्य बहने वाली हवा की तो बात ही क्या?
कभी तो सूरज से दोस्ती करके तपा देती है गुस्से में पूरा चमन
और कभी ठंडी साँसें भरा करती है।
चाँद की अच्छी भूमिका है समुद्र से गहरा दोस्ताना निभाता है और हर रात
उसके पानी को अपने पास बुलाता रहता है।
पर सूरज आया नहीं कि चाँद गायब अंधकार की चादर लिये हुये।
पानी को भी संतोष नहीं।
भाप बन उड़ उड़ कर आसमान में पहुँच जाता है
पर चैन वहाँ भी नहीं मिलता इसे
और फिर बरस पड़ता है वापिस धरती पर।
पहले तो प्रकृति के नाटक के पात्र लगभग निर्धारित समय पर ही प्र्रवेश करते थे
पर अब हम दर्शक इतने शक्तिशाली और उपद्रवी हो गये हैं कि
ये सब कलाकार अपना पात्र ढ़ंग से नहीं निभा पाते
और बड़े ही अनियमित हो गये हैं।
कभी कम तो कभी ज्यादा मेहनत कर डालते हैं।
प्रकृति के नाटक से सामंजस्यता गायब होती जा रही है।
-राकेश त्यागी
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