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चौथा पहर

रात का यह चौथा पहरचाँदनी रात,
राधा के लिये ,
जैसे ज्येष्ठ- आषाढ़ की शिखर दुपहर ।
तीन पहर बीत गये
कान्हा के किये दीदार,
रात का  यह चौथा पहर ,
राधा पर ढाता कहर।
 

रात का यह चौथा पहर,
रुक्मणि  सोई ,
जैसे  बेच  शहर- बाज़ार ।
नींद गहरी मन में चैन,
सपने देखते नाचें नैन ,
यह रात का चौथा पहर,
रुक्मणि पर बिखेरता सुनहर।
 

रात का यह चौथा पहर,
मीरा के लिये एक बराबर,
क्या जंगल क्या शहर ।
पालने में शाम,
झुलारे देते नहीं झपकते नैन।
एक ही लोरी ,
एक ही ध्यान
मेरे गिरधर गोपाल

दूजा न कोई,
उसके लिये एक बराबर अमृत और ज़हर।
मदहोश, मदमस्त ,बेखबर
कब सांझ ढली, कब हुई सवेर,
जिसके लिये युगों की नहीं गिनती
उसके लिये क्या पहला और क्या चौथा पहर ।
 

 -डॉ.शशि पठानिया
 

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चाँदनी रात

आज चाँदनी रात है ,
तेरी यादों की सौगात है ,

इस वक्त न तुम्हारी  और न मेरी  ज़ात है।

हम दोनों गैरहाज़िर ,
अपनी -अपनी जगह हा
ज़िर ,
यादों के हमसफ़र,

जज़्वातों का झंझावात है,
क्योंकि तुम्हारी यादें हैं ,
तुम नहीं,

लेकिन फिर भी क्या बात है।

 -डॉ.शशि पठानिया
 

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