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रुबाइयां रूप- फिराक गोरखपुरी दीपावली के अवसर पर फिराक गोरखपुरी की लिखी हुई 'रूप' की स्र्बाइयां जो उन्होंने एक भारतीय वधू को जहन में रख कर लिखी हैं। दीवाली की शाम घर पुते और सजे चीनी के खिलौने, जगमगाते लावे वो रूपवती मुखड़े पे लिए नर्म दमक बच्चों के घरौंदे में जलाती है दिए मंडप तले खड़ी है रस की पुतली जीवन साथी से प्रेम की गांठ बंधी महके शोलों के गिर्द भांवर के समय मुखड़े पर नर्म छूट सी पड़ती हुई ये हल्के सलोने सांवलेपन का समां जमुना जल में और आसमानों में कहां सीता पे स्वयंवर में पड़ा राम का अक्स या चांद के मुखड़े पे है जुल्फों का धुआं मधुबन के बसंत सा सजीला है वो रूप वर्षा ऋतु की तरह रसीला है वो रूप राधा की झपक, कृष्ण की बरजोरी है गोकुल नगरी की रास लीला है वो रूप जमुना की तहों में दीपमाला है कि जुल्फ जोबन शबे - क़द्र ने निकाला है कि जुल्फ तारीक़ो - ताबनाक़* शामे हस्ती (अंधेरी तथा प्रकाशमान) जिंदाने - हयात* का उजाला है कि जुल्फ (जीवन रूपी कारागार) भीगी ज़ुल्फों के जगमगाते कतरे आकाश से नीलगूं शरारे फूटे है सर्वे रवां* में ये चरागां*का समां (१. बहती नदी २. दीपमाला) या रात की घाटी में जुगनू चमकें है तीर निगाह का कि फूलों की छड़ी कतरे हैं पसीने के कि मोती की लड़ी कोमल मुस्कान और सरकता घूंघट है सुबहे - हयात* उमीदवारों में खड़ी ( जीवन प्रभात) ये रंगे निशात, लहलहाता हुआ गात जागी - जागी सी काली जुल्फों की ये रात ऐ प्रेम की देवी ये बता दे मुझको ये रूप है या बोलती तस्वीरे हयात जब प्रेम की घाटियों में सागर उछले जब रात की वादियों में तारे छिटके नहलाती फिजां का आई रस की पुतली जैसे शिव की जटा से गंगा उतरे किस प्यार से होती है खफा बच्चे से कुछ त्यौरी चढ़ाए हुए, मुंह फेरे हुए इस रूठने पर प्रेम का संसार निसार कहती है ' जा तुझसे नहीं बोलेंगे' चौके की सुहानी आंच, मुखड़ा रौशन है घर की लक्ष्मी पकाती भोजन देते हैं करछुल के चलने का पता सीता की रसोई के खनकते बर्तन |
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