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कहते हैं चंचल है मन का स्वभाव सागर की लहरों की तरह अधक निरंतर एक पर एक अग्रसर मानो किनारों को तोड़ कर ही ठहरेंगी पर किनारों को तोड़ कर भी कभी लहरें कभी ठहरी हैं? चाहे पूर्णिमा के चांद की चाहत हो या भीतरी सूनामी के बाद की बात लहरों को बेचैन ही देखा है सीमाओं को लांघने की निर्धकता लहरें कभी समझ नहीं पायीं क्या मन ये कभी समझेगा?
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