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मां का हलवा

इक रोज मैं ने अपनी मां से कहा था
मां हलवा खिला दो, मां हलवा बना दो

दूसरे दिन अपनी बहन से यही कहलवाया

मां हलवा खिला दो, मां हलवा बना दो

फिर मैं ने भाई को भी यही कहने को पटाया
मां हलवा खिला दो, मां हलवा बना दो

अगले दिन मैं परेशान
, कैसे कहूं फिर यही बात
मां हलवा खिला दो, मां हलवा बना दो

मां की ममता ने ताड लिया, मन में है क्या जान लिया
बिना फरमाइश मां ने हलवा बना के खिलाया
अगले दिन तो मैं शेर हुई, मैं ने कई दिन से कहा नहीं
मां हलवा खिला दो, मां हलवा बना दो

निरतर जारी रहा क्रम, हम सबके कहते रहने का
मां हलवा खिला दो, मां हलवा बना दो

मां ने हर रोज हलवा बनाया था

उसमें वही स्वाद, वही प्यार, हर रोज नजर आया था

अपने बच्चों के लिए अब मैं भी हलवा बनाती हूं,
मां तेरे हलवे को याद कर मैं खुद नहीं खा पाती हूं

चीनी कितनी भी डाल लूं
,मां के हलवे सी मिठास कहां
मां की ममता और प्यार बिना जीवन में उजास कहां

जब भी मां के पास जाती
हूं कटोरी भर हलवा खाती हूं
मां के आंचल की छांव तले मैं खुद बच्ची बन जाती हूं
मां के आंचल की छांव तले दुनिया का सुकूं मैं पाती हूं
अपने बचपन की यादों से मैं खुद निहाल हो जाती
हूं

-रुचि चन्द्रा

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