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गांधी की बात का मर्म
पापा से एक दिन मैं ने कहा

राजनीति में तुम आ जाओ
अपना कुछ, अपनों का भी
बेडा पार लगा आओ

ज्यादा की है, नहीं तमन्ना
अपना संतोष से नाता है
पेट्रोल पंप एक, गैस ऐजेन्सी एक
बस यही भरमाता है. 

पापा बोले, नहीं मैं दूंगा
भ्रष्टाचार मैं नहीं करूंगा
यूं ही देश गिर रहा गर्त में
और न इसको गिरने दूंगा 

मैं तो जनसेवक बनूंगा
जनता की सेवा करूंगा
परिवार का त्याग करूंगा
ध्यान उनका नहीं धरूंगा 

मेरा तो सर चकराया
दिमाग भी मेरा भन्नाया
बचपन से है यही किया
अब भी न मन भरपाया
 

स्वतन्त्रता के साठ साल बाद
गांधी बनने का सपना है देखा
गैरों को खुशहाल बना कर
भूखों हमें मारना है सूझा 

जमाना कितना अब बदल गया
फिर भी तुम्हें समझ न आया
गांधी का समय अब बीत गया
अब जमाना नया है आया 

पापा ने हंस कर कहा
तू है बच्चा,अक्ल का कच्चा
गांधी की बात का मर्म न समझा
न उनके मूल्यों का महत्व समझा 

जिस दिन त्याग की महिमा को
समझेगा तेरी पीढी क़ा हर बच्चा
उस दिन फिर गांधी बनेगा
देश का हर नागरिक सच्चा 

उनके चेहरे का तेज देख
समझ तो मैं कुछ न पाया
मन ही मन खूब उलझ कर
मैं तो फिर मौन हो गया

अगर तुम समझ सके हो तो
बतलाना, जो समझ न मुझको आया.

-रुचि चन्द्रा

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