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सरकारी अफसर

मैं एक अफसर हूँ

उस पर फिर सरकारी

क्यूं है ना करेला नीम चढ़ा !

अरे - अरे हंसिये नहीं

यही जनता का सोच है

अफसर होता है मोटी खाल का

चाहे जितना हंस लो

उसे दर्द नही होता

कहते है संवेदनायें

मर जाती हैं अफसर की

पीडा से अनजाना है वो

क्योकि वो मानव नही

मशीन है

अपने आप चलने वाली

ओटोमैटिक मशीन

किसी का सगा नही

सबसे अलग - थलग

अपनी ही दुनिया का वासी

फिर मुझे क्यों सालती है

दूसरो की पीड़ा

तो उत्पीड़न देख देख कर

क्यो भर जाती हैं आंखे मेरी

एक अवश सी लाचारी अपार दर्द

थोड़ा थोड़ा कर भी

हटाये नही हटता

बढता ही जाता है

क्या क्या कर सकती हूँ मैं

जिससे उनकी पीड़ा मिट जाये

जिनके लिये काम करती हूँ मैं

फिर यह दर्द यह अवशता

क्यो ह्रदय भर देती है मेरा

क्या मैं सरकारी अफसर नहीं

क्यों नाहक मे चिंतित हूँ

क्यो नही मशीन बन जाती

जैसा हम को समझते हैं सब लोग

कम से कम ये तीखी जलन

जो निश - दिन मुझको घेरे हैं

कुछ तो कम हो जायेगी

कुछ चैन मिलेगा

मंजरी भान्ती
7 दिसंबर 2007

 

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