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कविताएं :
रूपम मिश्र
-1-
जहाँ ढ़ेर सारा अंधेरा था
वहीं से मैंने रोशनी की शुरुआत की
जहाँ अस्तित्व में आना गुनाह था
वहीं से मैंने रोज जन्म लिया
जहाँ रोने तक की आजादी नहीं थी
वहाँ मैंने मुस्कुराहटें सहेजे रखा
जहाँ कदमों में बेड़ियाँ थीं
थिरकने की गुंजाइश नहीं थी
वहाँ मैंने उड़ने की संभावना तलाश की
जहाँ ढेर सारा शोर था
वहाँ भी मैंने एकांत खोजा
जहाँ देह को जिंदा रखने के लिए
मन को मार दिया जाता था
वहीं मैंने बस मन की सुनी
जहाँ अच्छा कहे जाने का
लोभ बिछाया गया था
वहीं मैंने सामान्य से नीचे
बने रहने की इच्छा की
जहाँ तनाव उभरने को सिर उठा रहा था
वहीं मैंने बेसबब हँसी ढूंढी
जहाँ बस समझौते ही समझौते थे
वहाँ मैंने बिना शर्त प्रेम किया
जहाँ से कभी कोई जबाब नहीं आया
मैंने वहाँ रोज खत लिखे ।
-2-
मैं दुनिया के महान लोगों की जीवनी पढ़ती हूँ
और याद कर लेती हूँ कि वो किस धर्म जाति और कहाँ जन्मा था
शिक्षा और डिग्रियों को भी लगभग याद रखती हूँ
या वो किस माता- पिता की संतान थे
या कार्यरत कहाँ थे
पर जब तुम मुझे मिले तो मुझे कभी ख्याल ही नहीं आया कि तुम कौन हो ,कहाँ
रहते हो , क्या करते हो , या तुमने कब क्या पढ़ा
किस धर्म या जाति समुदाय से हो
बस लगा कि कश्मीर से अभी -अभी चलकर केसर की क्यारियों की महक लिए ताजे हवा
का झोंका आया है
जैसे दुनिया की सारी नेकशीरतों ने इश्क ओढ़ लिया हो..........
-3-
खेलती हुई एक सात साल की बच्ची को डांट कर आजी बुलाती हैं
हाथ में डंडा पकड़ा कर बखार घर के द्वार पर बिल्ली के नवजात बच्चों की रखवाली
सौंपती हैं
कहतीं बिल्ला आये तो मारकर भगाना
लड़की तब अबोध थी बिल्ली ,बिल्ले में फर्क नहीं जानती थी
तो जब बिल्ली बच्चों को दूध पिलाने आती तो उसे भी भगा देती
आजी की नजर पड़ती तो खूब खीझती
पुण्य की जगह पाप कर देती हो!
उसदिन स्कूल से लौटी लड़की उदास होती है
आजी ने देखते ही कहा था एकदिन स्कूल न जाती कलक्टर न बनती
बिल्ले ने दोनो नर बच्चों को खा लिया
लड़की कुछ तेजी से बड़ी हो रही थी आये दिन अखबारों में पढ़ती
प्रेमी के साथ पकड़ी गयी पत्नी का गला पति ने रेत दिया
बन्हवां की बड़की बाग में एक स्त्री का नंगा शव लटक रहा है
बड़ी दीदी ने सुना तो गुस्से में कहा कैसा कसाई होगा वो भठ्ठे वाला अभी कुछ
दिन पहले तो भगा कर ले आया था
बिल्ली के नर बच्चे के लिए बिसूरती आजी कहती हैं आखिर उस आदमी की क्या गलती
!
तुम्हें पता भी है लड़की किसी और से फसी थी
बच्ची को बखार घर में जन्मे बिल्ली के बच्चे याद आते हैं
बच्चों के गले को मुँह में धरे बिल्ला याद आता
और याद आती सहमी हुई बिल्ली
बच्ची आजकल कुदरत से रूठी रहती है
कितने सारे तो प्यारे जीव थे धरती पर
आखिर उसने आदमी को उसके बचपन वाले बिल्ले जैसा क्यों बनाया ।
-4-
कुछ तमाशे तुम्हें और देखने थे !
सारी मोहरें तुम्हारे हाथ में थी
चाहते तो खेल शुरू होने पहले खत्म कर देते
पर कुछ तमाशे तुम्हें और देखने थे!!!
मुझे मेरी ग़ैरतें याद दिलाने के लिए
मेरी चीखें , तुम्हारे लिए की गईं मेरी अरदासें
और भीगी आँखों की बरसों जागती रातें
मेरे मुकाबिल रख दी जाती हैं
जी कुछ हल्का होने ही लगता है कि तुम्हारा अपराध बोध आकर सब भारी हो जाता
है!
पंछी के पंख को नमक के पानी से भिगो कर
कहा गया तुम उड़ क्यों नहीं जाती
मैंने तुम्हारे पर तो नहीं कतरे!
पर सम्भल कर उड़ना कहना नहीं भूले!
क्यों कि खेल तुम्हें कुछ देर और खेलना था!!
तुम्हारा विदा का चुम्बन इतना तप्त था कि
मेरे मांथे पर दो प्यासे इंद्रधनुष उग आये हैं
मैं उन चुम्बनों से अभी तक भीगी अपनी पेशानी को रगड़कर पोछती हूँ !
छिल कर घाव बन गया पर नमी नहीं गयी !
कभी उन लम्हों में गलीज भी लगा है मुझमें ठहरा तुम्हारा वजूद और तुमसे मेरी
पहचान भी !
तुम्हारे बाद तुम्हारे शहर में घूम - घूम कर
सबसे तुम्हारा जिक्र किया !
ये एक तप्सरा था चाहती थी कि कोई तुम्हें फरेबी कहे
पर जो भी मिला तुम्हारा हमनवां या खफ़्त ख़्याली मिला
ग़जब की यायावरी ओढ़ी अय्यार तुमने! किसी के सामने भी मुखौटा नहीं उतारा !?
-5-
वो अन्याय की राजनीति का छूटा सूत्रधार था!
लड़की शांतिनिकेतन से पढ़कर गाँव आयी थी
जिसे कविता साहित्य और लोकसेवा से प्रेम था !
लड़का गाँव के स्कूल में नया बना टीचर था
जो न्याय सेवा और बदलाव की बात करता था!
वो लड़की को आप और जी कहता
जब टोकने पर शरमाता तो लड़की को ख़ूब प्यार आता!
लड़के को गाँव से अन्याय खत्म करना था
शहर जाने की बात पर कहता
मैं छोटे नर्क को छोड़कर बड़े नर्क में नहीं जाऊँगा .!
लड़की कहती जब तुम बोलते हो तो
लगता है कि जाड़े की गुनगुनी धूप की किरणें फूटती है
वो लड़की की कविता भरी बातों पर फिदा था
दोनों शादी करके खुश थे
पर लड़का न्याय की लड़ाई लड़ते हुए
अपने स्वार्थ की लड़ाई लड़ने लगा
रात ढले घर आने पर खींच कर फेंक देता
लड़की के हाथों से कविता की किताब!
लड़की जब भी उसे सेवा और न्याय याद दिलाती
तो कहता रात खराब मत करो !
लड़की ने बहुत ढूढा
उस सच्चे और शर्मीले लड़के को पर वो नहीं मिला !
लड़की हताश निराश लौट जाती है
पर वो सत्ता के मोह से नहीं लौटा!
और फिर से राजनीति के साम,दाम ,दंड भेद से
जन्म ले लेता है एक और सूत्रधार
-रूपम मिश्र
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