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 खुल जायेंगे बंद दरवाजे

गली के हर मोड़ पर कब्ज़ा है
गाँव के चंदनधारियों का
सुबह से लेकर शाम तक खड़े रहते हैं
गली के मोड़ों पर एक से बढ़कर एक
चंदनधारी

लौट-फेरकर घुमाते हैं मुँह और सिर अपना
और ताकते हैं वे
चलती-फिरतीं परछाइयों को
वे निवृत्त होने नहीं होते हैं खड़े मोड़ों पर
वे पकड़ते हैं बिम्ब-प्रतिबिम्ब
अपनी पैनी आँखों की पलकों से
जनानी परछाइयों के

लेकिन जब निकलते हैं वे
अपने घरों से
लगा देते हैं साँकलें अपने मुख्यद्वार की
खींच देते हैं मोटे-मोटे पर्दे
खिड़कियों पर
ये देख खिसक जाती हैं उनकी परछाइयाँ
देहरी के थोड़े और भीतर

वे मुस्कुराते हैं अपनी बादशाहत पर
बंद घरों में गलती रहती हैं देहें उनकी
परछाइयों की
लेकिन चंदनधारी खड़े रहते हैं गली के
मोड़-मोड़ पर बिलकुल खुलेआम

उनके घर की परछाइयों को
पीस रही हैं दीवारें
झुक गयी है रीढ़ की हड्डियाँ उनकी
पाँवों की उँगलियों के बीच खून जमकर
हो गया है कपास के रंग का

गंधाने लगी हैं देहें उनकी
लेकिन मनाही है हवा को,उधर से गुजरने की
धूप भी नहीं निकलती उनके घरों के ऊपर से
रातें छिपा लेती हैं चाँदनी की हर बात
अपने आँचल में

कुंठाओं की पोटलियाँ लादे परछाइयाँ
सहेजती हैं चंदनधारियों के घर
हाँ कभी-कभी हँसती भी हैं वे
जब दिन ढले खुलती हैं साँकलें उनकी
परछाइयाँ करती हैं झुक कर
मुगलिया अभिवादन चंदनधारियों को
और लबरे-लबार बन जाते हैं
अचानक से तानाशाह
जो टपका रहे थे लार कूकुर-सी
मुखरित परछाइयों पर

निकलने लगती हैं आग की लपटें
उनकी ज्वालातुर आँखों से
ये देख झुका कर लेती हैं गर्दनें
छोटी-बड़ी परछाइयाँ और कर लेती हैं
बियालू (रात का भोजन)
समझ कर पुरुष का पुन्य उजाला
मिलता है बिरलों को ही
और मनाती हैं सौभाग्य अपना

ये देखकर करते है सीना चौड़ा अपना
गाँव के चंदनधारी
और वे सो जाते हैं दूसरे दिन दिखने वाली
किसी हसीन परछाई की आस में

सुखाती रह जाती हैं घने अँधेरे के बीच
टिमटिमाते दीये की लौ से
अपने बिगड़ चुके घावों को
मौन परछाइयाँ

आशा है कभी न कभी तो
घटेगा सत्य इनके जीवन में भी
एक घटना की तरह
और खुल जायेंगे बंद दरवाजे मन के |


-कल्पना मनोरमा

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