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।। प्रतीक्षा।।
एक
प्रदीर्घ प्रतीक्षा,
ये पल काल खंडों में विघटन के होते हैं
जब छीज रहा होता है मनुष्य
किसी के आगमन के विरुद्ध।
प्रतीक्षा
विरह के क्षणों का संबल विवेचन
उंगलियाँ अगर छूट गयीं हैं तो
या तो बंधन में शक्ति नहीं थी
या संबंधों की शुरुआत ही नहीं हुई।
कोई टूट ही जाता है
प्रतीक्षाओं के साहचर्य मात्र से
अन्तः को चित के अनुरूप नहीं बना पाता
उन घड़ियों का आगमन होता ही नहीं
एक स्वप्न सा होता है उसका
उपलब्ध सुख भी
और फिर क्षितिज के पार तक उसका पलायन।
प्रतीक्षा में बुद्ध थे
परीक्षित की संततियां
जमदग्नि का शाप काल भी एक दीर्घ प्रतीक्षा
प्रतीक्षा अयोध्या को भी रही
नारायण के आगमन की।
मेरी यह राह अनजान ही रह जाए शायद
मैं यहीं ठहरा
अपने समय की प्रतीक्षा में रहा
तुम्हें पता भी ना चले शायद कभी
कैसा रहा होगा यह प्रयाण
जब प्रतीक्षा स्वयं थक कर
बैठ गयी होगी मेरा साथ छोड़कर
स्मृतियाँ तो अनजाना चेहरा लिए
सदैव इप्सा द्विगुणित करती रही हैं।
हम जान ही नहीं पाते
तपस्या में कौन था
और कब तक।
।।
बहुत दिनों बाद ।।
बहुत
दिनों बाद तुमसे मिलने आना हुआ
तुम्हारा शहर फिर अच्छा लगा
नदी में पानी अब भी था
बड़े नाले बह रहे थे
सड़कों पर गाड़ियां बढ़ गई थीं
कुछ आंखें हालांकि सख्त थीं
तुमसे इन कठोरताओं पर बाद में बहस होगी
अज़रबैजान और आर्मेनिया जानते थे लोग
"पाताल लोक" पर बहस छिड़ी थी जहां तहां
"गैंग्स ऑफ वासेपुर" पर पिछली बार की तरह
हर बार दोबारा आने पर अंतराल हो जाता है
कभी तुम भी आओ न मेरे पास पहाड़ पर
अकेला हूं पर व्यस्त रहता हूं।
।।
चित्रा
।।
मैं
और चित्रा साथ पढ़ते थे
मेरे बात करते रहने में वो खुश रहती थी
मैं उसकी आँखों में अपनी आत्ममुग्धता पढता रहता
पढ़ते हुए मैंने नौकरी पायी
पढ़ाई छूट गयी उसकी शादी होते ही
वह तीन बच्चों की माँ बनी
शादी मेरी देर से हुई
बच्चे ज्यादा देर से
अपने से खुश नहीं तो बच्चों को कितना प्रक्षेपित करूँ
चित्रा पूछती थी
तुम बच्चों के बारे में नहीं बताते
मैं कह नहीं पाता
कि मैंने तुम्हें कल की उजाड़ शाम के बारे में भी नहीं बताया
मैंने कहा ये कहाँ बताया कि मैं डरा हुआ हूँ समय से
हार भींग रही है मेरे भीतर;
ऋचा ने जुगाड़कर दिल्ली में करा ली समीक्षाएँ
मैं ढूँढता रहा हूँ प्रकाशन योग्य सामग्री
प्रकाशक की क्रूरता निराला के समय से ज्यादा बढ़ी है |
पेड न्यूज़ इन दिनों बिक रहा ज्यादा
पे नहीं कर पा रहा मैं पेट्रोल का बिल
तुम नहीं बहुत अच्छा कर पायी चित्रा
शायद तुमने जीवन में यही सबसे अच्छा किया
साहित्य-क्लबों में मेरी सरकारी नौकरी उपहास का ही विषय है
तुम्हारे पति के व्यवसाय तुम्हें दे ही देते हैं "अस्मि" और "नक्षत्र" के
जेवर
मैं जुगाड़ कर कुछ सपने सजाता हूँ
दोस्तों ने मेरी कविताओं से पहले ही कर लिया था दूर अपने को
उड़न छू होती गयी हैं मेरी सखियाँ
वे जो अखबार में मेरे साथ थीं
और अखबार में कुछ ही दिनों बाद आने लगीं
रोमा तो मेरे साथ सिगरेट के धुंए दूर तक फेंकती थी
ख़ास ब्रांड की व्हिस्की हालाँकि अपने ही पैसों से पीती रही
उसकी फिल्में पूरी नहीं हो पा रहीं अब इसका टेंशन है
चित्रा, भारी पड़ा मेरा प्रोफ़ेशन मेरी उम्मीदों पर
ज़िन्दगी तुम्हारी आँखे अब भी रौशनी से भरकर रखती है
तुम पसंद के फल चुनती हो, बे-मौसम की हरी सब्जियां
तुमने सजाया घर सितारों से
बच्चे तुम्हारे
पार कर जायेंगे तुम्हारे परिवेश |
हम दोनों ज़िन्दगी से अब भी लड़ ही रहे
वो न्यूज़ में नहीं दिखा पाती सही सियासी चेहरा
अपराधी को पहचानकर भी काम की बाईट नहीं चला पाती
मैं लिख नहीं पाता बे-खौफ अपने मन की
प्रेम और निराशा में ही तय होता रहता है रचनाओं का सफ़र
बच्चे छुट्टियों में विदेश नहीं जा पाते
पहाड़ों पर जाने के नाम से ही घूरने लगे हैं अब
मासिक आमदनी इतनी नहीं अब तक
कि रोमन साम्राज्य कि बारीकियाँ खुद ही देखकर
कह सकूँ कि इनमें कुछ नहीं था भव्यता और धन के सिवा
(तुमने मेरी उस कहानी पर सबसे अच्छी टिप्पणी भेजी थी चित्रा)
छोटे और गरीब मुल्कों ने सरहदों से बाहर
बहुत सी बेशकीमती कलाकृतियाँ गढ़ ली हैं
(विअतनाम कि पेंटिंग्स की प्रदर्शनी ज़रूर देख लेना,
और हाँ दीर्घाओं में घूमते अब मैं उकता जाता हूँ )
और अब सही में हैं ये काल-दिक्-निरपेक्ष |
राजीव कुमार
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