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।। लड़कियों का मन कसैला हो गया है ।।

न दिनों
लड़कियों का मन कसैला हो गया है

अब वह हँसती नहीं
दुपट्टा भी लहराती नहीं
अब झूला झूलती नहीं
ना ही गाती है कोई गीत
खेत की पगडंडियों पर सखियों संग कुलांचे भरती नहीं
वह आकाश की तरफ भी नहीं देखती
ना ही चाँद को देर रात निहारती है
आईने के सामने घंटों सँजने वाली
अब आईना भी रोता है
अब सपनों में भी वह डरी सहमी दुबकी है

वह पांच कपड़ों के भीतर रहकर भी नंग-धड़ंग महसूसती है
अब भाई / पिता के नजरों से भी डरती है
वह नोंच देना चाहती है मुलायम चमड़ियों को
काट देना चाहती है रेशमी बाल
भोथोड़ देना चाहती है अपने होंठ
कुचल लेना चाहती है छाती

धू-धू कर जला देना चाहती है अपना अस्तित्व
उसे धिक्कार है स्वयं के होने का
वह खो रही है धैर्य
वह धकेल रही है खुद को लिजलिजे गड्ढे में
वह निरंतर कीच में धंस रही है

अब धरती बंजर होने को है
जहां लड़कियां देह से इतर कुछ भी नहीं
वह धरती बांझ है
वहां देवता नहीं
दैत्य बसते हैं

काठ की कुर्सी पर बैठा सत्ताधारी को काठ मार चुका है
वह सुंघता है जाति
देखता है धर्म
गिनता है वोट
लगाकर आग फूलों को
सेंकता है रोटी

दहक रहा है देश
दहक रहा समाज
अब थर्राने की बारी तुम्हारी है।।

।। तीज़-त्योहार करती आधुनिक स्त्रियाँ ।।

न दिनों भी
तमाम पढ़ी-लिखी विदुषी स्त्रियाँ
विरासती परंपराओं को विधिवत जीतीं हैं

चश्मा पहन मोटी-मोटी किताबों में उलझी स्त्रियाँ
माचिस की तीली से आलता उकेरना भी जानतीं हैं

सेहत के नाम पर उबले खाने के बाद ग्रीन टी पीने वाली स्त्रियाँ
निर्जला उपवास रखकर आशीर्वाद बटोरना भी जानतीं हैं

पूरे साल आधुनिकता से कदमताल करती स्त्रियाँ
पूजा के दो दिन पहले दिखातीं हैं धूप
पारंपरिक बनारसी साड़ी को
शादी में मिले भारी मोटे झूमके , कड़े , हार , मांगटीका

लगवाती है नक्काशीदार मेहंदी
करतीं हैं सोलह - श्रृंगार
संपूर्ण विधान से पूजा करतीं
समीप रखना नहीं भूलती सिंदूरी डिबिया

सूफियाना धुन पर झूमने वाली स्त्रियाँ
आरती गीत पर बजातीं हैं तालियाँ / सोचते हुए कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम और रक्त संचार बेहतरी को
हर पहलू पर लॉजिक ढूँढती स्त्रियाँ
तीज - त्यौहार में हो जातीं हैं पूर्णत: घरनी
कोने - कोने में जलातीं हैं समृद्धि के दीये

सूर्योदय के पहले विसर्जन करते हुए
जल में बहातीं हैं समस्त स्त्रियों की पीड़ा /दु:ख / संताप
अंजलि में भरकर गंगाजल पी जातीं हैं समस्त रोग
पाँच स्त्रियों के मांग में रहतीं हैं सिन्दूर
गले लगाकर हृदय को करतीं हैं पुनीत

पुलकित मन से पारंपरिक - विरासत को डिब्बे में डाल ओढ़ा देतीं हैं लाल सालूक कपड़ा

नींबू पानी के गिलास के साथ
उठाती है कलम
और करतीं हैं समय के गाल पर कठोर हस्ताक्षर ।।

ज्योति रीता

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