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हाँ लगता है चाँद

पूरे चाँद की एक रात
बैठा हुआ था घर की छत पर
हाथों में लिए पत्नी का हाथ
कि मन के कच्चे मुझ कवि का बहक गया मन,
कहा पत्नी से सुनो !
अगले जनम तुम चाँद पर लेना जनम

कि जब चाँद इतना सुंदर, तो चाँद की लड़कियाँ होंगी कितनी सुंदर
बेशक़ मैं अपनी इस धरती पर जन्म लूँगा
चाह हैं लेकिन चाँद-सी
चाँद की लड़की से ब्याह रचाऊँगा

मेरे हाथों पर बढ़ गई पत्नी के हाथों की मजबूत पकड़

कहा पत्नी ने ; गर थोड़ा मजबूत करो, कल्पनाओं का घोड़ा
तो चलो चाँद पर घूम आएँ थोड़ा !
चाँद की धरती पर मैं भी तय कर आऊँगी
अगले जनम का कोई कोना

हुआ सुंदर कल्पनाओं के घोड़े पर सवार
हाथ में लिए पत्नी का हाथ
उतर ही गया चाँद की धरती पर
पूरे चाँद की उस रात

सूखा ही सही लेकिन मिला नहीं एक भी दरख़्त
चाँद की धरती पर
कि जिससे बाँध पाता थका-माँदा मेरी कल्पनाओं का घोड़ा
मिलता जो कोई पेड़ हराभरा
उसकी देह पर गोद देता दिल अपना
और उस दिल में जन्म-जन्मांतर के लिए लिख देता
नाम पत्नी का

चाँद पर बहती नहीं हवाएँ
कि कोई सुन सके प्रेम की ध्वनि-प्रतिध्वनियाँ
जल नहीं जीवन उत्सव का
नदी की देह पर गुनगुनाते बुलबुलों का राग-मल्हार नहीं

वहाँ नहीं खिलतीं चारुचंद्र की चंचल किरणें
मिला विद्रूपताओं का धोखा ही धोखा
आघातों का अँधेरा ही अँधेरा
मिला नहीं पत्नी को अगले जनम का कोई कोना
चाँद पर झरने लगा पत्नी का चाँद-सा चेहरा
पूरे चाँद की उस रात

घुटते जीवन की घुटती साँसों के बीच
हरीभरी घास तलाश रहे
मैंने जैसे-तैसे मनाया कल्पनाओं के थके-माँदे घोड़े को
कि चलो ! लौट चलें अपनी हरीभरी धरती पर

कि होते-होते चाँद से दूर, अपनी धरती पर के क़रीब आते-आते
छुआ धरती के गुरुत्व को जैसे ही
चाँद-सा लगने लगा फिर मुझको पत्नी का चेहरा

कुछ चाहा कहना तो पत्नी हाथ रख दिया मुँह पर मेरे,
कहा; तुम कवि ही लगाते हो
उपमा, अनुप्रास, अलंकार, प्रतीक, मिसाल
स्त्रियों के चेहरे पर चाँद की वर्तनी
वरना तो तुम देख ही चुके हो
हम धरती की स्त्रियों के आगे कहाँ लगता है चाँद !

शायद सूरज की रौशनी में छुप-छुपकर
चाँद मिटाता है अँधेरे अपने जीवन के
आता होगा दिन में पृथ्वी पर
और चुराता होगा हर स्त्री के चेहरे से
चोरी-चोरी

सुंदरता थोड़ी-थोड़ी !

ज़रुरत

तंग आ गया हूँ चाँद की इस बेज़ा हरकत से
आ कर मुँह ढेड़ा बनाना,फिर मुँह फूलाकर
जाकर कहीं छुप जाना
दो-दो हफ्ते

हर दफ़ा बस!एक ही गिला-शिकवा
कि उसे घेरे काली घटाएं महकती नहीं ज़रा

सोचता हूँ-
सर्द किसी रविवार की अलसांदी कोई सुबह
तुम बैठी हो नहाकर घर की छत पर
आँचल में फैलाकर
सूखा रही हो बाल अपने

एक गुलेल बनाऊँ कुछ इस तरह
सनसनाती इस हवा का एक सिरा
बाँधू किसी पहाड़ से
दूसरे पहाड़ से सिरा दूसरा
खींचूँ रबर की तरह सायँ-सायँ हवा को
और कंकर की जगह रख दूँ चाँद को
फिर निशाना लगाऊँ इस तरह
कि चाँद गिरे जाकर तुम्हारे आँचल में

तुम समझ तो जाओगी ना!
यह जरुरत किस की है
मेरी या चाँद की।

आँखों के रेल-रेले...

तिरपती इन आँखों के रेल-रेलों में
एक रेल तुम्हारी यादों की
अब भी दिन-रात के फेरे लगाती है

मुलाकात के पिछले स्टेशन से
अब भी सवार होता है
हीना-सीना एक प्रेमी जोगड़ा,
वियोग में तड़प कर गाता है
'तानसेन' का राग मल्हार-
'बरसो रे काले बादरवा हिया में बरसो....'
घन-घन बरसते घन
और तरबतर हो जाती है रेल

मेरे प्रेम के प्लेटफॉर्म पर
मन भीगे
सकल-सकारे
अब भी तुम उतरती हो
संभलकर रखती हो कदम
फिर भी कहती हो-
'उफ!कितनी फिसलन है यहाँ
पर डर कैसा
तुम जो हो साथ;मेरे हेता-चेता
ओ मेरे ख़ैरख़्वाह!'
और मैं खुद से करता हूँ
तुम से ताउम्र प्रेम का वादा

प्रेम के प्लेटफॉर्म पर
अब भी हाथों में लिए पोहा भरा
नाश्ते का डिब्बा
तुम्हे तलाशता हूँँ डिब्बा-डिब्बा
...और देर शाम जब आने को है तुम्हारी रेल
मेरे हाथों में है डिनर-पैक
तुम्हारी पसंदीदा
बीन्स और कुरकुरे करेले की सब्जी से भरा

डबडबायी आँखों से करता हूँ तुम्हारी रेल को विदा
अब भी ओझल नहीं हुई
लुपतीझुपती आख़िरी बोगी की टैल-लाइट
कि इसी रेल से तुम लौटोगी ज़रूर
और इंजन की हेडलाइट से फिर होगा रौशन
अंधेरे में डूबा
मेरे प्रेम का
छोटा सा प्लेटफॉर्म!

इन दिनों में

इन दो दिनों,बहुत सताती रही तुम्हारी याद
बहुत याद आयी तुम इन दो दिनों में

इन दो दिनों,बहुत तेज रही शीतलहर
ठिठुरती रही धरती
उदिग्न हुआ ऊष्मित सूर्य
लाँघी नहीं किंतु कोहरे की झिलमिल मर्यादा-
'प्रेम कितना भी अंतरंग हो,सार्वजनिक न हो
टूटे न कोई वर्जना, तो शाश्वत है प्रेम'
तुम जैसा चाहती थीं,सब वैसा यथावत रहा

आदी से अब तक खुलते रहे स्मृतियों के पृष्ठ
मैं डूबकर पढ़ता रहा शब्द-शब्द
बिल्कुल ताजा मिले प्रेम के अर्थ-कलाप
हालाँकि इन दो दिनों
शुभप्रभात-शुभरात्रि
इतना भर रहा हमारा संवाद

मुझे रहा इतना तक याद
तुम्हें पसंद नहीं पहले से काटकर रखा हुआ सलाद,
फ्रीज में रखे हुए हैं ज्यों-के-त्यों
ककड़ी,मूली,प्याज,गाजर,टमाटर और शलजम
तुम बिन यूँ भी मेरा खाना रसहीन रहा,
हालाँकि मन-ही-मन फूली नहीं समाओगी
पाकर मेरा बढ़ा हुआ यह प्यार
मगर इतराकर,
मुँह बिचकाकर
कहोगी मुझे चिढ़ाने के लिए-
ऊँ हूँ...शायद!

आओ! वादा करें

तुम्हारे प्रेम में
अक्सर मैदान छोड़कर भाग जाया करता था
चढ़ जाया करता था पर्वतों पर
सहलाता रहता था तुम्हारी यादों की क्यारियों को
इसतरह कश्मीर की हसीं वादियों में
तुम्हारे प्रेम का केसर रचाबसा मेरे रोम-रोम में

मैं इसलिए पर्वतों पर चला जाता था
कि तुम्हें देख सकूँ उठते-बैठते आते-जाते
तुम्हें आगाह कर सकूँ तुम्हारे आसपास के ख़तरों से
तुम साफ़ नजर आती हो मुझे प्रेम-पर्वतों से

रात तुम जब सो जातीं
तब प्रेम-पर्वतों पर चाँद होता मेरे बहुत करीब
चाँद को चुमा है मैंने कई मर्तब़ा तुम्हारे तस्ववुर में
और जब तुम्हें बताता अपनी यह शरारत
तुम झूठमूठ गुस्सा जताती खूब आँखें तरेरती
बात नहीं करतीं कई-कई दिन...

याद है तुम्हें!उन्हीं दिनों का वो वाकया
जब चाँद ओझल था आसमान से
और रह-रहकर सता रही थी मुझे याद तुम्हारी
मैंने पूछा था-'कहाँ है मेरा चाँद!'
तो तुमने बताया था पूरी ठसक के साथ-
'अपने पापा के पास!'

सच,मुझे बड़ा अच्छा लगा था यह सुनकर
कि अब भी एक पिता के पास बेटी का होना
पिता को लड़कपन का मखमली अहसास कराना
कि परायी होकर भी
महज यादों की परछाई नहीं होती बेटी
सचमुच अब भी अच्छा लगता है एक सच्चे प्रेमी को
एक बेटी का
उसके पिता के पास होना

यह उस समय की बात है
जब तुम्हें जाना था पर्वतों के पार कहीं
ऐसे में लाजिमी था मेरा मैदानों पर लौट आना

इस रंग बदलती दुनिया में
एक ही तो सहारा है मेरे पास
तुम्हारे प्रेम!

आओ, वादा करें इस जश्न-ए-रंग में
हमें मैदान छोड़ना नहीं,मैदान मारना है
प्रेम में।

...तो खुला मिले घर का ताला

आ आ कर चोंच मारती है कुरेदती है पंजों से
भोलीभाली चिड़िया करती है एक ही सवाल,
कब तक यूँ उदास लटके रहोगे जनाब!
लेकिन कुँदों में गर्दन फँसी हो जिन तालों की
वे भला कहाँ कुछ बोल नहीं पाते हैं !

फिर...बदलते मौसमों की मार झेलते घर के बाहर लटके बंद ताले
ज़्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाते किसी की अनबन
जैसे अपनी प्रियतमा-कुँजी के बिरह में अभिशप्त
लटके-लटके मर जाते हैं!

हिलाडुलाकर मनाने या झुंझ में बार-बार झटकने के
हरसंभव प्रयास हो जाते हैं बेकार
जिस तरह मरने के बाद ऐंठ जाती है लाश
अकड़ जाते हैं वैसे ही मुर्दा ताले भी
टूट जाते हैं मगर खुल नहीं पाते हैं
यहाँ तक कि जीवनसंगिनी चाबी भी
मुड़कर टूट जाती है लेकिन खोल नहीं पाती
बंद पिया के जीवन की गाँठ..

मैंने देखे हैं ऐसे कितने ही डरावने दृश्य
जहाँ बिलखता है अब भी आकर इतिहास
कि दीवारें ढह गईं मगर खुल नहीं पाए ताले
अब तक लापता हैं जिनकी कुँजियाँ

सुनो! मैं जा रहा हूँ प्रवास पर
लौटूँ तो मुझे लगा न मिले घर पर ताला
और हाँ...
नर्सरी से लेती आना सूर्ख गुलाब का पौधा
तुम बिन सूख गया है घर का गुलाब
लौटकर आने पर उसे छूना मत
बहुत तीखे होते हैं सूखे गुलाब के काँटें
और मुझे बहुत पसंद है तुम्हारे गोरे-गुलाबी हाथ
जिन्होंने मेरे हर सुख-दुःख बाँटे!

ओ,प्रेम-पर्वत!

ओ,प्रेम-पर्वत!
कोहरे की मोटी चादर में
मुँह दुबकाए
तुम सुबक रहे हो ना!
किसी की याद में
यह पिघलती बर्फ़
तुम्हारी आँखों से बहती
पीर ही तो है!

तुम्हें सता रही है ना!
तुम्हारी देह को छू कर बही
नदी की याद?

प्रेम के वशीभूत
क्या तुमने भी तोड़ी थी
अपनी कठोर वर्जनाएं सभी
क्या नदी ने भी स्वीकारी थी
तुम्हारी अनुनय

जन्मजन्मांतर के प्रेम-मिलन में
क्या तुमने भी की थी
मानव-देह धरी थी
क्या तुमने भी किया था
नदी का आलिंगन
नदी के गालों का चुम्बन!

ओ,प्रेम-पर्वत!
देह को छूकर
जो बह निकलती है
फिर लौटकर
पर्वत के पास कहाँ
आती है नदी!

ओ,प्रेम-तपस्वी!
फिर आँखों से बहती है
सतत एक नदी!!

कवि की आँखों से प्रेम देखो

यह समयचक्र है-
तमतमाया है,तो तुम्हें भी तपना पड़ा
किन्तु तुम्हीं पर प्रेम भी तो बरसाया है
बूँद नहीं रखी एक पास
तुम्हीं पर सब न्यौछारा है

यह समयचक्र है-
कि दरमियान कोहरा घना है
तुम्हें शायद पता नहीं
आकाश तुम बिन
पूरी रात कितना रोया है

ये जो गिरी हैं ओस की बूँदें
ये आँसू हैं आकाश के
ठहर कर रह गए जो तुम्हारी सतह पर
एक सच्चा प्रेम भीगो न सका तुम्हारे अंतरंग को,
लेकिन मैंने देखी है सूर्ख गुलाब और फूल-पत्तियों पर
कतरा-ए-शबनम की सजी हुई महफिल,
सूरज की पहली किरन के साथ
कि उन शबनमी अश्कों में कितना छुपा है
सप्तरंगी प्यार,तुम्हारे लिए

ओ,धरती!
तुम पर जन्मा एक कवि हूँ मैं
मरना है तुम पर,मिटना है मुझको तुम्हीं पर
मैं तुम्हारा कवि हूँ,अक्षुण्ण आश्वासन हूँ तुम्हारा
शिद्दत से खड़ा होता हूँ तो
सिर मेरा छूता है आकाश को

तो देखो...ओ धरती देखो!!
समूची उतर आओ एक कवि की आँखों में
एक कवि की आँखों से फिर देखो
देखो अपने चहुँओर,देखो हर दिशा दूर-दूर
पूछो इस छोर से उस छोर...अपने हर छोर से पूछो
देखो कि कितना झुका हुआ है आकाश
तुम्हारे प्रेम में
पूछो समन्दर के किसी छोर से
कि क्यों डूबा हुआ है आकाश सदियों से तुम्हारे प्रेम में

माना तुम बँधी हो मर्यादाओं में
मगर तुम्हारे भीतर मचलते समुंदर की
ये उदात्त लहरें
क्यों होती हैं बेताब
छूने को
आकाश!

-वसंत सकरगाए
 

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