मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

चित्र - १

जैसे कि एक दृश्य खींचा हो किसी ने
और... मैं उसका हिस्सा हूँ

मेरी बाहों की जगह परों ने ले ली है
और मस्तिष्क की जगह एक धड़कता दिल है
मुड़े हुए कागज को सीधा कर
हवा मे लहरा कर बीचों बीच
एक लकीर खींच कर
चलती जातीं हूँ एक ही दिशा में
हाशियों से होती हुई
पन्नों से बाहर उतर जातीं हूँ
और अपनी पोरुओं को पानी में डुबो कर
महसूस करतीं हूँ उसका तापमान
तमाम कोशिशों के बाद भी
उस मकड़ी की तरह
जो कशीदाकारी में माहिर होते हुए भी
गिर जाती है
उस जलाशय में
जिसका पानी बर्फीला है
जो ठंडा कर देता है
रंगों में बहते
सारे किस्सों को
धूमिल चित्र
अनायास ही छहल जाता
और बहने लगता है
उलटी दिशा में

सब थिर हो जाने के बाद
देखती हूँ कि...
मैं डूब रहीं हूँ
उस पानी में
जो शीशे की तरह साफ
और पन्नों की तरह खामोश है

चित्र-२

‘कुसामा’ की बिँदियाँ
छोटी बड़ी
रँग बिरँगी
उसकी आँखों की पुतली से
उलच कर गिरती
और फैल जाती चारों ओर

पलक झपकते ही
ढक लेती
उसका सारा दुःख दर्द
उसके लाल लिबास
बाल और आँखों से
बहता सपना
मेरी छत और दीवारों पर
बिखर जाता
जीवित हो उठता मेरे अंदर
लत्तर की तरह चढ़ जाता है
चिपक जाता मेरी भित्तियों से

मैं सुन सकती हूँ उसकी सिस्कियों
और चुप्पी को
जब गंभीर आँखों और निश्छल भाव से
रंग से लदे ब्रश को पानी में डुबा कर
छोड़ देती है वह सुस्ताने
और अवकाश ग्रहण करती है
सामने वाले मानसिक चित्सालय में
मैं ठिठक जातीं हूँ
उन दरवाजों के बीच
जो कभी दूर से
तो कभी पास से
फुसफुसा कर उसकी कहानी
भिगो देतें हैं उन वृतों को
जो म्युजियम की कला दीर्घा में
सजे हैं दर्शकों के लिए

चित्र -३

एक चित्र सजीव होने से पहले
पूछता है चित्रकार से
उसकी अंतिम इच्छा

वह बोले न बोले
समझ जातीं हैं
रंग और रेखाएं
सूक्ष्म भावों को
अनकहे अभिप्रायों को
अपनी सारगर्भित भंगिमा से
प्रस्तुत करती हैं
दर्शकों के समक्ष
एक विलुप्त चित्रकार को

माँ

एक सफ़ेद गाय
काली आँखों वाली
हड्डियों के ढांचे पर
जैसे चमड़ा खिंचा हो
चुसा हुआ थन
और टूटी हुई सींग
थोड़ी थोड़ी देर में रेघाती माँ, माँ
उसे ख़बर नहीं
कि लोग उसे माता मानतें हैं

दादी

बाबा के सामने
दादी माथे पे आँचल रखती
कम बोलती
काम की बातें ही करती
जब बाबा का मनोविनोद का मन होता
आँचल मुंह में दबा कर
हँसती ज्यादा
बोलती कम
हल्की मुस्कान के साथ
सरके हुए आँचल को एक हाथ से
उठा कर ओढ़ती
और फिर धीरे से मुँह फेर
उबलते पानी मे चायपत्ती डाल कर
कोसती चूल्हे की आग को

तुम

सब तो ठीक ठाक ही चल रहा था
तुम बनाती थीं खाना
हम सब पंगत में
बैठ जीमते थे

मैं कमाता और तुम
झाड़ू पोंछा चौका बर्तन
श्रृंगार पटार कर
इंतजार करतीं
मेरे घर लौटने का

शर्ट के टूटे बटन टाँकती
बच्चों को दूध पिलातीं
और मैं तुम्हें टुकुर टुकुर देखता
तुम मेरी प्रेरणा बन
कभी मेरे चित्रों में उतर जातीं
कभी मेरी कविताओं में

यथा स्थिति को नकार
तुम सरसराकर आगे बढ़ गयीं
संवाद युक्त हथेलियों और नाखूनों
में लगे आंटे को साफ़ किया
और मैं चौंक पड़ा
अकस्मात तुम्हारी आवाज सुन कर

- पल्लवी शर्मा

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com