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कविताएं

औसत

पिघलते हुए गलत मुड़ा शीशे का तुण्ड,
बैठक में नहीं,
रसोई में काम आया,
वो बस इतना हो पाया ।

वो टारडीग्रेड की तरह जीवित रहा अंतरिक्ष के निर्वात में,
पर किसी वैज्ञानिक के शोध का विषय न हुआ,
उसने रेडियोधर्मी पदार्थों का तकिया बनाया,
बस इतना हो पाया ।

खड़ा रहा पसीने में खुद पर काई उग आने तक,
उसने आख़िरी बस छूट जाने दी ।

मृणाल वो, अपने रेशों से रेशम बना, फिर तरकारी में समाया,
4 शहर घूमा, दो पहर सो पाया,
बस इतना ।

- नेहा ठाकुर
 

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